रूखा चेहरा और सुर्ख नैन, अनुशासन की सख्ती
मेरे खेल उनको न भाते, बस
पढ़ने की सीख
बैटिंग की जब बारी आती, सुनता उनकी चीख
पढ़ना लिखना सीख के, ले लो अच्छी शिक्षा
वरना कितना भी माँगोगे, नहीं मिलेगी भिक्षा
लंबे बालों का शौक मुझे, हिप्पी कट में था फैशन
नाई से कटवा ही देते, जाने क्यों होती उनको टेंशन
सिनेमा नाटक या हो नौटंकी, भारी चिढ़ थी उनको
मेधावी आवारा हरेक विद्यार्थी, भाता था ये सबको
इंटरमीडियेट उत्तीर्ण होकर, पहुँच गये हम छात्रावास
मौज मस्ती का दौर चला, जिंदगी हुई मस्त बिंदास
पढ़ो लिखो या दिन भर खेलो, नहीं कोई कंट्रोल
पिक्चर देखो नगर में घूमो, बने रहो बकलोल
चिट्ठी से बारम्बार बुलाते, छुट्टी में घर आजा लल्लू
पढ़ने से फुरसत न मिलेगी, पिता को रहे बनाते उल्लू
शिक्षा मेरी सम्पूर्ण हुई,
नौकरी भी लग गई
पिता ने तय किया लगन, पत्नी भी आ गई
जिंदगी की गाड़ी भाग चली, पत्नी बच्चों में ऐसा उलझा
साल वर्ष भी न मिलता, नहीं शिकायत पिता था सुलझा
दस दिन के दौरे से लौटा, घर में लटका पाया ताला
पिता आपके नहीं रहे अब, ले लो फूल चढ़ाओ माला
हा कान्हा ये कैसी लीला, कैसा दिया दर्द ये रक्तिम
कैसा पुत्र अभागा था मैं, नहीं कर सका दर्शन अंतिम
कालचक्र का पहिया सरका, मेरा पूत भी हुआ सयाना
अपनी पसंद की पत्नी लाया, वर्षों जिसका रहा दीवाना
मेरा सुपुत्र करेगा सेवा, बड़ी हसरतों से पाला है
जीवन का पूर्ण निवेश, सब कुछ इसमें डाला है
रंग ढंग सब बदला दिखता, बदल गया परिवेश
एक दिन अपनी पत्नी लेकर, निकल गया परदेश
उड़ गया पंछी दूर गगन में, छोड़ पिता को अकेला
हफ्तों हफ्तों खबर न आए, सन्नाटों का सूना मेला
अपने पिता से किये कर्मों का, आज मिल रहा दंड
इसी योनि में वापस मिलता, व्याज सहित वो फंड
महीनों नहीं लिखता था पत्र, देता रहा पिता को दंश
आज उपेक्षित मुझे भी कर रहा, मेरा ही अपना अंश
पिता की कड़वी सीखों का, मुझको आज हुआ है भान
बुरा बने स्वयं पर मुझे उकेरा, कैसा था अद्भुत दान
कैसे करूँ पिता मैं तेरी सेवा, चले गये बन के अवधूत
नित्य लिखूँगा चिट्ठी तुमको, भेजा करो एक यमदूत
त्याग दिया हिप्पी का बाना, रख लिये छोटे बाल
आजा पिता बरसों हो गये, न गया सिनेमा हाल
पिता के कठोर सत्कर्मों का, आत्मबोध जब आता
प्रायश्चित हेतु कालचक्र तुम्हें, वापस नहीं ले जाता
पिता कैसे हो हो जाता है, इतना बोझिल दुश्वार
इसी मिट्टी में जन्मे हैं, कितने ही श्रवण कुमार
बैटिंग की जब बारी आती, सुनता उनकी चीख
वरना कितना भी माँगोगे, नहीं मिलेगी भिक्षा
नाई से कटवा ही देते, जाने क्यों होती उनको टेंशन
मेधावी आवारा हरेक विद्यार्थी, भाता था ये सबको
मौज मस्ती का दौर चला, जिंदगी हुई मस्त बिंदास
पिक्चर देखो नगर में घूमो, बने रहो बकलोल
पढ़ने से फुरसत न मिलेगी, पिता को रहे बनाते उल्लू
पिता ने तय किया लगन, पत्नी भी आ गई
साल वर्ष भी न मिलता, नहीं शिकायत पिता था सुलझा
पिता आपके नहीं रहे अब, ले लो फूल चढ़ाओ माला
कैसा पुत्र अभागा था मैं, नहीं कर सका दर्शन अंतिम
अपनी पसंद की पत्नी लाया, वर्षों जिसका रहा दीवाना
जीवन का पूर्ण निवेश, सब कुछ इसमें डाला है
रंग ढंग सब बदला दिखता, बदल गया परिवेश
एक दिन अपनी पत्नी लेकर, निकल गया परदेश
हफ्तों हफ्तों खबर न आए, सन्नाटों का सूना मेला
इसी योनि में वापस मिलता, व्याज सहित वो फंड
आज उपेक्षित मुझे भी कर रहा, मेरा ही अपना अंश
बुरा बने स्वयं पर मुझे उकेरा, कैसा था अद्भुत दान
नित्य लिखूँगा चिट्ठी तुमको, भेजा करो एक यमदूत
आजा पिता बरसों हो गये, न गया सिनेमा हाल
प्रायश्चित हेतु कालचक्र तुम्हें, वापस नहीं ले जाता
इसी मिट्टी में जन्मे हैं, कितने ही श्रवण कुमार