पंडित भृगुनंदन पांडे बडे ही आवेश मे लम्बे कदमो से बढे चले जा रहे थे, कुछ बडबडाते हुए. हाथ मे बांस की पतली कैनी थी, जो कि बांस के पेड की बडी पतली शाखा से काटी जाती है, करीब गज भर. पतली हरी कैनी जब बच्चो के शरीर पे पडती है, तो ‘सतही क्षेत्रफल’ कम होने की वजह से, सटाक की हुंकार भरती हुई चिपक के बहुत ही पीडादायिनी बन जाती है. घोडे का चाबुक भी इसके आगे फेल है. उनके पीछे कुछ बच्चो का हुजुम भी चल रहा था. सब लोग एक बरगद के पेड के नीचे जाकर खडे हो गये. उपर से सहमता हुआ एक आठ वर्ष का बच्चा अवतरित हुआ. बस फिर क्या था, सटासट पिटायी शुरु हो गई.
साथ मे बडबडाते भी जाते थे, ”कपूत कही का, ना जाने किस जन्म का पाप पैदा हो गया. काम का ना काज का. जब देखो शारारते. किताबो को तो कभी छुआ भी नही. अरे उस खेलावन की बछिया ले जा के अरहर के खेत के बीचोबीच बांध दी. तीन दिन तक कही पता नही चला. बेचारे की गाय बिचुक गयी और अब दूध देना बंद कर दिया है. कपूत कही का”.
पंडित भृगुनंदन पांडे गाव के काफी विद्वान और इज्जतदार पुरुष माने जाते थे. गाव के लोग उन्हे भिरगू पांडे बोलते थे. धारणा थी कि सारे वेद-पुराण उन्हे जबानी कंठस्थ है, और शादी-विवाह मे कोई पंडित उनके आगे शास्त्रार्थ मे टिक नही पाता. विधाता ने उन्हे दो पुत्र दिये थे. बडा पुत्र बजरंगी जिसकी चर्चा ऊपर हो चुकी है, बडा ही शरारती एवम पूरे गाव के बच्चो का सरगना. पिता चाहता था ये पढ-लिख जाये. मगर इसे पढाई फूटी आंख नही भाती थी. सारे दिन घूम-घूम के पूरे गाव को तंग करता था, बच्चो की टोली लेकर. भिर्गू हमेशा उसे कपूत बोलते रहते थे, जिससे उसका नाम ही कपूत पड गया था.
दूसरा पुत्र अभी मात्र तीन वर्ष का ही था. कपूत उसे भी तंग करता था. कही से आता और उसे दोनो हाथो मे पकड्कर ऊपर जोर से हवा मे उछालता, दो बार. और फिर चुपचाप धीरे से खिसक लेता. बच्चा इस तरह घबडा के रोने लगता था, और फिर मां को सारे काम छोडकर बच्चे को चुप कराने की ड्युटी देनी पडती. छोटे बच्चे का नाम दीपक था.
खैर समय बीता. दीपक ने पाठ्शाला मे प्रवेश किया, और कपूत ने पांचवी जमात मे. दीपक का मस्तिष्क बडा ही तीछ्ण था. वर्णमाला तथा गिनती उसे दो महीने मे ही कंठस्थ हो गई. दूसरी कक्षा पास करते-करते तो उसे बीस तक का पहाडा भी कंठस्थ हो गया. भिरगू की छाती दस इंच फूल जाती यह सुनकर,” अरे इसी ने तो मेरा दिमाग पाया है. हमारे पूर्वज तो सिर्फ एक बार कोई विषय पढते थे, तत्पश्चात उन्हे उसे दुबारा कभी नही पढना पडता था. एक बार मे ही वह उन्हे कठस्थ हो जाता था. दीपक तो हमारा कुलदीपक है. पुरखो का नाम अवश्य रोशन करेगा, पढ-लिख के”.
कुछ दिन और बीते. कपूत दर्जा आठ मे चार बार फेल हुआ. जबकि दीपक ने पूरे जिले मे सर्वोच्च अंक प्राप्त किया और वजीफे का हकदार बना. भिरगू ने पूरे गांव को दावत दी.
शहर से कलक्टर साहब भी पधारे. उन्होने मशविरा दिया,”पंडितजी, आपका पुत्र काफी होनहार है. इसे आप गांव के माहौल से निकाल के इलाहाबाद शहर मे पढने भेजिये”.
बात भिरगू को जंची, और उन्होने उसका दाखिला इलाहाबाद के एक अच्छे विद्यालय मे करवा दिया.
कुछ वर्ष और बीते. दीपक ने इंटर की परीक्षा मे 96% अंक प्राप्त किये. मशहूर संस्थान आई आई टी, की प्रवेश परीक्षा प्रथम प्रयास मे ही उत्तीर्ण करके 50वा स्थान प्राप्त किया. नजदीक कानपुर मे ही प्रवेश मिल गया. उधर कपूत दसवी जमात मे भी चार बार फेल हुआ.
भिरगू बहुत झल्लाये,”मेरा एक ही बच्चा है, दीपक. ये कपूत तो केवल हमारा खून पीने के लिये पैदा हुआ है”.
साथ मे कैनी से पीटते भी. फिर थक हार के चुप हो जाते. अगले वर्ष उन्होने कपूत की पढाई छुडवा दी, “कोई जरूरत नही अब मेरा पैसा और बरबाद करने की. चलो अब खेती मे लग जाओ और कुछ अनाज पैदा करना सीखो. पंडिताई तो तुमसे होगी नही. संस्कृत भी नही पढे हो”.
कपूत खेती-बाडी मे लग गया. कुछ वर्षो पश्चात मिसिरपुर के सजीवन पांडे के यहा से रिश्ता आया तो विवाह भी हो गया. पत्नी तो ब्राह्मण कुल-वधू होकर खेत मे जा नही सकती थी, इसलिये खाना बखार इत्यादि कार्यो को सम्पन्न करती थी.
अब कपूत के साथ पत्नी को भी भिरगू की गालिया सुननी पडती थी, “अरे कही की महारानी नही हो. तेज-तेज काम किया करो. अब मेरा पैर कौन दबायेगा?”
गाव मे बहू तो ससुर को छू नही सकती थी, इसलिये कपूत को जाना पडता था. गालियो के साथ कभी-कभी कपूत को पैर दबाते हुए एकाध लात भी खा जानी पडती थी. आधी रात को भिरगू के सोने के पस्चात जब पत्नी के पास पहुंचता तो, “अजी आप इतने बडे हो गये. विवाह भी हो गया. अब बाबूजी को आपपे हाथ नही उठाना चाहिये”.
कपूत, ”क्या करू देवी. मै इस कुल मे गलती से पैदा हो गया. ब्राह्मण कुल मे मुझ जैसे निक्रिष्ट बुद्धिवाले को जन्म नही लेना चाहिये. ये क्या कम है कि पिताजी ने मुझे घर से नही निकाला?.
अगर निकाल दे तो इस दुनिया मे हम कहाँ जायेंगे?”
बात पत्नी ने गांठ बांध ली. और दुबारा फिर कभी शिकायत नही की. दोनो ने पिता के अपशब्दो को अपने भोजन का एक व्यंजन मान लिया.
समय कुछ और बीता. उधर दीपक का भी अंतिम वर्ष आ गया. उत्तीर्ण होने के पहले ही उसे एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी मे बारह लाख का सालाना पैकेज के लिये प्लेसमेंट हो गया.
भिरगू का सीना एक बार फिर गर्व से फूल गया, “देखा इसे कहते हैं कुलदीपक. एक तुम्हारा पति है कपूत. जिसे पूत कहते भी शर्म आती है. अब देखना थोडी ही दिनो मे मै अपने कुल्दीपक के साथ ठाट का जीवन बसर करूंगा. इस गांव मे बहुत रह लिये.”
पत्नी चुपचाप सुनती रही. चलो देवरजी की वजह से कभी कभार हमे भी शहर और उच्च-जीवन-शैली देखने को मिल जायेगी. और पिताजी का बुढापा भी शान से गुजर जायेगा.
एक दिन बडी सी कार दरवाजे पे आकर रुकी. एक बडे धनाढय से लगने वाले सज्जन उतर के सामने आये. परिचय मे भिरगू को पता चला ये तो सेठ लालताप्रसाद शर्मा हैं, जिन्होने इलाहाबाद मे एक नया माल बनवाया है, और तीन सिनेमा हाल पहले से ही हैं. वो अपनी ‘एम बी बी एस’ पढने वाली पुत्री के लिये रिश्ता लेकर आये हैं. दहेज मे पचास लाख और एक मार्सिडीज कार दे रहे हैं.
ना मानने की कोई गुंजाइश नही नजर आई भिरगू को. रिश्ता पक्का हो गया. विवाह मे गांव वालो की जो आवभगत हुई वो कभी किसी गांव वाले ने नही देखा था. विदाई मे हर बाराती को लेटेस्ट 4-जी मोबाइल दिया गया.
दीपक की पत्नी मात्र दो दिन गांव रही, फिर वापस चली गई, अपनी पढाई पूरी करने. दीपक को दिल्ली मे नियुक्त किया गया.
कुछ वर्षो पश्चात छोटी-बहू का भी कोर्स पूरा हो गया. और वो भी दिल्ली मे दीपक के घर मे साथ रहते हुए, एक अस्पताल जाने लगी.
इधर गाव मे लोगो को अक्सर भिरगू सुनाते, “अब मै दिल्ली जा रहा हूँ. वही रहूंगा. इस गांव को अब तुम लोग सम्भालो. पंचायत वगैरह खुद ही निपटो”.
चिट्ठी लिखकर दिल्ली का पता आ ही गया था. सो चलने की तैयारी की, “अरे कपूत और बहू. तुम दोनो पुरखो का दिया हुआ खेत-खलिहान भी मत लुटा देना. मैं बीच-बीच मे आता रहूंगा”.
काशी विश्वनाथ एक्स्प्रेस पकड के दिल्ली पहुंचे. स्टेशन पर दीपक का ड्राइवर मिला. वाहन मे बैठ एक बंगले के सामने पहुंचे. अंदर पहुंचे मगर पुत्र व वधू मे कोई नजर ना आया. नौकर ने एक कमरे मे सामान रखा और बोला, “ साहब जब खाना चाहिये, एक घंटे पहले बता दीजियेगा ”.
रात नौ बजे भिरगू के सोने का वक्त था. इसमे एक मिनट भी आगे पीछे कभी नही हुआ. अतह सेवक को सूचना देकर बिस्तरानशीन हो गये, ये सोचकर कि अब लोगो से सुबह ही मुलाकात होगी.
सुबह चार बजे उठे. नित्यकर्म, प्रातह-भ्रमण व स्नानादि से निव्रित्त हो सात बजे जायजा लिया. घर मे सब अभी भी सो रहे थे. नौकर जो देर रात तक जागा था, वो भी सो रहा था. साहब व मेम-साहब देर रात मे आये, उन्हे भोजन इत्यादि देने मे देर हो गई. भिरगू पूजा-आसन लगाके मंत्रोच्चार करने लगे. बीच – बीच मे शंखनाद भी करते जाते.
इन सब क्रियाकलापो ने घर के समस्त प्राणियो को शैया–त्याग करने पर विवश कर दिया. मगर पंडित की पूजा तो दो घंटे पश्चात ही समाप्त होती थी. जब तक वो पूजा करके उठे,पुत्र व वधू अपने –अपने कार्यालय के लिये तैयार हो जाने को बेचैन दिखे. तुरंत आकर पिता का आशीर्वाद लिया, और शाम को विस्तार से वार्तालाप करने का आश्वासन दे निकल गये.
यही दिनचर्या नित्य चलती रही. और भिरगू कभी भी उन लोगो से विस्त्रित वार्ता नही कर सका. सारे दिन ऊब होती. कहाँ जाये, क्या करे? घर से बाहर निकलता, मगर गांव की तरह यहाँ उसे भला हर गली नुक्कड पे कौन जानता था? आदमी तो कई गुना ज्यादा मगर सब बेगाने. सो वापस घर मे आकर बैठ जाता. अपच व गैस की शिकायत हो चली. खैर एक सप्ताह बीता.
अर्धरात्रि का कोई काल रहा होगा. भिरगू को कुछ बेचैनी सी हुई, और कुछ घबराहट. शीतल जल की आवश्यकता महसूस हुई. कक्ष से बाहर निकल ठंडे पानी की तलाश मे फ्रिज की तरफ चले. रास्ते मे दीपक के कमरे से झल्लाहट भरी आवाजे आ रही थी. ना चाहते हुए भी कदम ठिठक गये.
बहू, “ दीपक, दिस इज इंटालरेबल. रात मे केस स्टडी करने के लिये देर तक जागना पडता है. फिर सुबह – सुबह पिताजी के मंत्रोच्चार वा शंखनाद से उठना पडता है. आई ऐम गेटिंग सिक. ये यहाँ कब तक रहेंगे?”
दीपक, ”अरे मुझे क्या पता? कुछ दिन और इंतजार करो फिर पूंछ लूंगा “.
बहू, “इंतजार माई फुट. बहुत दिनो से घर मे कोई पार्टी नही हुई. पिताजी नौ बजे सो जाते हैं. लेट नाइट म्युजिक कैसे चलेगा? तुम पिताजी के लिये कोई किराये का मकान लेकर उसमे शिफ्ट कर दो. या व्रिद्धाश्रम मे एड्मिट कर दो, जहाँ सब इनके जैसे ही हैं. कई लोगो की कम्पनी मिल जायेगी तो बोर भी नही होंगे. बुड्ढे लोगो के हिसाब से ही वहा पे गेम और इंटर्टेन्मेंट का साधन रखा जाता है. दैट इज दि पर्फेक्ट प्लेस फार हिम”.
दीपक, “ बात तो तुम सोलह आने सत्य कह रही हो. मैं कल ही पिताजी से बात करता हूँ ”.
भिरगू इससे ज्यादा नही सुन पाये, और अपने कमरे मे आकर लेट गये. सम्पूर्ण रात चैन से सोने वाली भिरगू के नैनो ने मानो आज अपने पलक-पट को अधोगामी होने से अवरुद्ध कर दिया हो. कहाँ रहने की अभिलाषा लेकर गांव से प्रस्थान किया था और कहाँ को पहुंचाने जा रहा है ये मेरा सपूत. जरा जरा सी बात पे कपूत को कैनी से पीटने वाले भिरगू, आज सपूत को इतनी बडी ध्रिस्टता पे एक शब्द ना फटकार सके. सारी रात वो अपने दोनो पुत्रो की तुलना करते रहे, और मानव रिश्तो के नये आयाम स्थापित करते रहे.
सारा सामान बांध के तैयार हो गये भिरगू सुबह छ बजे. एक पत्र संकलित किया:-
दीपक,
मुझे एक अति आवश्यक कार्य से गांव वापस जाना पड रहा है. जियावन के पुत्र का विवाह है और कल ही सम्पन्न करना है. रात्रि मे तुम्हारा देर से आगमन हुआ, इसलिये सूचित ना कर सका.
भृगुनंदन पांडे.
पत्र बिस्तर पे छोड चुपचाप घर से निकल गये. मगर मस्तिष्क झंझावात से जूझ रहा था. गांव मे सब को बोल आया हू, साल छ महीने के लिये जा रहा हूँ, या शायद हमेशा के लिये. कभी कभार ही गांव आऊंगा. इतनी जल्दी चला गया तो बडी भद्द होगी.
तभी उन्हे राम किंकर का ख्याल आया. उन्ही के क्षेत्र से सांसद थे. गांव के चुनाव मे भिरगू का काफी प्रभाव पडा था उनके जीतने मे. कई बार दिल्ली आने का न्यौता दे चुके थे. अपना कार्ड भी दिया था. भिरगू कार्ड लेकर उनके ठिकाने पर पहुंचा. मुलाकात के बाद एक बडे हाल मे कई लोगो के साथ टिका दिया गया. नेताओ के घर तो जमघट लगा ही रहता है. भिरगू के व्यवस्थित जीवन को यह ज्यादा दिन रास नही आया. मन को पक्का किया और गांव की राह पकड ली.
सुबह तडके ही गांव के स्टेशन पर उतरे. सामने ही फौजी का तांगा दिखा तो बैठ लिये. तांगा चला तो रास्ते मे कई लोगो ने प्रश्न्वाचक प्रणाम किया, मानो पूछ रहे हो, “इतनी जल्दी कैसे?”
घर के सामने उतर सीधे अपने कक्ष मे विलीन हो गये और अंदर से बंद कर लिया. कपूत वा उसकी पत्नी बडे अचम्भे मे. इतनी जल्दी कैसे आना हुआ? कुछ अनिष्ट तो नही हो गया? मगर अंदर जाकर पूछने की हिम्मत नही हुई.
तभी बाहर जोखू के चिल्लाने की आवाज आई, “ अरे भिरगू पंडित. सुना है आइ गयो? आप नही थे तो हम बडे हैरान हुए. जरा देखिये तो हमारे खेत मे गेन्हू बोया था. कपूत ने उसी खेत मे दूसरे गांव से झाबर (खेत मे खेला जाने वाला खेल) का मैच बद लिया. घंटो खेलकर पूरा बोया हुआ बीज नष्ट कर दिया. कुछ कहो तो अपनी वानर टोली के साथ दांत दिखाता है. अब इस गांव को तुम्हारा कपूत सहन नही होगा. इसे गांव से तडी पार कीजिये .............”.
जोखू और आगे कुछ बोलता मगर तभी भिरगू ने जोर से किवाड खोला. बाहर आके पहले जोखू फिर कपूत के आगे खडे हो गये. तभी एक बच्चा भागकर कैनी ले आया. कपूत सर झुकाये खडा, डांट वा मार खाने की प्रतीक्षा कर रहा था.
तभी भिरगू पंडित गरजे, “ जोखू, जितना तुम्हारे बीज का नुकसान हुआ है उसका दुगुना मेरे गोदाम से ले लो. मगर आज से गांव मे किसी ने भी इसे कपूत सम्बोधित किया तो यह कैनी उसके ऊपर ही बरसेगी. यही मेरा एकमात्र सपूत बेटा है. ज्ञानी भले ही ना हो, मगर शिक्षित है. उत्पाती भले ही हो, मगर बडो के लियी आदरभाव है. बडा ओहदा भले ही ना हो, मगर ह्रिदय बहुत बडा है. मैं समग्र जीवन इसे छोड कही नही जाऊंगा. अगर इसे तडी पार करना है, तो साथ मे मुझे भी करो “. कहते हुए पिता ने पुत्र को गले लगा लिया.
बजरंगी (भूतपूर्व कपूत) तो इस नये नाम वा सम्बोधन से आवाक हो किंकर्तव्यविमूढ खडा था. सारी जंदगी अनवरत पिटाई व कटु शब्दो का भागी, कभी नही रोया. मगर आज पिता के सुशब्दो को हजम ना कर सका, और नैनो से अष्रुधार बह निकली. उसे लगा वह आकाश से भी ऊंचा उठ गया है. पिताजी दिल्ली मे ऐसा क्या देख आये, जिसने मुझे इतने सम्मान का अधिकारी बना दिया? सपूत के रूप मे पुनर्जन्मित बजरंगी अष्रुपात करता हुआ पिता के चरणो मे धराशायी हो गया.