Sep 14, 2008

India Attacked

It’s yet again. Several round of explosives bursting straight into the ‘dil’ (Dilli - Delhi) of Mother India. It’s going to be a repeat of same old political ritual in its aftermath. After leaking few drops of crocodile tears, our leaders would start preparing ground, how to be the first in giving patronage to ……….no you are wrong……not to the victims, but to the perpetrators and derive political mileage in the upcoming elections. The attacker, if caught, is going to be yet another chief guest in Tihar jail, joining his predecessor Afjal Guru, the death sentenced criminal who attacked parliament. He is not going to receive even 10-15 lashes, the lowest severity level of punishment awarded to a person for consuming alcohol in Saudi Arabia. Which other country can offer such a fertile land for these barbarians to showcase their heinous doctrine of annihilation?

But this had been our old Indian ethos dating back to thousand of years. Jaichand invites Ghori to defeat Chauhan. Rana Sanga calls in Babar to destroy his local neighbours hoping that Babar would go back after looting Indian wealth, like Ghori/ Ghazani/ Changej Khan/ Taimur/ Nadirshah/ Mangols/ Hoons, leaving the soil for him to rule. Devnagari Aryavart was blessed with natural shield, ocean covering half of the circle in south and Great Himalayas guarding the northern frontiers. Just one small patch got left by mistake, the notorious Khyber Pass, at the boundary of Pakistan-Afghanistan. All the foreign invaders took this narrow pass to reach India. And our old Indian Kings could not deploy a small contingent of unified army to plug this small Khyber hole. The result, this dil of India ‘Delhi’ started getting ‘used to’ be ravaged repeatedly. Who can forget Nadirshah’s farman of massacring innocent men/ women/ children for 3 continuous days in the whole of Delhi.

India was ruled by these foreign Mughals for almost a thousand year. Its development in the fields of science & technology was stalled all through. They were only busy making forts, increasing the strength of harems or building Tajmahal in lust of a departed lover. Otherwise who can forget Bhaskaracharya, Shridharacharya, Aryabhatt, Charak, Shushruta, Jantar-Mantar maze of Jaipur & Delhi and Vedic mathematics? Who can deny the existence of a fully developed medical science in the form of Ayurveda with no side effect? Indian physicians excelled in pharmacopoeia, caesarean section, bone setting, and skin grafting. Not even 10% of Ayurveda is retrievable now but still able to create magic in some diseases. We lost 99% of our valuable documents in the destruction of Nalanda University, temples, palaces etc. Majority of our knowledge was not even documented. They used to memorize everything including Vedas and simply pass on to next generation.

But none of us, be it leaders or media or textbooks or Bollywood movies have the guts to denounce Mughals. For them only British were the main villains. We only talk of them ruining us & taking away all our wealth, all that we have been taught since nursery level. But have we ever tried to think otherwise? Only British could give us a unified India which was otherwise having thousands of princely states. Only they could liberate us from Mughals. They did not destroy our heritage; temple, palace, fort, religious document. How much money, manpower and resources India would need if asked to build a railway network that we inherited? Indian postal network right up to your door step at so low price is unparalleled in the world. They gave us the modern education system which equips the society to grow; otherwise we all would have been practicing Madarsa education, still followed in many parts of the world. They did not give us electrical power network and so we are still struggling to receive non-stop supply after 60 years of independence.

Now same old barbarians are trying to resurface and recapture us. And this time not just one or two Jaichand & Vibhisan but entire gang of Congress, Mulayam, Mayawati, Laloo, CPM are ready to embrace them with open arms. We have almost lost Kashmir by succumbing to selective ethnic cleansing. Time is not far when we’ll have no place for us to run away. Else accept slavery again and then wait for another British.

What is the solution? Democracy has flopped। Should the army take over? But that system also did not help our neighbours. Pakistan and B’desh are even worse. Why democracy is successful in USA, Canada, UK, France, Germany etc but not in India, Pak, B’desh, Shrilanka, Nepal? Even monopolistic communism is fine in China.

Jul 11, 2008

मानवता

छोटे से गाँव के ब्राम्‍हड़ कुल में जन्मा एक बालक ‘बाल मोहन शुक्ला’ शहर के राजकीय इंटर कालेज प्रतापगढ़ में शिक्षार्थी बन कर आया. बड़ा ही होनहार एवं कुशाग्र बुद्धि का स्वामी था. हमेशा कक्षा में प्रथम आता था. यहा उसकी मित्रता एक सहपाठी रवि कपूर से हुई. रवि भी पढ़ने में अच्छा था, मगर बाल मोहन से आगे नही निकल पाया. दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ता था. दोनो में मित्रता के बावजूद वैचारिक मतभेद बहुत ज़्यादा थे. दोनो ही बड़े होकर इंसानियत की सेवा में अर्पित होना चाहते थे, डाक्टर बन कर. मगर अलग अलग तरह के.

बाल मोहन, “मैं बड़ा होकर आयुर्वेद का चिकित्सक बनूंगा। तुम्हे पता है हमारा आर्यावर्त पाँच हज़ार वर्ष पहले भी चिकित्सा के क्षेत्र में उन्नत था. शल्य चिकित्सा (सर्जरी) हमारे यहाँ उसी समय होती थी, जब बाकी विश्व के लोग पाषाण युग में नग्न विचरण करते थे. हमारा वेद दवाओं तथा जड़ी बूटी के फार्मूलों से भरा पड़ा है. आयुर्वेद का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता. प्राचीन दुर्लभ पांडुलिपियों को मुगलों व अँग्रेज़ों ने नष्ट करके हमारी चिकित्सा शास्त्र को मरणासन्न कर दिया है. मैं शोध करके उसे पुनर्जीवित करूँगा. जिससे ग़रीबों का मुफ़्त में इलाज हो. एलोपैथी के डाक्टर तो लुटेरे है. ग़रीब वहाँ जा ही नहीं सकता. नई दवाओं की खोज करेंगे तो उसे पेटेंट कर लेंगे. कोई और ना बना सके. मनमाने दाम पर महँगा बेच कर लोगों का खून चूसेंगे. भला ये भी कोई इंसानियत है. चिकित्सा जैसे पवित्र क्षेत्र का व्यावसायीकरण कर दिया है. लोगों की किडनी चोरी करके पैसा कमा रहे हैं. नरभक्षी कहीं के.”

रवि कपूर कहता है जवाब में, “हमारी इन्ही दकियानूसी विचारधारा के कारण इंडिया इतना पिछड़ा हुआ है. अँग्रेज़ों को देखो. हर चीज़ को डेवेलप करके कितना आगे बढ़ गये हैं. दवाओं को महँगा बेचेंगे तभी तो रिसर्च पर पैसा खर्च करके दूसरी अन्य दवाएँ व फार्मूले इनवेंट करेंगे. आयुर्वेद में कुछ नहीं रखा है. नीम हकीम ख़तरे जान. ये सब ओझाओं व झाड़ फूँक करने वालों का फील्ड है, जो सिर्फ़ अनपढ़ व गँवारों को बेवकूफ़ बनाने के लिए है. जड़ी बूटी व पत्ता चबाकर क्या किसी का इलाज हो सकता है? अगर ऐसा है तो गाय, भैंस व बकरी कभी बीमार ना हों. केमिस्ट्री के पढ़ाए फार्मूले क्या बकवास हैं? डाक्टर इलाज का महँगा पैसा लेता है तो क्या ग़लत है? वो ज़बरदस्ती तो किसीको बुला नहीं रहा है, मेरे पास ही आओ. ये तो सेल्फ़ मार्केटिंग स्ट्रॅटजी है. ज़्यादा पैसा लेगा तो उतनी उँची उसकी मार्केट वैल्यू होगी. इंसान की सेवा तो वो कर ही रहा है. फिर अपना मेहनताना क्यों छोड़े”.

इसी तरह दोनो उलझे रहते व घंटों वाद-विवाद करते। समय पंख लगा कर उड़ता गया. इंटर्मीडियेट का परीक्षाफल घोषित हुआ. बाल मोहन पूरे उ प्र के मेरिट लिस्ट में पाँचवाँ स्थान ले आया. रवि भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया. बाल मोहन ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आयुर्वेदिक विभाग में उसी वर्ष प्रवेश लिया. रवि ने दो वर्ष तैयारी की और अंततः किंग जार्ज मेडिकल कालेज लखनऊ में एम बी बी एस का कोर्स पा गया.

बाल मोहन आयुर्वेदाचार्य बन कर गाँव लौटा, ग़रीबों की मुफ़्त चिकित्सा व मानवता का भाव लेकर. गाँव में लोग उसे बब्बन बुलाते थे. उसके पिता ने उसके विवाह का रिश्ता पहले ही पक्का कर रखा था. सुनते ही बब्बन बिदक गया. मुझे अभी आयुर्वेद में शोध करना है. लोगों की सेवा करनी है. अभी विवाह का वक्त नहीं आया है. सुनते ही पिता उबल पड़े. लड़का हाथ से गया, अंग्रेज बन गया है. खानदान में क्या और किसीने अपनी मर्ज़ी से शादी की है. क्या शादी के बाद पढ़ाई करना मना है. इत्यादि.

दबाव तथा संकोचवश बब्बन ने हाँ कर दी। दो बेटियाँ भी पैदा हो गयीं. बब्बन गृहस्थी व खेत खलिहान में उलझ गया. कभी कभार गाँव का कोई जॅन उससे बुखार खाँसी की दवा ले जाता था. जो मर्ज़ी आए दे दिया. पैसे या गेहूँ. या वो भी नहीं. बेचारा बड़ी ग़रीबी में रहने लगा. उधर रवि ने एम बी बी एस करने के बाद अपनी ही बैच की एक धनी लड़की से शादी कर ली. शादी के बाद धनी ससुर डाक्टर ने दोनो को उच्च शिक्षा हेतु अमरीका भेज दिया. कुछ वर्षों बाद दोनो ही स्पेशलिस्ट डाक्टर बन कर वापस भारत आए. ससुर का जमा जमाया क्लिनिक था. दोनो उसी में लग गये. धीरे धीरे दोनो की प्रैक्टिस जम गयी. पैसा बरसने लगा और चारो तरफ बड़ा नाम हो गया. कई वर्ष बीत गये. डाक्टर रवि की शोहरत बब्बन के कानो तक भी पहुँची. उसने पत्नी को गर्व से बताया, देखो ये मेरा सहपाठी था

पत्नी ने ताना मारा,”बेटियाँ जवान हो गयीं है. तुम्हें कुछ ख्याल भी है. आयुर्वेद के डाक्टर बनकर उनके लिए दो रोटी भी नहीं ला पा रहे हो. एम बी बी एस पढ़े होते तो हम भी फाका ना कर रहे होते. जाओ अपने दोस्त के पास. करोड़पति है. क्या दो चार लाख ना दे देगा”.

बब्बन का जमीर अभी मरा नहीं था। हाथ फैलाना उसके जीवन मूल्यों के विपरीत था. मगर इंसान औलाद के लिए स्वयं को भी बेच सकता है. सो ना चाहते हुए भी शहर की ओर चल पड़ा. सोचा पुराना दोस्त है. मिलकर खुशी होगी. नामी डाक्टर के घर रिक्शेवाले ने बिना किसी कठिनाई के पहुँचा दिया. आलीशान भवन सामने विशाल प्रांगण. अंदर हाल में सैकड़ों मरीज, अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहे थे. बब्बन स्वयं को बड़ा संकुचित व हीन महसूस कर रहा था. इस माहौल मे उसकी किसी से पूछने की हिम्मत नही हो रही थी.

किसी तरह हिम्मत जुटाकर नंबर लगाने वाले व्यक्ति के कान में जाकर धीरे से बोलने लगा,”भाई साहब मुझे डाक्टर रवि से मिलना है. हम दोनो एक साथ पढ़ते थे”.

वह व्यक्ति गुर्राया,”जल्दी डाक्टर को दिखाने का यह बड़ा पुराना नुस्ख़ा है. अगर जल्दी दिखाना चाहते हो तो एक हज़ार रुपये की अर्जेंट पर्ची कटवाओ. वरना चार सौ की पर्ची कटवा कर लाइन में चार घंटे बैठो”.

बब्बन के पास तो चार सौ भी नहीं थे. वो हज़ार कहाँ से देता. बड़ी ग्लानि, अपमानित व पश्चाताप की अवस्था में वहीं एक खाली बेंच पर बैठ गया. सोचने लगा, मैने भी क्यों नहीं एलोपथि पढ़ी ? रवि से ज़्यादा होनहार था पढ़ने में. ना मैं मानवता की सेवा ही कर पाया ना पैसे कमा पाया. सोचते सोचते ना जाने कब शाम हो गयी. क्लिनिक बंद करने का वक्त हो गया.

सारे मरीज जा चुके थे. तभी डाक्टर रवि बाहर निकले. हाल में एकमात्र व्यक्ति को देखा तो सोचा यह मरीज छूट गया है. व्यवहारिक थे, इसलिए इतना नाम कमाया. पास आकर बोले,” जनाब आपका कौन सा नंबर है? दिखा चुके या दिखाना है?”

बब्बन शूटेड बूटेड व्यक्ति को देख सकपकाकर उठ खड़ा हुआ। हड़बडाकर बोला,”माफ़ कीजिएगा साहब. बस ज़रा आँख लग गयी थी. मैं मरीज नहीं हूं. डाक्टर रवि मेरे बचपन के सहपाठी थे. मुहब्बत वश मिलने चला आया. मगर मुझे नहीं पता था, अपने मित्र से मिलने के लिए एक हज़ार रुपये देने होंगे. इसलिए वापस जा रहा हूं”.

रवि के माथे पर बल पड़ गये. पहचानने की असफल कोशिश के बाद बोले,”भैया अपना नाम तो बताना ज़रा”.

बब्बन,”क्या करेंगे आप जानकार. अब तो मैं स्वयं अपना पुराना नाम भूल गया हूं. खैर मेरा पुराना नाम ’बाल मोहन शुक्ला’ है”.

रवि को जैसे हज़ार वॉल्ट का झटका लगा. बॉल मोहन को भला वो कैसे भूल सकता था. कितनी बार अपनी पत्नी से उसका जिक्र किया था. उ प बोर्ड का टॅपर उसका सहपाठी था. दौड़कर उसे गले लगाया. बड़े ही उत्साहित हो बोलने लगा,”यार बालू तू नहीं सुधरेगा. अपनी पुरानी आदतों से. भला तुझे और मुझे मिलने से कौन रोक सकता है”.

बड़े प्यार से उसका हाथ थामा। अपनी लेक्सॅरी कार में बिठाया व कोठी में लेकर आए. खूब आव भगत की, खिलाया पिलाया. पत्नी से मिलवाया. रात बड़ी देर तक दोनो बातें करते रहे. रात भर बब्बन वहीं रुका. मगर रवि से पैसे माँगने के लिए ज़बान ने साथ नहीं दिया. सुबह रवि ने उसके गाँव का पता ठिकाना अपनी डायरी में नोट किया. फिर अपनी कार से बस स्टॅंड तक पहुँचाया.

समय पंख लगा कर उड़ता गया. रवि के ससुर अपनी पहुँच से मेडिकल बोर्ड के चेयरमैन बन गये. रवि का भी बड़ा नाम हो गया. पैसा व शोहरत दोनो. उसके ससुर ने उसका नाम मानवता की सेवा के लिए दिए जाने वाले ’गाँधी पुरस्कार’ के लिए पास करवा लिया. अख़बारों में फोटो छपी. रवि ने पुरस्कार वितरण समारोह में शामिल होने के लिए एक निमंत्रण बाल मोहन को भी भेजा.

बब्बन खूब सफेद धोती कुर्ता पहन समारोह में शामिल होने दिल्ली पहुँचा. कार्ड दिखाकर अंदर भी चला गया. रवि बड़ी आत्मीयता से मिला. पुरस्कार वितरण के बाद लोग खाने के लिए बाहर लान में इकठ्ठा हुए. बब्बन भी एक दरख्त के पास जाकर खड़ा हो गया.

तभी केटरिंग मैनेजर आकर डाँटने लगा,” ओये भैये, तू यहाँ खड़ा होकर कामचोरी कर रहा है. वहाँ खाना क्या तेरा बाप सर्व करेगा. चल भाग कर प्लेटें लगा”.

बब्बन को काटो तो खून नहीं। चुपचाप वहाँ से खिसक लिया, बिना किसीसे से मिले, बिना खाए. बड़ा ही व्यथित व आत्मग्लानि से छुब्ध. सोचते चला जा रहा था,”मेरे जीवन का उद्येश्य था, निःस्वार्थ मानवता की सेवा करना. मगर पुरस्कार कौन ले रहा है. उसके पास मानवता का पुरस्कार भी है, पैसा भी है और शोहरत भी. मुझे माया मिली ना राम.”

समारोह से लौटने के बाद बब्बन ने अपना खेत बेचकर बेटियों की शादी कर दी. ग़रीबी व तंगी और बढ़ गयी. पत्नी कुपोषण से बीमार हुई और कुछ दिन में चल बसी. बब्बन के लिए जीवन में अब क्या था. सो घर भी बेचकर-बाचकर काशी विश्व विद्यालय के पास एक आश्रम में रहने लगा. आयुर्वेद विभाग में मुफ़्त काम करने लगा. थोड़ा बहुत कोई मरीज दे देता तो उसी में दाल रोटी वरना फंका. पुस्तकालय में बैठ घंटो गुज़ार देता, वेद ग्रंथ की ऋचाओं में फार्मूले ढूंढता.

इधर रवि ने जंदगी का भरपूर आनंद लिया. अच्छे बुरे हर तरह के लुत्फ़ उठाये। मगर अचानक उनका स्वास्थ गिरने लगा. टेस्ट कराया तो एच आई वी पॉज़िटिव निकला. बड़ी दवा की. अमरीका तक के कई चक्कर लगाए. मगर एड्स की कोई दवा ना मिली. धीरे धीरे वो बिस्तर पर पड़ गये.

खबर बब्बन तक भी पहुँची। बब्बन अपने शोध के काफ़ी करीब पहुँच चुका था. मगर रिग वेद के तिर्यक सूत्र का संस्कृत में लिखा अनुवाद नहीं कर पा रहा था. पुरी के शंकराचार्य से अपायंटमेंट लेकर मिलने गया. अंततः दोनो ने मिलकर उसका अर्थ ढूँढ लिया. वापस काशी आकर बब्बन ने सारे आँकड़े इकट्ठे किए. सारी जड़ी बूटियाँ संकलित करने में महीनो लग गये. कुछ हिमालय से कुछ आसाम से लानी पड़ीं. अंततः उसने अपनी एड्स की दवा विकसित कर ली. मगर दवा का प्रचार करने के लिए उसके पास पूंजी नहीं थी. वो कोई बड़ा डाक्टर तो था नहीं. बड़ा मायूस हो गया. कैसे मानवता की सेवा करे.

आख़िरकार वो दवा लेकर रवि के पास पहुँचा. बोला,” मित्र तुम बीमार हो फिर भी मदिरापान करते हो. ये एक शीशी है जो तुम्हारे लिए लाया हूं. इसे मदिरा में मिला कर डाल लिया करना. मदिरा की कड़वाहट कम हो जाएगी. समझ लो तुम्हारे मित्र की आखरी ख्वाहिश यही है. क्योंकि अब मैं सन्यास ग्रहण करने जा रहा हूं.”

रवि ने बब्बन की बात मान ली. मरना था ही इसलिए मदिरापान का भी आनंद लेते रहे. मगर दो चार बूँद बब्बन का आसव भी मिला लेते थे. एक महीने बाद रवि की तबीयत संभलने लगी. शरीर में शक्ति का संचार होने लगा. उठकर चलने फिरने लगे. एच आई वी टेस्ट करवाया. टेस्ट का रेजल्ट देखकर सन्न रह गये. यकीन नहीं हुआ. टेस्ट नेगेटिव था. मेडिकल हिस्ट्री का चमत्कार।

वो समझ गये, ये बब्बन की शीशी का कमाल है. बोले,” हाँ बाल मोहन, तुम जीत गये. तुम्ही सच्चे मानवता वादी हो. एक बार मिल जाओ. दवा का फार्मूला बताओ. मैं इस दवा को तुम्हारे नाम पेटेंट करवा के तुम्हारा नाम दुनिया में सदा के लिए रोशन कर दूँगा”.

बड़ी खोज खबर ली. मगर बब्बन का कहीं कोई पता ना चला. वो तो मानव और मानवता से दूर जा चुका था. इस तरह एड्स की आयुर्वेदिक दवा, विकसित होने के साथ ही, पुनः विलुप्त हो गयी”।

Jul 6, 2008

पहली विदेश यात्रा

याद है बचपन का वो दिन, जब पंडित शास्त्री को हाथ दिखलाया था।
विदेश यात्रा की बड़ी प्रबल लकीर है, उन्होने तुरंत देख बतलाया था।
कॅंप्यूटर होरोस्कोप ने लेकिन, विदेशी योग ना होने का आँकड़ा समझाया था।
ऊहापोह में रहा बरसों मैं, जब तक भाग्य ने 'टी सी आई एल' में नहीं पहुचाया था।

मगर टी सी आई एल में आकर भी, आई सी डी में फँस गया बरसों।
फिर क़ुवैत में सेलेक्ट हुआ तो, जैसे उगा हाथ पर सरसों।
फाइल आई हेड के पास, तो उनका पारा चढ़ गया कोसों।
बिना पूछे अप्लाई क्यों किया, अब विदेश जाने को तरसो।

कुछ अरसे बाद फिर, किस्मत ने पलटी खाई।
पता नहीं कहाँ से, एक विदेशी वेकेन्सी आई।
हेड ने खुद कहा, तुम्हें आज ही जाना है भाई।
पड़ोसी रिश्तेदार घर पे, खाने आ गये मिठाई।

भारी भीड़ मेरे घर पे, पूरा मेला लग गया।
एयरपोर्ट के लिए मिनी बस, फूलमाला से ढक गया।
मैं पी आर ओ के पास खड़े खड़े, सात बजे तक पॅक गया।
एयर टिकट लाने वाला, ट्रफ़िक में कहीं अटक गया।

रिश्तेदारों ने मेरा समान पॅक कर, सीधे एयरपोर्ट पहुँचाया।
आफ़िस से भाग गिरते पड़ते, मुझे भी गन्तव्य नज़र आया।
दोस्त लोगो से निपट जल्दी जल्दी, खुद को सीधे अंदर लाया।
चेक इन काऊँटर पे पहले से ही, पी आर ओ को खड़े पाया।

पासपोर्ट और टिकट दीजिए, पी आर ओ जी ने फरमाया है।
मन का सारा मैल धुल गया, बिचारा मेरी सहायता को आया है।
मगर ये क्या, उसे तो एयरपोर्ट से बाहर का रास्ता भाया है।
बोला घर जाओ, पोस्ट कैंसिल हो गयी, संदेशा मैने पाया है।

कुछ महीनो बाद.....

साऊदी की बंपर वेकेन्सी, मना कर दिया, मन था बेहद खिन्न।
टी सी आई एल की विदेश यात्रा, मुझे लगे है, एक डरावना जिन्न।
विश्व का रिचेस्ट अएल्फील्ड है, कहा सबने, साऊदी औरों से भिन्न।
ग़रीबदास बने रहोगे, यहाँ रहकर, व्यर्थ होंगे जीवन के दिन।

सऊदी एयर में बैठ गया, सुंदर सपना साकार किया।
एयर होस्टेस की हसरत में, काल्बेल पर प्रहार किया।
खुर्राट मोटे दढ़ियल ने आकर, लाल नेत्रों से, मानो मेरा संहार किया।
अरबी में गुर्राते उस दानव को, हाथ जोड़ वहाँ से प्रस्थान किया।

सबको पैकेट बाँटते हुए, सामने आ गया खाने ठेला।
कितने का है पूछा मैने, कम्पनी ने दिया नहीं एक भी धेला।
सब कुछ फ्री है कहा उसने, तो मेरा हृदय हुआ अलबेला।
ग़रीब फक्कड़ भारत से बाहर, सब फ्री, फिर क्या है झमेला।
पूरा परिवार साथ लाना था, क्यों मैं आ गया अकेला।

वहां खाने का मंजर देख, हम बहुत चकरा गए।
कई पढे लिखे मूरख आइसक्रीम को, कुल्हड़ सहित चबा गए।
हम भी टिशू पेपर को रोटी समझ, सब्जी लगाकर खा गए।
बचे हुए प्लास्टिक के चम्मच चाकू, जेब में सरका गए।

निकला चिप्स और पेप्सी लेकर, साथ में था और कोई ना।
पुलिस कार रोक कर पूछा, कहाँ है मार्केट अल -सबीना।
दरवाजा खोल गाड़ी में बिठा लिया, वह रे शराफ़त का नगीना।
पर हवालात में लाकर लगा पीटने, तो छूटा मेरा पसीना।
खुले आम खाने-पीने का चार्ज लगा, वो था रमजान का महीना।

चिडियाघर की सैर को निकले, जानवरों का समंदर।
भारतीय शेर दिखा मरियल सा, जैसे कोई छछूंदर ।
उसे खाने में मिलता था केवल, केला और चुकन्दर।
बेचारे रायल बंगाल के सऊदी वीसा में, लिखा हुआ था बन्दर।

बड़े अरबी की बड़ी गाड़ियाँ, चार बिबीयों के नखरे।
अँग्रेज़ी की टाँग तोड़ते, लगाएँ परफ्यूम और स्प्रे।
आई वाज़ बार्किंग आउट साइड, नाउ गोइंग टू ब्रे। (अरबी लोग प को ब बोलते हैं)
शिट इन द कंट्रोल रूम, डू नॉट यूज़ ऐश ट्रे। (कंट्रोल रूम में बैठो, स्मोक करना मना है )

घर फोन करने पी सी ओ पहुँचा, दिमाग था बेकरार।
श्रीमतीजी ने खोल दिया, समस्याओं का अम्बार।
बिजली का बिल आ गया, इस बार दस हजार।
ऐ टी एम् कार्ड खराब हो गया, कैसे चलाऊं घर बार।
' डी डी ऐ ' वाले तोड़ गए बालकनी, पिछले ही सोमवार।
लोन का चेक बाऊंस हो गया, बैंक उठा ले गया कार।
गाँव में पट्टी दारों ने कब्जा कर लिया, सारा खेत बार।
मेरी कमर की डिस्क स्लिप हो गई, चलना है दुश्वार।
जो बच्ची बाजार में खिलौने हेतु , रोती चिल्लाती थी बेजार।
बनाती है पापा की तस्वीरें हमेशा, बाजार जाने को नहीं तैयार।
तुम परदेस जाकर बैठ गये हो, अब रहा नहीं वो प्यार।

विदेशी धन की लालसा में, काट दिए दिन, रातों को जाग जाग।
भतीजी की शादी में कर नहीं पाया कन्यादान, रहेगा जीवन भर यह दाग।
बेटा हास्टल में जाकर बिगड़ गया, पत्नी कर नहीं पायी दौड़ भाग।
जवान बेटी खोजती बाप का साया, फुफ्कारतें हैं समाज के काले नाग।
बैरागन बावली पत्नी भूल गयी, क्या दीवाली क्या है होली का फाग।
कहाँ चला गया मेरे बुढ़ापे की लाठी, वृद्ध लाचार पिता अलापता है राग।
माँ की अरथी उठ गयी बिना मेरे कंधे के, नहीं दे पाया चिता को आग।

टी सी आई एल का ये जो भवन, आपको दिख रहा है धांसू।
मिला है इसके ईंट गारे में, हम जैसे कर्मियों के खून का आंसू.

Jun 21, 2008

नरम गरम

सृष्टि के रचयिता परमपिता ब्रम्हा जी ने योजनाबद्ध तरीके से दो जुड़वाँ भाइयों की संरचना की। एक का नाम रखा नरम तथा दूसरे का गरम। दोनों रंग रूप कद काठी में एक सामान परन्तु मानसिकता में पूर्णतया विपरीत। 'नरम' अत्यन्त शांत, सहिष्णु, अहिंसावादी, कृपालु, दानी, क्षमा करने वाला एवं सह अस्तित्व वादी था। इसके विपरीत 'गरम' क्रोधी, हिंसक, घमंडी तथा क्रूर था। इन दोनों को अपना कैरियर बनने हेतु ऋषि मुनियों की पतित पावन भूमि भारतवर्ष में अवतरित किया गया।

नरम ने आकर लोगों को शान्ति अहिंसा व सहिष्णुता का पाठ पढ़ना शुरू किया हिंदू धर्मं के रूप में। ये भारत के बाहर कहीं आक्रमण करने नहीं गए। इसके विपरीत गरम ने आकर हिंसा का भयंकर तांडव शुरू किया। लोगो को डरा धमका कर जबरन धर्मांतरण करवाया। उनके लिए धर्म का स्थान देश, मानवता, समाज हर चीज से ऊँचा है। आज उस धर्म को मानने वाले विश्व में सबसे ज्यादा लोग हैं। जबकि नरम के हिन्दुओं में बचे खुचे लोग भी अनेक सम्प्रदायों जैसे सिख, जैन, बौद्ध इत्यादि में बंटते चले गए। बाकी लोग भी हिन्दुओं के नाम पर नहीं जाने जाते। उनकी पहचान होती है अगडी जाति, पिछाडी जाति, अन्य पिछाडी जाति, अनुसूचित जाति, जनजाति वगैरह। गरम का कैरियर ऊपर चढा....

गरम विजयी घोषित हुआ, मिला उसे प्रमोशन।
नरम मुस्कराते वहीं खड़ा है, नहीं कोई प्रलोभन।

मगर गरम इतने से रुकने वाला नहीं था। वह बड़ा ही महत्वाकांक्षी था। उसने अँग्रेज़ों के रूप में फ़िर भारत में आगमन किया। सरे देश पर संप्रभुता स्थापित कर जबरदस्ती अंग्रेजी भाषा को एकमात्र सरकारी भाषा बनाकर सबके ऊपर थोप दिया गया। सबने डर कर इसे अंगीकार कर लिया और कालांतर में यह पढ़े लिखों की भाषा मानी जाने लगी। अगर कोई अंग्रेज़ी बोल रहा है, तो किसी पढ़ाई के सेर्टिफीकेट की जरुरत नहीं है। इसके विपरीत नरम सन १९४७ से आजतक हाथ जोड़े नतमस्तक हो सबसे विनती किए जा रहा है। हिन्दी हमारे देश की अपनी भाषा है। आप सभी इसे अपनाए। इसका प्रयोग करें। मगर हर जगह उसे दुत्कार व गालियाँ मिल रही हैं। यहाँ तक की गृहराज्य उत्तर प्रदेश में भी अब सी बी एस ई बोर्ड से चालित अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय हर गाँव नगर में पसरते जा रहे हैं। हिन्दी विद्यालय केवल गरीब व अंगूठा छाप लोगों के लिए ही हैं। गरम फ़िर विजयी घोषित हुआ......

नरम महात्मा गाँधी के रूप में सामने आया। कई साल भाई चारे व अहिंसा का पाठ पढाता रहा। सारे भारत में नरम की जयकार होने लगी। स्वतंत्रता भी मिल गई। अब गरम उजागर हुआ। तांडव व हिंसा शुरू कर दी भारत के बंटवारे के लिए। गाँधी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। खाना पीना छोड़ दिया। अनशन पर बैठ गए। मगर विजयश्री अंततः गरम को ही मिली. भारत बँट गया. दोनो तरफ पूर्व तथा पश्चिम में काट कर छोटा कर दिया गया. गरम फ़िर विजयी घोषित हुआ......

गरम ने अपनी ताकत के जोर पे रातोरात मद्रास को चेन्नई, कैल्काटा को कोलकाता तथा बॉम्बे को मुंबई बना दिया। जबकि नरम के तीर्थराज प्रयाग - इलाहबाद के बोझ तले, तथा अयोध्या नगरी - फैजाबाद के नीचे दबे कराह रहे हैं। लक्ष्मन का बसाया लखनपुर, लखनवी नवाबों के हरम में कैद होकर रह गया। पांडवों का बसाया इन्द्रप्रस्थ, मुग़ल बादशाहों के दिली जज्बे के आगे दम तोड़ चुका है। गरम फ़िर विजयी घोषित हुआ......

नरम ने हिम्मत समेटकर बम्बई का रुख किया। गरीब नम्र यू पी के भैया को साथ लिया। सबने मिलकर हाथ मिलाया। आलीशान अट्टालिकाओं वा उँचे भवन निर्मित किए। सब्जी बेचना, टॅक्सी चलना, ठेला खीचना, बिना शर्म वा झिझक के करते रहे। टेक्सटाइल वा अन्य मिलें चलाई मजदूर बनकर। विश्व में सबसे ज़्यादा फिल्में बनाने वाले हिन्दी सिनेमा उद्योग को बंबई में स्थापित किया, एक अहिंदी भाषी क्षेत्र में। इन सबकी मेहनत रंग लाई और बंबई भारत की वित्तीय राजधानी कहलाने लगी। सबका आपस में बड़ा मेल जोल था. नरम ने सोचा आख़िर मैं सफल हो ही गया। उसी क्षण गरम शान से उठा और राज ठाकरे के शरीर में प्रविष्ट कर गया। चारों तरफ हिन्दी भाषियों की पिटाई होनी शुरू हो गयी। कई दशकों की मेहनत से निर्मित किया गया मानसिक रिश्ता गरम ने क्षण भर में नेस्तनाबूद कर दिया. गरम फ़िर विजयी घोषित हुआ ....

उपर्युक्त सारी बातों का उपसंहार यही है की "समरथ के नहि दोष गोसाईं, सारी दुनिया उन्ही की लुगाई". ताकतवर और समर्थ व्यक्ति जो भी करवाए लोग उसे करने को सहर्ष तत्पर रहते हैं. अँग्रेज़ी के पीछे लोग भाग रहे हैं, क्योंकि यह शक्तिशाली देशों में बोली जाती है. जबकि हिन्दी बोलने वाले उ प्र, बिहार इत्यादि के ग़रीब लोग हैं. पंजाबी लोग थोड़े पैसे से ताकतवर हैं, इसलिए दिल्ली में पंजाबी बोलना शान तथा बिहारी (भोजपुरी) एक गाली के समान बन गयी है. हालाँकि पंजाबी भी वही काम करता है अमेरिका या कनाडा में, जो बिहारी दिल्ली अथवा बंबई में करता है. फ़र्क केवल डालर और रुपये का है.

"नरम हमेशा पीछे रहेगा जबकि ताकतवर गरम हमेशा आगे, चाहे वो कैसा भी काम करे ग़लत या सही".

Jun 11, 2008

घर - अंतरराष्ट्रीय प्रथम पुरष्कार प्राप्त कहानी

"नन्हें, आज क्या शौचालय से बाहर नहीं निकलना है। वहीं बिस्तर लगा दें। नालायक लड़का। दीर्घसूत्री विनश्यति।"

वकील साहब के घर में सुबह सात बजे ये रोज का नजारा था। पुराने खानदानी जमींदार थे। भरा पूरा परिवार था। भगवान् की दया से चार पुत्र व चार पुत्रियों के मालिक थे। मगर बदलते सामाजिक व राजनितिक घटनाक्रम की वजह से, अब वो जमींदारी शानो शौकत तो कब की छू मंतर हो गई थी। काफी जमीन तो सीलिंग कानून लील गया, और बाकी खानदानी आबादी बढ़ने की वजह से पट्टी-दारों में आपस में बंट गई। परिवार बड़ा होने की वजह से खर्चा ज्यादा हो चला, मगर आमदनी वही अठन्नी। पत्नी को गाँव में रख दिया, खेत खलिहान देखने के लिए और स्वयं शहर में वकालत करने लगे। बच्चों को भी साथ रखकर शहर के विद्यालयों में पढाते थे। अपने हिसाब से उन्होंने अच्छी प्लानिंग की और बदलते परिवेश में ढालने की भरपूर कोशिश की। पति-पत्नी दोनों से आमदनी होगी तो बड़े परिवार का बोझ हल्का हो जाएगा।



"कर्मठ व्यक्ति अपना भाग्य स्वयं लिखता है।" उनके इस कथन को चरितार्थ करते हुए भाग्य की देवी ने उनका साथ दिया और ज्येष्ठ पुत्र जाने माने सस्थान आई आई टी में आ गया। अब तो पति पत्नी मुतमईन हो गए की चारों बेटे इंजीनियर बन जायेंगे और जीवन की डगर में कोई कांटा नहीं बचेगा। पत्नी जो काफी कुछ समय बच्चों के साथ भी बिता लिया करती थी, अब पूरी तरह गाँव चली गयी। शहर आना एकदम छोड़ दिया।

मगर विधाता को कुछ और मंजूर था। मात्र यही क्षण उनके जीवन का स्वर्णिम काल था, जिसके बाद भाग्य रेखा अधोगामी हो चली। माँ के नहीं होने से, और पिता के दिन भर बाहर कचहरी में व्यस्त होने की वजह से बच्चे पूर्णतया स्वच्छँद हो गए। जिसकी मर्जी विद्यालय जा रहा है, या सिनेमाहाल, कोई नियंत्रण नहीं। और शैशव काल एक तरल पदार्थ के समान होता है। जिस बर्तन में डालो उसी में ढल जाता है। जिधर ढलान यानी आसान डगर मिलेगी, उधर ही चल पड़ेगा। और बच्चों को आसान डगर लगी उपन्यास पढ़ना, कंचे खेलना, सिनेमा देखना, दोस्तों के साथ घूमना। शाम को पिता को दिखाने के लिए एक किताब खोल कर बैठ गए। भले ही वो फिल्मी दुनिया हो भौतिक शास्त्र के बीच या गुलशन नंदा का उपन्यास।

नतीजा वही जो होना था। दूसरे पुत्र इंजीनियरिंग में नहीं जा सके, डिप्लोमा में दाखिला लिया। मगर पाठ्यक्रम उत्तीर्ण नहीं कर पाए और संस्थान से बाहर निष्कासित हो गए। तीसरे पुत्र और दो हाथ आगे। न बारहवीं पास करो और न इन्जीनेयारिंग या डिप्लोमा का झंझट होगा। सो कई प्रयत्नों के बावजूद बारहवीं का बार्डर क्रास न हुआ। वकील साहब ने इन्हें सुधारने का पुराना व आसान तरीका आजमाया। दोनों भाइयों का विवाह कर दिया। परिवार की जिम्मेदारी कन्धों पर होगी तो गंभीर हो जायेंगे। अथवा पत्नी का दबाव पड़ेगा तो वही सुधार देगी। मगर ऐसा कुछ न हुआ। उनके भी और बच्चे पैदा हुए। इन सबका पारिवारिक बोझ भी वकील साहब के कन्धों पर आन पड़ा और उनकी गृहस्थी पूरी तरह चरमराने लगी।
अब चौथे पुत्र नन्हें की तरफ़ चलते हैं, जिनका जिक्र प्रारम्भ में ही आ चुका है शौचालय में। ये जनाब तो नीम पे चढ़े करेले से भी ज्यादा बिगड़े हुए। घर की हालत से पूरी तरह बेखबर। सुबह खींचकर उठाया गया तो शौचालय में जाकर सो गए। दातुन करने में घंटों लगा दिया, उसे कूँच कर झाडू बना दिया। कंचा खेलना, पतंग उडाना, कामिक्स पढ़ना, गुल्ली डंडा खेलना, सिनेमा देखना, सारी खूबियाँ पहले से ही विद्यमान। छठी कक्षा में पहुंचे तो गृह कार्य मिलने लगा। घर पे कोई देखने या कराने वाला तो था नहीं। नतीजतन रोज हर विषय के मास्टर चार, छ या दस बेंतो की सजा दिया करते थे। जो मास्टर जितना ज्यादा पीटे उतना कड़क माना जाता था और उतनी ज्यादा उसकी धाक होती थी।

रोज मार खा खाकर नन्हें बड़ा दुखी हो गया था। एक दिन गंभीरता पूर्वक बैठकर मनन करने लगा। कैसे छुटकारा पाँऊ। अंततः हल ढ़ूढ़ लिया। न मैं विद्यालय ज़ॉऊगा, न मार पड़ेगी। सो सुबह घर से निकलता, सारे दिन शहर में इधर उधर मटरगश्ती और शाम को छुट्टी के समय घर वापस। पूरे साल यही चला और अंततः विद्यालय से निष्कासित हो गया। वकील साहब की रही सही उम्मीद भी समाप्त हो गई। ये लड़का भी बरबाद हो गया। पहली बार किसी बच्चे को दौडा दौडा के पीटा था उन्होंने जीवन में। उठा के शहर के सबसे घटिया स्कूल में डाल दिया। यहाँ भी पिटाई तो होती थी, मगर गृह कार्य नहीं मिलता था। पहले ही दिन कुछ सवाल मास्टर ने पूछे, जिसका उत्तर पूरी कक्षा में केवल नन्हें ने दिया। क्योंकि दूसरे विद्यार्थियों का स्तर बहुत ही निम्न था और ज्यादातर अनपढ़ ग़रीबों के बच्चे थे जिनके घर में पढने का माहौल ही नहीं था। अब नन्हें की धाक जम गई। पहली बार जीवन में नन्हें को लगा की वह पढने में होशियार है। उस दिन उसने घर आकर पहली बार गंभीरता पूर्वक पुस्तक का वही पाठ पढ़ा जो पूछा गया था। उसके बाद तो फ़िर इस लंगडे घोडे ने गति पकड़नी शुरू की और अंततः इंजीनियरिंग में प्रवेश पा गया। उत्तीर्ण करते ही नौकरी भी मिल गई। और वो नन्हें से नरेंदर साहब बन गया।

नन्हें को 'घर' बनाने की बड़ी विकट अभिलाषा थी. बचपन से ही देखा पिताजी किराये के घर में तंग थे। पचीस रुपया किराया पचीस साल तक दिया और स्वयं का घर नहीं बना सके। जिस घर में रहते थे वो पुराना जर्जर कब गिर जाय पता नहीं। मकान मालिक को कितनी बार बोला पर वो क्यों ठीक कराये। गिर जाय तो अच्छा हो मकान खाली हो जाएगा। कितनी बार नन्हें को रात में दो बजे उठाया गया। नन्हें उठो, आँगन बारिश के पानी से भर गया है। बाल्टी में पानी भरकर बाहर फेंको वरना कमरे में पानी घुस रहा है। और सब भाई बहन रात भर पानी उलीचते रहते। वकील साहब मन ही मन कुढ़ते व बडबडाते जाते थे। मेरे बाद आने वाले सडियल वकीलों ने भी अपना घर बना लिया। मेरा सारा धन इन दोनों लड़कों की वजह से जाया गया। पहले यहाँ केवल यही घर था। बाद में कई नए घर लोगों ने आसपास बनवा लिए, जमीन ऊँची करके। पानी निकलने का रास्ता बंद हो गया। घर का शौचालय पुराने टाईप का था। मेहतरानी न आये तो पड़ा दुर्गन्ध मरता रहे अड़तालीस घंटे तक। मगर क्या करें। नया घर बनाने की हैसियत नहीं थी और किराये के नए घर का दस गुना महंगा किराया होता.

सो नन्हें ने नौकरी शुरू करते ही ठान लिया की जैसे भी हो, एक आरामदायक घर अवश्य बनवाना है। न पिताजी बनवा सके, न चाचा ताऊ। किसीने परिवार नियोजित नहीं किया और जीवन भर गृहस्थी के बोझ में पिसते रहे। चाहे भूखा रहना पड़े पर वेतन का एक चौथाई अवश्य बचाना है। परिवार भी छोटा रखा। मात्र दो बच्चे। दस साल बीत गए, मगर अपना घर हमेशा बचत के जमा रुपयों से बाहर ही रहा। बचत का पैसा तिगुना होता तो घर की कीमत छः गुना बढ़ती। कोई छोटा मोटा शहर तो था नहीं, महानगर की बात थी। पन्द्रह वर्ष बीत गए। मगर घर न हो पाया अपना। लोगों ने समझाया, आबादी से बाहर जाकर जमीन लो। सस्ती मिलेगी। कुछ बैंक से ऋण लेकर बचे हुए पैसों में मिलाओ। जमीन बड़ी खरीदो। कुछ वर्षो बाद शहर की आबादी वहां तक पहुँच जायेगी तो आधी जमीन बेचकर उन्ही पैसों से बाकी आधी में घर बना लेना। बात जमी। सो ऐसा ही किया। कर्ज ले लिया तो हाथ और भी तंग हो गया। किराये के छोटे मकान में शिफ्ट किया।

बच्चे परेशान करते रहे,”पापा हमें पढने का अलग-अलग कमरा चाहिए”।

“डाइनिंग टेबल रखने की जगह नहीं है, रसोई में पूरा समान नहीं आता”, पत्नी भी तंग रहती थी।

दो अतिथि आ जाय तो सोने की जगह ना मिले। पत्नी से नौकरी नहीं कराई क्योंकि बचपन में मां की अनुपस्थिति का नतीजा देख चुका था। बच्चे बिगड़ जाते हैं। नन्हें ने आफिस में कह सुनकर अपना तबादला खाडी के देश में करवा लिया। कुछ दिन रह लूँगा तो पैसे बच जायेंगे। बाकी जीवन आराम से कटेगा। पैसे ज्यादा बचें, इस वजह से बच्चों को भी साथ नहीं ले गए। कई वर्ष परिवार से अलग रहकर बिता दिए। पत्नी बेचारी अकेले बच्चों को पढाती संभालती। खैर त्याग तपस्या रंग लाया और बड़ा बेटा प्रथम प्रयास में आई आई टी में चयनित हो गया। पास होने पर विदेशी नौकरी मिल गई, अच्छे वेतन की। नन्हें ने वतन वापसी कर दूसरे बच्चे (बेटी) का विवाह सम्पन्न कर दिया। वो भी अपने पति के साथ बाहर जा कर सेटल हो गई। नन्हें विदेश से ठीक ठाक पैसा बचा लाया था। उसकी पुरानी जमीन भी आबादी के मध्य आ चुकी थी। उसकी कीमत लागत से पचास गुना ज्यादा बढ़ चुकी थी। सेवानिवृत्ति के बाद फंड व ग्रेच्विटी भी मिल गयी। बेटा भी विदेश से पैसे भेजने लगा। चारो तरफ़ से पैसा ही पैसा। एक अत्यन्त ही आलीशान घर उस जमीन पर बना दिया नन्हें ने, चार मंजिला। चारों तरफ़ लान, बड़ा कॅमपाउंड । कुल मिलाकर एक दर्जन कमरे। भव्य रूप से गृह प्रवेश हुआ। नन्हें रिटायर होकर शान्ति से उस घर में रहने लगे, पत्नी के साथ। कुछ महीने व्यस्त रहे नए घर को सजाने सँवारने में। फ़िर धीरे धीरे जीवन में ठहराव आने लगा।

घर तो बहुत बड़ा, मगर चौबीसो घंटे पति पत्नी बाहर बरामदे में पड़े रहते। बाकी सारे कमरे खाली। वर्ष में एक बार बेटा या बेटी अपने बच्चों के साथ आते तो घर गुलजार रहता, बाद में फ़िर वही एकाकीपन । सारे साल का इंतजार की बेटा दुबारा कब आयेगा। फ़िर बेटा दो वर्षों या तीन वर्षों के बाद आने लगा। उसके बच्चों को इंडिया पसंद नहीं आता था।

अब नन्हें को यह एकाकीपन बहुत अखरने लगा। पत्नी तो रसोई में, या पड़ोस की औरतों में वक्त गुजार लिया करती थी। नन्हें सोचने लगा, क्या इसी घर के लिए मैं जीवन भर अपनो से दूर भागता रहा? जिंदगी भर अपना वा बच्चों का पेट काटकर ग़रीब बना रहा, क्या सिर्फ़ इसीलिए की मरते वक्त धनी आदमी कहलाऊं ? जीवन के स्वर्णिम दिन अपनो से दूर खाडी के देश में शेखों की तिरस्कृत नज़रों के बीच बलिदान कर दिया। आज ये बड़ा घर है मगर रहने वाला कोई नहीं। घर दीवाल, छत, फर्नीचर से बनता है या उसमे रहने वालों से। ये घर अच्छा है अथवा मेरे बचपन का वो किराये वाला घर, जिसमें भाई बहनो के साथ हँसी ठाठे में बरसाती पानी उलीचते हुए पूरी रात चुटकियों में निकल जाया करती थी. और अब इतनी सुख सुविधाओं के बावजूद रात काटे नही कटती. एक एक क्षण पहाड़ सा लगता है।


बचपन में उस छोटे से शहर वाले घर के पड़ोसी मास्टर के कुत्ते को किसी वाहन ने घायल कर दिया था, तो पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था उसकी मरहम पट्टी करने में। और यहाँ इस महानगर के पड़ोसी गुलाटी साहब गुजर गए तो उनकी अर्थी व अंत्येष्टि के लिए चार आदमी न मिल सके। किराये के आदमी लाने हेतु उनकी पत्नी को ठेका देना पड़ाएक एजेंट को। पत्नी की इहलीला समाप्त हो गयी तो उनके एन आर आई बेटे के लिए यह घर संभालना सिरदर्द हो गया। उसने बेच बाच कर इंडिया से छुट्टी पा ली। उसे क्या मतलब की यह घर बनवाना किसीके लिए उसकी पूरी जिंदगी का मकसद था। बनवाते समय सोचा होगा की महानगर में अपनी सात पीढ़ियों के लिए मैं एक आशियाना छोड़ के जाऊँगा। मगर अगली एक पीढ़ी भी इसमें ना रह सकी।

नन्हें सारी जिंदगी इस घर को पाने के लिए भागता रहा। मगर पाने के बाद, अब टेप रिकार्ड पर सारी रात केवल यही गाना सुनता रहता है:-

"
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन .........
जीना चाहता हूँ उसे इस बार भिन्न ....

Mar 13, 2008

वास्तविकता

बरसों पहले डाइरेक्टर नामका, एक शिकारी रहता था।
उच्च नस्ल के उत्तम कुत्ते, अपने साथ वो रखता था।
कोई ए यम, कोई डी यम, किसी को मॅनेजर कहता था।
एक शिकार भी बच ना पाए, ऐसा दम वो भरता था।

जिम कारबेट के साथ एक दिन, निकल गये जंगल की ओर।
कम आन डी यम, अटैक मैनेजर, डाइरेक्टर है करता शोर।
एक भी जानवर बच ना पाया, शेर चीता भालू या मोर।
बड़ा प्रभावित हुआ जिम कारबेट, देख सभी कुत्तों का ज़ोर।

बरसों बाद पुनः करबेट, भारत में एक अवॉर्ड लेने आया।
डाइरेक्टर के साथ फिर से, शिकार का प्रोग्राम बनाया।
सारे दिन खपने के बाद, एक भी जानवर मार ना पाया।
बोला अब तुम्हारा मैनेजर, क्यों नहीं दौड़ता डाइरेक्टर भाया।

क्या करूँ भाई, ग़लती मेरी है, डाइरेक्टर जी फरमाते है।
वो पुराने सारे मैनेजर अब, जनरल मैनेजर कहलाते है.
बंद कमरों में बैठ सारे दिन, ये अब केवल गुर्राते हैं।
उम्र हो गयी दौड़ ना पाएँ, मैनेजमेंट का पाठ पढ़ाते हैं।

तेज तर्रार ब्रीड के पिल्ले, हमने आई आई टी से मँगवाए.
शिकार खेलने गये जंगल में, नहीं लौट कर आए.
खुंदक खाकर देसी पिल्ले, खूब सारे भरवाए.
ये घर पड़ोस में शिकार सूंघते, जंगल जाने से घबराए.

फिर सोचा मैं रख लेता हूँ, कुछ बिल्लियाँ सत्तर अस्सी.
शिकार होंगे खुद ही नतमस्तक, समझ इन्हें शेरों की मौसी.

नसीहत पर अमल

स्वामी रामदेव के कॅंप में पहुँचा, सुना बड़ा नाम था।
आँखें तेज करनी है भगवान, चश्मे को देना आराम था।
नज़र घुमाना बाएँ से दाएँ, करना बीस बार सुबह और शाम था।
छाणिक विराम के बाद फिर, लगाना भास्त्रिका प्राणायाम था।

अगले ही सप्ताह, फॉरेन प्रॉजेक्ट के लिए प्रस्थान हुआ।
प्रातःकाल दुबई एआर्पोर्ट पर, मेरे प्राणायाम का शुरुआत हुआ।
सिद्धासन मुद्रा में जा, नज़रें दाएँ-बायें घुमाना दस बार हुआ।
तभी यकायक एक अरबी शेख का, जोरदार मुष्टिका प्रहार हुआ।

दाएँ बाएँ इशारे कर, उसकी उंगलियाँ कुछ दिखलाती थी।
दाँयी तरफ टायलेट और बाएँ, उसकी चार बिबीयाँ नज़र आती थी।
मेरी आसन में घूमती आँखें, शायद उसे अर्थ यही समझाती थी।
की मेरी नज़रें दायें-बायें होकर, बिबीयों को टायलेट में बुलवाती थी.