होश आया
तो अम्मा के आँचल का नहीं किनारा था
परिवार-बोझ में व्यस्त पिता को भी कहाँ निहारा था
मातृ-छाया विहीन, समाज की ज्वाला तले संघर्षरत
जीवन पथ पर दो मासूम बहनों का मिला सहारा था
एक हाथ में पुस्तक, दूजे से सुलगाती
गीली लकड़ियाँ
चूल्हा फूंकते राखरंजित नेत्र, रण-बाँकुरी दो लड़कियाँ
चाय नाश्ता सबको देकर, मध्यान्ह पकवान तैयार किया
विद्यालय से आकर रात्रिभोजन, क्या क्या बतलायें मियाँ
छोटे नगर के कन्या विद्यालय में न थी
लेबोरेट्री की थाती
वरना गणित विज्ञान पढ़ वो डाक्टर इंजीनियर बन जाती
परिवार-बोझ में व्यस्त पिता को भी कहाँ निहारा था
मातृ-छाया विहीन, समाज की ज्वाला तले संघर्षरत
जीवन पथ पर दो मासूम बहनों का मिला सहारा था
चूल्हा फूंकते राखरंजित नेत्र, रण-बाँकुरी दो लड़कियाँ
चाय नाश्ता सबको देकर, मध्यान्ह पकवान तैयार किया
विद्यालय से आकर रात्रिभोजन, क्या क्या बतलायें मियाँ
वरना गणित विज्ञान पढ़ वो डाक्टर इंजीनियर बन जाती
सामाजिक बंधनों की तीव्र ज्वाला में जलने वाली वो बाती
अग्निशिखरों पे आरूढ़ हो कुंदन सी और निखरती जाती
हम तीनों अक्सर लड़ते थे, बात बात पर
झगड़ते थे
दूसरे ही पल फिर भूल बिसर के, एक दूजे पे मरते थे
आज एक के पीछे दो माँ-बाप, चम्मच लिए फिरते हैं,
कह डीके कविराय, भला कैसे हम वो जीवन जीते थे
दूसरे ही पल फिर भूल बिसर के, एक दूजे पे मरते थे
आज एक के पीछे दो माँ-बाप, चम्मच लिए फिरते हैं,
कह डीके कविराय, भला कैसे हम वो जीवन जीते थे