Jun 11, 2008

घर - अंतरराष्ट्रीय प्रथम पुरष्कार प्राप्त कहानी

"नन्हें, आज क्या शौचालय से बाहर नहीं निकलना है। वहीं बिस्तर लगा दें। नालायक लड़का। दीर्घसूत्री विनश्यति।"

वकील साहब के घर में सुबह सात बजे ये रोज का नजारा था। पुराने खानदानी जमींदार थे। भरा पूरा परिवार था। भगवान् की दया से चार पुत्र व चार पुत्रियों के मालिक थे। मगर बदलते सामाजिक व राजनितिक घटनाक्रम की वजह से, अब वो जमींदारी शानो शौकत तो कब की छू मंतर हो गई थी। काफी जमीन तो सीलिंग कानून लील गया, और बाकी खानदानी आबादी बढ़ने की वजह से पट्टी-दारों में आपस में बंट गई। परिवार बड़ा होने की वजह से खर्चा ज्यादा हो चला, मगर आमदनी वही अठन्नी। पत्नी को गाँव में रख दिया, खेत खलिहान देखने के लिए और स्वयं शहर में वकालत करने लगे। बच्चों को भी साथ रखकर शहर के विद्यालयों में पढाते थे। अपने हिसाब से उन्होंने अच्छी प्लानिंग की और बदलते परिवेश में ढालने की भरपूर कोशिश की। पति-पत्नी दोनों से आमदनी होगी तो बड़े परिवार का बोझ हल्का हो जाएगा।



"कर्मठ व्यक्ति अपना भाग्य स्वयं लिखता है।" उनके इस कथन को चरितार्थ करते हुए भाग्य की देवी ने उनका साथ दिया और ज्येष्ठ पुत्र जाने माने सस्थान आई आई टी में आ गया। अब तो पति पत्नी मुतमईन हो गए की चारों बेटे इंजीनियर बन जायेंगे और जीवन की डगर में कोई कांटा नहीं बचेगा। पत्नी जो काफी कुछ समय बच्चों के साथ भी बिता लिया करती थी, अब पूरी तरह गाँव चली गयी। शहर आना एकदम छोड़ दिया।

मगर विधाता को कुछ और मंजूर था। मात्र यही क्षण उनके जीवन का स्वर्णिम काल था, जिसके बाद भाग्य रेखा अधोगामी हो चली। माँ के नहीं होने से, और पिता के दिन भर बाहर कचहरी में व्यस्त होने की वजह से बच्चे पूर्णतया स्वच्छँद हो गए। जिसकी मर्जी विद्यालय जा रहा है, या सिनेमाहाल, कोई नियंत्रण नहीं। और शैशव काल एक तरल पदार्थ के समान होता है। जिस बर्तन में डालो उसी में ढल जाता है। जिधर ढलान यानी आसान डगर मिलेगी, उधर ही चल पड़ेगा। और बच्चों को आसान डगर लगी उपन्यास पढ़ना, कंचे खेलना, सिनेमा देखना, दोस्तों के साथ घूमना। शाम को पिता को दिखाने के लिए एक किताब खोल कर बैठ गए। भले ही वो फिल्मी दुनिया हो भौतिक शास्त्र के बीच या गुलशन नंदा का उपन्यास।

नतीजा वही जो होना था। दूसरे पुत्र इंजीनियरिंग में नहीं जा सके, डिप्लोमा में दाखिला लिया। मगर पाठ्यक्रम उत्तीर्ण नहीं कर पाए और संस्थान से बाहर निष्कासित हो गए। तीसरे पुत्र और दो हाथ आगे। न बारहवीं पास करो और न इन्जीनेयारिंग या डिप्लोमा का झंझट होगा। सो कई प्रयत्नों के बावजूद बारहवीं का बार्डर क्रास न हुआ। वकील साहब ने इन्हें सुधारने का पुराना व आसान तरीका आजमाया। दोनों भाइयों का विवाह कर दिया। परिवार की जिम्मेदारी कन्धों पर होगी तो गंभीर हो जायेंगे। अथवा पत्नी का दबाव पड़ेगा तो वही सुधार देगी। मगर ऐसा कुछ न हुआ। उनके भी और बच्चे पैदा हुए। इन सबका पारिवारिक बोझ भी वकील साहब के कन्धों पर आन पड़ा और उनकी गृहस्थी पूरी तरह चरमराने लगी।
अब चौथे पुत्र नन्हें की तरफ़ चलते हैं, जिनका जिक्र प्रारम्भ में ही आ चुका है शौचालय में। ये जनाब तो नीम पे चढ़े करेले से भी ज्यादा बिगड़े हुए। घर की हालत से पूरी तरह बेखबर। सुबह खींचकर उठाया गया तो शौचालय में जाकर सो गए। दातुन करने में घंटों लगा दिया, उसे कूँच कर झाडू बना दिया। कंचा खेलना, पतंग उडाना, कामिक्स पढ़ना, गुल्ली डंडा खेलना, सिनेमा देखना, सारी खूबियाँ पहले से ही विद्यमान। छठी कक्षा में पहुंचे तो गृह कार्य मिलने लगा। घर पे कोई देखने या कराने वाला तो था नहीं। नतीजतन रोज हर विषय के मास्टर चार, छ या दस बेंतो की सजा दिया करते थे। जो मास्टर जितना ज्यादा पीटे उतना कड़क माना जाता था और उतनी ज्यादा उसकी धाक होती थी।

रोज मार खा खाकर नन्हें बड़ा दुखी हो गया था। एक दिन गंभीरता पूर्वक बैठकर मनन करने लगा। कैसे छुटकारा पाँऊ। अंततः हल ढ़ूढ़ लिया। न मैं विद्यालय ज़ॉऊगा, न मार पड़ेगी। सो सुबह घर से निकलता, सारे दिन शहर में इधर उधर मटरगश्ती और शाम को छुट्टी के समय घर वापस। पूरे साल यही चला और अंततः विद्यालय से निष्कासित हो गया। वकील साहब की रही सही उम्मीद भी समाप्त हो गई। ये लड़का भी बरबाद हो गया। पहली बार किसी बच्चे को दौडा दौडा के पीटा था उन्होंने जीवन में। उठा के शहर के सबसे घटिया स्कूल में डाल दिया। यहाँ भी पिटाई तो होती थी, मगर गृह कार्य नहीं मिलता था। पहले ही दिन कुछ सवाल मास्टर ने पूछे, जिसका उत्तर पूरी कक्षा में केवल नन्हें ने दिया। क्योंकि दूसरे विद्यार्थियों का स्तर बहुत ही निम्न था और ज्यादातर अनपढ़ ग़रीबों के बच्चे थे जिनके घर में पढने का माहौल ही नहीं था। अब नन्हें की धाक जम गई। पहली बार जीवन में नन्हें को लगा की वह पढने में होशियार है। उस दिन उसने घर आकर पहली बार गंभीरता पूर्वक पुस्तक का वही पाठ पढ़ा जो पूछा गया था। उसके बाद तो फ़िर इस लंगडे घोडे ने गति पकड़नी शुरू की और अंततः इंजीनियरिंग में प्रवेश पा गया। उत्तीर्ण करते ही नौकरी भी मिल गई। और वो नन्हें से नरेंदर साहब बन गया।

नन्हें को 'घर' बनाने की बड़ी विकट अभिलाषा थी. बचपन से ही देखा पिताजी किराये के घर में तंग थे। पचीस रुपया किराया पचीस साल तक दिया और स्वयं का घर नहीं बना सके। जिस घर में रहते थे वो पुराना जर्जर कब गिर जाय पता नहीं। मकान मालिक को कितनी बार बोला पर वो क्यों ठीक कराये। गिर जाय तो अच्छा हो मकान खाली हो जाएगा। कितनी बार नन्हें को रात में दो बजे उठाया गया। नन्हें उठो, आँगन बारिश के पानी से भर गया है। बाल्टी में पानी भरकर बाहर फेंको वरना कमरे में पानी घुस रहा है। और सब भाई बहन रात भर पानी उलीचते रहते। वकील साहब मन ही मन कुढ़ते व बडबडाते जाते थे। मेरे बाद आने वाले सडियल वकीलों ने भी अपना घर बना लिया। मेरा सारा धन इन दोनों लड़कों की वजह से जाया गया। पहले यहाँ केवल यही घर था। बाद में कई नए घर लोगों ने आसपास बनवा लिए, जमीन ऊँची करके। पानी निकलने का रास्ता बंद हो गया। घर का शौचालय पुराने टाईप का था। मेहतरानी न आये तो पड़ा दुर्गन्ध मरता रहे अड़तालीस घंटे तक। मगर क्या करें। नया घर बनाने की हैसियत नहीं थी और किराये के नए घर का दस गुना महंगा किराया होता.

सो नन्हें ने नौकरी शुरू करते ही ठान लिया की जैसे भी हो, एक आरामदायक घर अवश्य बनवाना है। न पिताजी बनवा सके, न चाचा ताऊ। किसीने परिवार नियोजित नहीं किया और जीवन भर गृहस्थी के बोझ में पिसते रहे। चाहे भूखा रहना पड़े पर वेतन का एक चौथाई अवश्य बचाना है। परिवार भी छोटा रखा। मात्र दो बच्चे। दस साल बीत गए, मगर अपना घर हमेशा बचत के जमा रुपयों से बाहर ही रहा। बचत का पैसा तिगुना होता तो घर की कीमत छः गुना बढ़ती। कोई छोटा मोटा शहर तो था नहीं, महानगर की बात थी। पन्द्रह वर्ष बीत गए। मगर घर न हो पाया अपना। लोगों ने समझाया, आबादी से बाहर जाकर जमीन लो। सस्ती मिलेगी। कुछ बैंक से ऋण लेकर बचे हुए पैसों में मिलाओ। जमीन बड़ी खरीदो। कुछ वर्षो बाद शहर की आबादी वहां तक पहुँच जायेगी तो आधी जमीन बेचकर उन्ही पैसों से बाकी आधी में घर बना लेना। बात जमी। सो ऐसा ही किया। कर्ज ले लिया तो हाथ और भी तंग हो गया। किराये के छोटे मकान में शिफ्ट किया।

बच्चे परेशान करते रहे,”पापा हमें पढने का अलग-अलग कमरा चाहिए”।

“डाइनिंग टेबल रखने की जगह नहीं है, रसोई में पूरा समान नहीं आता”, पत्नी भी तंग रहती थी।

दो अतिथि आ जाय तो सोने की जगह ना मिले। पत्नी से नौकरी नहीं कराई क्योंकि बचपन में मां की अनुपस्थिति का नतीजा देख चुका था। बच्चे बिगड़ जाते हैं। नन्हें ने आफिस में कह सुनकर अपना तबादला खाडी के देश में करवा लिया। कुछ दिन रह लूँगा तो पैसे बच जायेंगे। बाकी जीवन आराम से कटेगा। पैसे ज्यादा बचें, इस वजह से बच्चों को भी साथ नहीं ले गए। कई वर्ष परिवार से अलग रहकर बिता दिए। पत्नी बेचारी अकेले बच्चों को पढाती संभालती। खैर त्याग तपस्या रंग लाया और बड़ा बेटा प्रथम प्रयास में आई आई टी में चयनित हो गया। पास होने पर विदेशी नौकरी मिल गई, अच्छे वेतन की। नन्हें ने वतन वापसी कर दूसरे बच्चे (बेटी) का विवाह सम्पन्न कर दिया। वो भी अपने पति के साथ बाहर जा कर सेटल हो गई। नन्हें विदेश से ठीक ठाक पैसा बचा लाया था। उसकी पुरानी जमीन भी आबादी के मध्य आ चुकी थी। उसकी कीमत लागत से पचास गुना ज्यादा बढ़ चुकी थी। सेवानिवृत्ति के बाद फंड व ग्रेच्विटी भी मिल गयी। बेटा भी विदेश से पैसे भेजने लगा। चारो तरफ़ से पैसा ही पैसा। एक अत्यन्त ही आलीशान घर उस जमीन पर बना दिया नन्हें ने, चार मंजिला। चारों तरफ़ लान, बड़ा कॅमपाउंड । कुल मिलाकर एक दर्जन कमरे। भव्य रूप से गृह प्रवेश हुआ। नन्हें रिटायर होकर शान्ति से उस घर में रहने लगे, पत्नी के साथ। कुछ महीने व्यस्त रहे नए घर को सजाने सँवारने में। फ़िर धीरे धीरे जीवन में ठहराव आने लगा।

घर तो बहुत बड़ा, मगर चौबीसो घंटे पति पत्नी बाहर बरामदे में पड़े रहते। बाकी सारे कमरे खाली। वर्ष में एक बार बेटा या बेटी अपने बच्चों के साथ आते तो घर गुलजार रहता, बाद में फ़िर वही एकाकीपन । सारे साल का इंतजार की बेटा दुबारा कब आयेगा। फ़िर बेटा दो वर्षों या तीन वर्षों के बाद आने लगा। उसके बच्चों को इंडिया पसंद नहीं आता था।

अब नन्हें को यह एकाकीपन बहुत अखरने लगा। पत्नी तो रसोई में, या पड़ोस की औरतों में वक्त गुजार लिया करती थी। नन्हें सोचने लगा, क्या इसी घर के लिए मैं जीवन भर अपनो से दूर भागता रहा? जिंदगी भर अपना वा बच्चों का पेट काटकर ग़रीब बना रहा, क्या सिर्फ़ इसीलिए की मरते वक्त धनी आदमी कहलाऊं ? जीवन के स्वर्णिम दिन अपनो से दूर खाडी के देश में शेखों की तिरस्कृत नज़रों के बीच बलिदान कर दिया। आज ये बड़ा घर है मगर रहने वाला कोई नहीं। घर दीवाल, छत, फर्नीचर से बनता है या उसमे रहने वालों से। ये घर अच्छा है अथवा मेरे बचपन का वो किराये वाला घर, जिसमें भाई बहनो के साथ हँसी ठाठे में बरसाती पानी उलीचते हुए पूरी रात चुटकियों में निकल जाया करती थी. और अब इतनी सुख सुविधाओं के बावजूद रात काटे नही कटती. एक एक क्षण पहाड़ सा लगता है।


बचपन में उस छोटे से शहर वाले घर के पड़ोसी मास्टर के कुत्ते को किसी वाहन ने घायल कर दिया था, तो पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया था उसकी मरहम पट्टी करने में। और यहाँ इस महानगर के पड़ोसी गुलाटी साहब गुजर गए तो उनकी अर्थी व अंत्येष्टि के लिए चार आदमी न मिल सके। किराये के आदमी लाने हेतु उनकी पत्नी को ठेका देना पड़ाएक एजेंट को। पत्नी की इहलीला समाप्त हो गयी तो उनके एन आर आई बेटे के लिए यह घर संभालना सिरदर्द हो गया। उसने बेच बाच कर इंडिया से छुट्टी पा ली। उसे क्या मतलब की यह घर बनवाना किसीके लिए उसकी पूरी जिंदगी का मकसद था। बनवाते समय सोचा होगा की महानगर में अपनी सात पीढ़ियों के लिए मैं एक आशियाना छोड़ के जाऊँगा। मगर अगली एक पीढ़ी भी इसमें ना रह सकी।

नन्हें सारी जिंदगी इस घर को पाने के लिए भागता रहा। मगर पाने के बाद, अब टेप रिकार्ड पर सारी रात केवल यही गाना सुनता रहता है:-

"
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन .........
जीना चाहता हूँ उसे इस बार भिन्न ....

3 comments:

Unknown said...

Very interesting story.... Very well written...so this is how you foresee your retired life.... Will keep checking this site...

Regards,
Vandana

Teen Times! said...

Wow, Dad!The story was splendid and was very moving. Keep writing such stories and one day you can become a writer.
That's Damini!

योगी राजीव said...

yah to apani puri past present aur future ek saath hi likh dala hai fantastic
rajiv