छोटे से गाँव के ब्राम्हड़ कुल में जन्मा एक बालक ‘बाल मोहन शुक्ला’ शहर के राजकीय इंटर कालेज प्रतापगढ़ में शिक्षार्थी बन कर आया. बड़ा ही होनहार एवं कुशाग्र बुद्धि का स्वामी था. हमेशा कक्षा में प्रथम आता था. यहा उसकी मित्रता एक सहपाठी रवि कपूर से हुई. रवि भी पढ़ने में अच्छा था, मगर बाल मोहन से आगे नही निकल पाया. दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ता था. दोनो में मित्रता के बावजूद वैचारिक मतभेद बहुत ज़्यादा थे. दोनो ही बड़े होकर इंसानियत की सेवा में अर्पित होना चाहते थे, डाक्टर बन कर. मगर अलग अलग तरह के.
बाल मोहन, “मैं बड़ा होकर आयुर्वेद का चिकित्सक बनूंगा। तुम्हे पता है हमारा आर्यावर्त पाँच हज़ार वर्ष पहले भी चिकित्सा के क्षेत्र में उन्नत था. शल्य चिकित्सा (सर्जरी) हमारे यहाँ उसी समय होती थी, जब बाकी विश्व के लोग पाषाण युग में नग्न विचरण करते थे. हमारा वेद दवाओं तथा जड़ी बूटी के फार्मूलों से भरा पड़ा है. आयुर्वेद का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता. प्राचीन दुर्लभ पांडुलिपियों को मुगलों व अँग्रेज़ों ने नष्ट करके हमारी चिकित्सा शास्त्र को मरणासन्न कर दिया है. मैं शोध करके उसे पुनर्जीवित करूँगा. जिससे ग़रीबों का मुफ़्त में इलाज हो. एलोपैथी के डाक्टर तो लुटेरे है. ग़रीब वहाँ जा ही नहीं सकता. नई दवाओं की खोज करेंगे तो उसे पेटेंट कर लेंगे. कोई और ना बना सके. मनमाने दाम पर महँगा बेच कर लोगों का खून चूसेंगे. भला ये भी कोई इंसानियत है. चिकित्सा जैसे पवित्र क्षेत्र का व्यावसायीकरण कर दिया है. लोगों की किडनी चोरी करके पैसा कमा रहे हैं. नरभक्षी कहीं के.”
रवि कपूर कहता है जवाब में, “हमारी इन्ही दकियानूसी विचारधारा के कारण इंडिया इतना पिछड़ा हुआ है. अँग्रेज़ों को देखो. हर चीज़ को डेवेलप करके कितना आगे बढ़ गये हैं. दवाओं को महँगा बेचेंगे तभी तो रिसर्च पर पैसा खर्च करके दूसरी अन्य दवाएँ व फार्मूले इनवेंट करेंगे. आयुर्वेद में कुछ नहीं रखा है. नीम हकीम ख़तरे जान. ये सब ओझाओं व झाड़ फूँक करने वालों का फील्ड है, जो सिर्फ़ अनपढ़ व गँवारों को बेवकूफ़ बनाने के लिए है. जड़ी बूटी व पत्ता चबाकर क्या किसी का इलाज हो सकता है? अगर ऐसा है तो गाय, भैंस व बकरी कभी बीमार ना हों. केमिस्ट्री के पढ़ाए फार्मूले क्या बकवास हैं? डाक्टर इलाज का महँगा पैसा लेता है तो क्या ग़लत है? वो ज़बरदस्ती तो किसीको बुला नहीं रहा है, मेरे पास ही आओ. ये तो सेल्फ़ मार्केटिंग स्ट्रॅटजी है. ज़्यादा पैसा लेगा तो उतनी उँची उसकी मार्केट वैल्यू होगी. इंसान की सेवा तो वो कर ही रहा है. फिर अपना मेहनताना क्यों छोड़े”.
इसी तरह दोनो उलझे रहते व घंटों वाद-विवाद करते। समय पंख लगा कर उड़ता गया. इंटर्मीडियेट का परीक्षाफल घोषित हुआ. बाल मोहन पूरे उ प्र के मेरिट लिस्ट में पाँचवाँ स्थान ले आया. रवि भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया. बाल मोहन ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आयुर्वेदिक विभाग में उसी वर्ष प्रवेश लिया. रवि ने दो वर्ष तैयारी की और अंततः किंग जार्ज मेडिकल कालेज लखनऊ में एम बी बी एस का कोर्स पा गया.
बाल मोहन आयुर्वेदाचार्य बन कर गाँव लौटा, ग़रीबों की मुफ़्त चिकित्सा व मानवता का भाव लेकर. गाँव में लोग उसे बब्बन बुलाते थे. उसके पिता ने उसके विवाह का रिश्ता पहले ही पक्का कर रखा था. सुनते ही बब्बन बिदक गया. मुझे अभी आयुर्वेद में शोध करना है. लोगों की सेवा करनी है. अभी विवाह का वक्त नहीं आया है. सुनते ही पिता उबल पड़े. लड़का हाथ से गया, अंग्रेज बन गया है. खानदान में क्या और किसीने अपनी मर्ज़ी से शादी की है. क्या शादी के बाद पढ़ाई करना मना है. इत्यादि.
दबाव तथा संकोचवश बब्बन ने हाँ कर दी। दो बेटियाँ भी पैदा हो गयीं. बब्बन गृहस्थी व खेत खलिहान में उलझ गया. कभी कभार गाँव का कोई जॅन उससे बुखार खाँसी की दवा ले जाता था. जो मर्ज़ी आए दे दिया. पैसे या गेहूँ. या वो भी नहीं. बेचारा बड़ी ग़रीबी में रहने लगा. उधर रवि ने एम बी बी एस करने के बाद अपनी ही बैच की एक धनी लड़की से शादी कर ली. शादी के बाद धनी ससुर डाक्टर ने दोनो को उच्च शिक्षा हेतु अमरीका भेज दिया. कुछ वर्षों बाद दोनो ही स्पेशलिस्ट डाक्टर बन कर वापस भारत आए. ससुर का जमा जमाया क्लिनिक था. दोनो उसी में लग गये. धीरे धीरे दोनो की प्रैक्टिस जम गयी. पैसा बरसने लगा और चारो तरफ बड़ा नाम हो गया. कई वर्ष बीत गये. डाक्टर रवि की शोहरत बब्बन के कानो तक भी पहुँची. उसने पत्नी को गर्व से बताया, देखो ये मेरा सहपाठी था
पत्नी ने ताना मारा,”बेटियाँ जवान हो गयीं है. तुम्हें कुछ ख्याल भी है. आयुर्वेद के डाक्टर बनकर उनके लिए दो रोटी भी नहीं ला पा रहे हो. एम बी बी एस पढ़े होते तो हम भी फाका ना कर रहे होते. जाओ अपने दोस्त के पास. करोड़पति है. क्या दो चार लाख ना दे देगा”.
बब्बन का जमीर अभी मरा नहीं था। हाथ फैलाना उसके जीवन मूल्यों के विपरीत था. मगर इंसान औलाद के लिए स्वयं को भी बेच सकता है. सो ना चाहते हुए भी शहर की ओर चल पड़ा. सोचा पुराना दोस्त है. मिलकर खुशी होगी. नामी डाक्टर के घर रिक्शेवाले ने बिना किसी कठिनाई के पहुँचा दिया. आलीशान भवन सामने विशाल प्रांगण. अंदर हाल में सैकड़ों मरीज, अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहे थे. बब्बन स्वयं को बड़ा संकुचित व हीन महसूस कर रहा था. इस माहौल मे उसकी किसी से पूछने की हिम्मत नही हो रही थी.
किसी तरह हिम्मत जुटाकर नंबर लगाने वाले व्यक्ति के कान में जाकर धीरे से बोलने लगा,”भाई साहब मुझे डाक्टर रवि से मिलना है. हम दोनो एक साथ पढ़ते थे”.
वह व्यक्ति गुर्राया,”जल्दी डाक्टर को दिखाने का यह बड़ा पुराना नुस्ख़ा है. अगर जल्दी दिखाना चाहते हो तो एक हज़ार रुपये की अर्जेंट पर्ची कटवाओ. वरना चार सौ की पर्ची कटवा कर लाइन में चार घंटे बैठो”.
बब्बन के पास तो चार सौ भी नहीं थे. वो हज़ार कहाँ से देता. बड़ी ग्लानि, अपमानित व पश्चाताप की अवस्था में वहीं एक खाली बेंच पर बैठ गया. सोचने लगा, मैने भी क्यों नहीं एलोपथि पढ़ी ? रवि से ज़्यादा होनहार था पढ़ने में. ना मैं मानवता की सेवा ही कर पाया ना पैसे कमा पाया. सोचते सोचते ना जाने कब शाम हो गयी. क्लिनिक बंद करने का वक्त हो गया.
सारे मरीज जा चुके थे. तभी डाक्टर रवि बाहर निकले. हाल में एकमात्र व्यक्ति को देखा तो सोचा यह मरीज छूट गया है. व्यवहारिक थे, इसलिए इतना नाम कमाया. पास आकर बोले,” जनाब आपका कौन सा नंबर है? दिखा चुके या दिखाना है?”
बब्बन शूटेड बूटेड व्यक्ति को देख सकपकाकर उठ खड़ा हुआ। हड़बडाकर बोला,”माफ़ कीजिएगा साहब. बस ज़रा आँख लग गयी थी. मैं मरीज नहीं हूं. डाक्टर रवि मेरे बचपन के सहपाठी थे. मुहब्बत वश मिलने चला आया. मगर मुझे नहीं पता था, अपने मित्र से मिलने के लिए एक हज़ार रुपये देने होंगे. इसलिए वापस जा रहा हूं”.
रवि के माथे पर बल पड़ गये. पहचानने की असफल कोशिश के बाद बोले,”भैया अपना नाम तो बताना ज़रा”.
बब्बन,”क्या करेंगे आप जानकार. अब तो मैं स्वयं अपना पुराना नाम भूल गया हूं. खैर मेरा पुराना नाम ’बाल मोहन शुक्ला’ है”.
रवि को जैसे हज़ार वॉल्ट का झटका लगा. बॉल मोहन को भला वो कैसे भूल सकता था. कितनी बार अपनी पत्नी से उसका जिक्र किया था. उ प बोर्ड का टॅपर उसका सहपाठी था. दौड़कर उसे गले लगाया. बड़े ही उत्साहित हो बोलने लगा,”यार बालू तू नहीं सुधरेगा. अपनी पुरानी आदतों से. भला तुझे और मुझे मिलने से कौन रोक सकता है”.
बड़े प्यार से उसका हाथ थामा। अपनी लेक्सॅरी कार में बिठाया व कोठी में लेकर आए. खूब आव भगत की, खिलाया पिलाया. पत्नी से मिलवाया. रात बड़ी देर तक दोनो बातें करते रहे. रात भर बब्बन वहीं रुका. मगर रवि से पैसे माँगने के लिए ज़बान ने साथ नहीं दिया. सुबह रवि ने उसके गाँव का पता ठिकाना अपनी डायरी में नोट किया. फिर अपनी कार से बस स्टॅंड तक पहुँचाया.
समय पंख लगा कर उड़ता गया. रवि के ससुर अपनी पहुँच से मेडिकल बोर्ड के चेयरमैन बन गये. रवि का भी बड़ा नाम हो गया. पैसा व शोहरत दोनो. उसके ससुर ने उसका नाम मानवता की सेवा के लिए दिए जाने वाले ’गाँधी पुरस्कार’ के लिए पास करवा लिया. अख़बारों में फोटो छपी. रवि ने पुरस्कार वितरण समारोह में शामिल होने के लिए एक निमंत्रण बाल मोहन को भी भेजा.
बब्बन खूब सफेद धोती कुर्ता पहन समारोह में शामिल होने दिल्ली पहुँचा. कार्ड दिखाकर अंदर भी चला गया. रवि बड़ी आत्मीयता से मिला. पुरस्कार वितरण के बाद लोग खाने के लिए बाहर लान में इकठ्ठा हुए. बब्बन भी एक दरख्त के पास जाकर खड़ा हो गया.
तभी केटरिंग मैनेजर आकर डाँटने लगा,” ओये भैये, तू यहाँ खड़ा होकर कामचोरी कर रहा है. वहाँ खाना क्या तेरा बाप सर्व करेगा. चल भाग कर प्लेटें लगा”.
बब्बन को काटो तो खून नहीं। चुपचाप वहाँ से खिसक लिया, बिना किसीसे से मिले, बिना खाए. बड़ा ही व्यथित व आत्मग्लानि से छुब्ध. सोचते चला जा रहा था,”मेरे जीवन का उद्येश्य था, निःस्वार्थ मानवता की सेवा करना. मगर पुरस्कार कौन ले रहा है. उसके पास मानवता का पुरस्कार भी है, पैसा भी है और शोहरत भी. मुझे माया मिली ना राम.”
समारोह से लौटने के बाद बब्बन ने अपना खेत बेचकर बेटियों की शादी कर दी. ग़रीबी व तंगी और बढ़ गयी. पत्नी कुपोषण से बीमार हुई और कुछ दिन में चल बसी. बब्बन के लिए जीवन में अब क्या था. सो घर भी बेचकर-बाचकर काशी विश्व विद्यालय के पास एक आश्रम में रहने लगा. आयुर्वेद विभाग में मुफ़्त काम करने लगा. थोड़ा बहुत कोई मरीज दे देता तो उसी में दाल रोटी वरना फंका. पुस्तकालय में बैठ घंटो गुज़ार देता, वेद ग्रंथ की ऋचाओं में फार्मूले ढूंढता.
इधर रवि ने जंदगी का भरपूर आनंद लिया. अच्छे बुरे हर तरह के लुत्फ़ उठाये। मगर अचानक उनका स्वास्थ गिरने लगा. टेस्ट कराया तो एच आई वी पॉज़िटिव निकला. बड़ी दवा की. अमरीका तक के कई चक्कर लगाए. मगर एड्स की कोई दवा ना मिली. धीरे धीरे वो बिस्तर पर पड़ गये.
खबर बब्बन तक भी पहुँची। बब्बन अपने शोध के काफ़ी करीब पहुँच चुका था. मगर रिग वेद के तिर्यक सूत्र का संस्कृत में लिखा अनुवाद नहीं कर पा रहा था. पुरी के शंकराचार्य से अपायंटमेंट लेकर मिलने गया. अंततः दोनो ने मिलकर उसका अर्थ ढूँढ लिया. वापस काशी आकर बब्बन ने सारे आँकड़े इकट्ठे किए. सारी जड़ी बूटियाँ संकलित करने में महीनो लग गये. कुछ हिमालय से कुछ आसाम से लानी पड़ीं. अंततः उसने अपनी एड्स की दवा विकसित कर ली. मगर दवा का प्रचार करने के लिए उसके पास पूंजी नहीं थी. वो कोई बड़ा डाक्टर तो था नहीं. बड़ा मायूस हो गया. कैसे मानवता की सेवा करे.
आख़िरकार वो दवा लेकर रवि के पास पहुँचा. बोला,” मित्र तुम बीमार हो फिर भी मदिरापान करते हो. ये एक शीशी है जो तुम्हारे लिए लाया हूं. इसे मदिरा में मिला कर डाल लिया करना. मदिरा की कड़वाहट कम हो जाएगी. समझ लो तुम्हारे मित्र की आखरी ख्वाहिश यही है. क्योंकि अब मैं सन्यास ग्रहण करने जा रहा हूं.”
रवि ने बब्बन की बात मान ली. मरना था ही इसलिए मदिरापान का भी आनंद लेते रहे. मगर दो चार बूँद बब्बन का आसव भी मिला लेते थे. एक महीने बाद रवि की तबीयत संभलने लगी. शरीर में शक्ति का संचार होने लगा. उठकर चलने फिरने लगे. एच आई वी टेस्ट करवाया. टेस्ट का रेजल्ट देखकर सन्न रह गये. यकीन नहीं हुआ. टेस्ट नेगेटिव था. मेडिकल हिस्ट्री का चमत्कार।
वो समझ गये, ये बब्बन की शीशी का कमाल है. बोले,” हाँ बाल मोहन, तुम जीत गये. तुम्ही सच्चे मानवता वादी हो. एक बार मिल जाओ. दवा का फार्मूला बताओ. मैं इस दवा को तुम्हारे नाम पेटेंट करवा के तुम्हारा नाम दुनिया में सदा के लिए रोशन कर दूँगा”.
बड़ी खोज खबर ली. मगर बब्बन का कहीं कोई पता ना चला. वो तो मानव और मानवता से दूर जा चुका था. इस तरह एड्स की आयुर्वेदिक दवा, विकसित होने के साथ ही, पुनः विलुप्त हो गयी”।
बाल मोहन, “मैं बड़ा होकर आयुर्वेद का चिकित्सक बनूंगा। तुम्हे पता है हमारा आर्यावर्त पाँच हज़ार वर्ष पहले भी चिकित्सा के क्षेत्र में उन्नत था. शल्य चिकित्सा (सर्जरी) हमारे यहाँ उसी समय होती थी, जब बाकी विश्व के लोग पाषाण युग में नग्न विचरण करते थे. हमारा वेद दवाओं तथा जड़ी बूटी के फार्मूलों से भरा पड़ा है. आयुर्वेद का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता. प्राचीन दुर्लभ पांडुलिपियों को मुगलों व अँग्रेज़ों ने नष्ट करके हमारी चिकित्सा शास्त्र को मरणासन्न कर दिया है. मैं शोध करके उसे पुनर्जीवित करूँगा. जिससे ग़रीबों का मुफ़्त में इलाज हो. एलोपैथी के डाक्टर तो लुटेरे है. ग़रीब वहाँ जा ही नहीं सकता. नई दवाओं की खोज करेंगे तो उसे पेटेंट कर लेंगे. कोई और ना बना सके. मनमाने दाम पर महँगा बेच कर लोगों का खून चूसेंगे. भला ये भी कोई इंसानियत है. चिकित्सा जैसे पवित्र क्षेत्र का व्यावसायीकरण कर दिया है. लोगों की किडनी चोरी करके पैसा कमा रहे हैं. नरभक्षी कहीं के.”
रवि कपूर कहता है जवाब में, “हमारी इन्ही दकियानूसी विचारधारा के कारण इंडिया इतना पिछड़ा हुआ है. अँग्रेज़ों को देखो. हर चीज़ को डेवेलप करके कितना आगे बढ़ गये हैं. दवाओं को महँगा बेचेंगे तभी तो रिसर्च पर पैसा खर्च करके दूसरी अन्य दवाएँ व फार्मूले इनवेंट करेंगे. आयुर्वेद में कुछ नहीं रखा है. नीम हकीम ख़तरे जान. ये सब ओझाओं व झाड़ फूँक करने वालों का फील्ड है, जो सिर्फ़ अनपढ़ व गँवारों को बेवकूफ़ बनाने के लिए है. जड़ी बूटी व पत्ता चबाकर क्या किसी का इलाज हो सकता है? अगर ऐसा है तो गाय, भैंस व बकरी कभी बीमार ना हों. केमिस्ट्री के पढ़ाए फार्मूले क्या बकवास हैं? डाक्टर इलाज का महँगा पैसा लेता है तो क्या ग़लत है? वो ज़बरदस्ती तो किसीको बुला नहीं रहा है, मेरे पास ही आओ. ये तो सेल्फ़ मार्केटिंग स्ट्रॅटजी है. ज़्यादा पैसा लेगा तो उतनी उँची उसकी मार्केट वैल्यू होगी. इंसान की सेवा तो वो कर ही रहा है. फिर अपना मेहनताना क्यों छोड़े”.
इसी तरह दोनो उलझे रहते व घंटों वाद-विवाद करते। समय पंख लगा कर उड़ता गया. इंटर्मीडियेट का परीक्षाफल घोषित हुआ. बाल मोहन पूरे उ प्र के मेरिट लिस्ट में पाँचवाँ स्थान ले आया. रवि भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया. बाल मोहन ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के आयुर्वेदिक विभाग में उसी वर्ष प्रवेश लिया. रवि ने दो वर्ष तैयारी की और अंततः किंग जार्ज मेडिकल कालेज लखनऊ में एम बी बी एस का कोर्स पा गया.
बाल मोहन आयुर्वेदाचार्य बन कर गाँव लौटा, ग़रीबों की मुफ़्त चिकित्सा व मानवता का भाव लेकर. गाँव में लोग उसे बब्बन बुलाते थे. उसके पिता ने उसके विवाह का रिश्ता पहले ही पक्का कर रखा था. सुनते ही बब्बन बिदक गया. मुझे अभी आयुर्वेद में शोध करना है. लोगों की सेवा करनी है. अभी विवाह का वक्त नहीं आया है. सुनते ही पिता उबल पड़े. लड़का हाथ से गया, अंग्रेज बन गया है. खानदान में क्या और किसीने अपनी मर्ज़ी से शादी की है. क्या शादी के बाद पढ़ाई करना मना है. इत्यादि.
दबाव तथा संकोचवश बब्बन ने हाँ कर दी। दो बेटियाँ भी पैदा हो गयीं. बब्बन गृहस्थी व खेत खलिहान में उलझ गया. कभी कभार गाँव का कोई जॅन उससे बुखार खाँसी की दवा ले जाता था. जो मर्ज़ी आए दे दिया. पैसे या गेहूँ. या वो भी नहीं. बेचारा बड़ी ग़रीबी में रहने लगा. उधर रवि ने एम बी बी एस करने के बाद अपनी ही बैच की एक धनी लड़की से शादी कर ली. शादी के बाद धनी ससुर डाक्टर ने दोनो को उच्च शिक्षा हेतु अमरीका भेज दिया. कुछ वर्षों बाद दोनो ही स्पेशलिस्ट डाक्टर बन कर वापस भारत आए. ससुर का जमा जमाया क्लिनिक था. दोनो उसी में लग गये. धीरे धीरे दोनो की प्रैक्टिस जम गयी. पैसा बरसने लगा और चारो तरफ बड़ा नाम हो गया. कई वर्ष बीत गये. डाक्टर रवि की शोहरत बब्बन के कानो तक भी पहुँची. उसने पत्नी को गर्व से बताया, देखो ये मेरा सहपाठी था
पत्नी ने ताना मारा,”बेटियाँ जवान हो गयीं है. तुम्हें कुछ ख्याल भी है. आयुर्वेद के डाक्टर बनकर उनके लिए दो रोटी भी नहीं ला पा रहे हो. एम बी बी एस पढ़े होते तो हम भी फाका ना कर रहे होते. जाओ अपने दोस्त के पास. करोड़पति है. क्या दो चार लाख ना दे देगा”.
बब्बन का जमीर अभी मरा नहीं था। हाथ फैलाना उसके जीवन मूल्यों के विपरीत था. मगर इंसान औलाद के लिए स्वयं को भी बेच सकता है. सो ना चाहते हुए भी शहर की ओर चल पड़ा. सोचा पुराना दोस्त है. मिलकर खुशी होगी. नामी डाक्टर के घर रिक्शेवाले ने बिना किसी कठिनाई के पहुँचा दिया. आलीशान भवन सामने विशाल प्रांगण. अंदर हाल में सैकड़ों मरीज, अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहे थे. बब्बन स्वयं को बड़ा संकुचित व हीन महसूस कर रहा था. इस माहौल मे उसकी किसी से पूछने की हिम्मत नही हो रही थी.
किसी तरह हिम्मत जुटाकर नंबर लगाने वाले व्यक्ति के कान में जाकर धीरे से बोलने लगा,”भाई साहब मुझे डाक्टर रवि से मिलना है. हम दोनो एक साथ पढ़ते थे”.
वह व्यक्ति गुर्राया,”जल्दी डाक्टर को दिखाने का यह बड़ा पुराना नुस्ख़ा है. अगर जल्दी दिखाना चाहते हो तो एक हज़ार रुपये की अर्जेंट पर्ची कटवाओ. वरना चार सौ की पर्ची कटवा कर लाइन में चार घंटे बैठो”.
बब्बन के पास तो चार सौ भी नहीं थे. वो हज़ार कहाँ से देता. बड़ी ग्लानि, अपमानित व पश्चाताप की अवस्था में वहीं एक खाली बेंच पर बैठ गया. सोचने लगा, मैने भी क्यों नहीं एलोपथि पढ़ी ? रवि से ज़्यादा होनहार था पढ़ने में. ना मैं मानवता की सेवा ही कर पाया ना पैसे कमा पाया. सोचते सोचते ना जाने कब शाम हो गयी. क्लिनिक बंद करने का वक्त हो गया.
सारे मरीज जा चुके थे. तभी डाक्टर रवि बाहर निकले. हाल में एकमात्र व्यक्ति को देखा तो सोचा यह मरीज छूट गया है. व्यवहारिक थे, इसलिए इतना नाम कमाया. पास आकर बोले,” जनाब आपका कौन सा नंबर है? दिखा चुके या दिखाना है?”
बब्बन शूटेड बूटेड व्यक्ति को देख सकपकाकर उठ खड़ा हुआ। हड़बडाकर बोला,”माफ़ कीजिएगा साहब. बस ज़रा आँख लग गयी थी. मैं मरीज नहीं हूं. डाक्टर रवि मेरे बचपन के सहपाठी थे. मुहब्बत वश मिलने चला आया. मगर मुझे नहीं पता था, अपने मित्र से मिलने के लिए एक हज़ार रुपये देने होंगे. इसलिए वापस जा रहा हूं”.
रवि के माथे पर बल पड़ गये. पहचानने की असफल कोशिश के बाद बोले,”भैया अपना नाम तो बताना ज़रा”.
बब्बन,”क्या करेंगे आप जानकार. अब तो मैं स्वयं अपना पुराना नाम भूल गया हूं. खैर मेरा पुराना नाम ’बाल मोहन शुक्ला’ है”.
रवि को जैसे हज़ार वॉल्ट का झटका लगा. बॉल मोहन को भला वो कैसे भूल सकता था. कितनी बार अपनी पत्नी से उसका जिक्र किया था. उ प बोर्ड का टॅपर उसका सहपाठी था. दौड़कर उसे गले लगाया. बड़े ही उत्साहित हो बोलने लगा,”यार बालू तू नहीं सुधरेगा. अपनी पुरानी आदतों से. भला तुझे और मुझे मिलने से कौन रोक सकता है”.
बड़े प्यार से उसका हाथ थामा। अपनी लेक्सॅरी कार में बिठाया व कोठी में लेकर आए. खूब आव भगत की, खिलाया पिलाया. पत्नी से मिलवाया. रात बड़ी देर तक दोनो बातें करते रहे. रात भर बब्बन वहीं रुका. मगर रवि से पैसे माँगने के लिए ज़बान ने साथ नहीं दिया. सुबह रवि ने उसके गाँव का पता ठिकाना अपनी डायरी में नोट किया. फिर अपनी कार से बस स्टॅंड तक पहुँचाया.
समय पंख लगा कर उड़ता गया. रवि के ससुर अपनी पहुँच से मेडिकल बोर्ड के चेयरमैन बन गये. रवि का भी बड़ा नाम हो गया. पैसा व शोहरत दोनो. उसके ससुर ने उसका नाम मानवता की सेवा के लिए दिए जाने वाले ’गाँधी पुरस्कार’ के लिए पास करवा लिया. अख़बारों में फोटो छपी. रवि ने पुरस्कार वितरण समारोह में शामिल होने के लिए एक निमंत्रण बाल मोहन को भी भेजा.
बब्बन खूब सफेद धोती कुर्ता पहन समारोह में शामिल होने दिल्ली पहुँचा. कार्ड दिखाकर अंदर भी चला गया. रवि बड़ी आत्मीयता से मिला. पुरस्कार वितरण के बाद लोग खाने के लिए बाहर लान में इकठ्ठा हुए. बब्बन भी एक दरख्त के पास जाकर खड़ा हो गया.
तभी केटरिंग मैनेजर आकर डाँटने लगा,” ओये भैये, तू यहाँ खड़ा होकर कामचोरी कर रहा है. वहाँ खाना क्या तेरा बाप सर्व करेगा. चल भाग कर प्लेटें लगा”.
बब्बन को काटो तो खून नहीं। चुपचाप वहाँ से खिसक लिया, बिना किसीसे से मिले, बिना खाए. बड़ा ही व्यथित व आत्मग्लानि से छुब्ध. सोचते चला जा रहा था,”मेरे जीवन का उद्येश्य था, निःस्वार्थ मानवता की सेवा करना. मगर पुरस्कार कौन ले रहा है. उसके पास मानवता का पुरस्कार भी है, पैसा भी है और शोहरत भी. मुझे माया मिली ना राम.”
समारोह से लौटने के बाद बब्बन ने अपना खेत बेचकर बेटियों की शादी कर दी. ग़रीबी व तंगी और बढ़ गयी. पत्नी कुपोषण से बीमार हुई और कुछ दिन में चल बसी. बब्बन के लिए जीवन में अब क्या था. सो घर भी बेचकर-बाचकर काशी विश्व विद्यालय के पास एक आश्रम में रहने लगा. आयुर्वेद विभाग में मुफ़्त काम करने लगा. थोड़ा बहुत कोई मरीज दे देता तो उसी में दाल रोटी वरना फंका. पुस्तकालय में बैठ घंटो गुज़ार देता, वेद ग्रंथ की ऋचाओं में फार्मूले ढूंढता.
इधर रवि ने जंदगी का भरपूर आनंद लिया. अच्छे बुरे हर तरह के लुत्फ़ उठाये। मगर अचानक उनका स्वास्थ गिरने लगा. टेस्ट कराया तो एच आई वी पॉज़िटिव निकला. बड़ी दवा की. अमरीका तक के कई चक्कर लगाए. मगर एड्स की कोई दवा ना मिली. धीरे धीरे वो बिस्तर पर पड़ गये.
खबर बब्बन तक भी पहुँची। बब्बन अपने शोध के काफ़ी करीब पहुँच चुका था. मगर रिग वेद के तिर्यक सूत्र का संस्कृत में लिखा अनुवाद नहीं कर पा रहा था. पुरी के शंकराचार्य से अपायंटमेंट लेकर मिलने गया. अंततः दोनो ने मिलकर उसका अर्थ ढूँढ लिया. वापस काशी आकर बब्बन ने सारे आँकड़े इकट्ठे किए. सारी जड़ी बूटियाँ संकलित करने में महीनो लग गये. कुछ हिमालय से कुछ आसाम से लानी पड़ीं. अंततः उसने अपनी एड्स की दवा विकसित कर ली. मगर दवा का प्रचार करने के लिए उसके पास पूंजी नहीं थी. वो कोई बड़ा डाक्टर तो था नहीं. बड़ा मायूस हो गया. कैसे मानवता की सेवा करे.
आख़िरकार वो दवा लेकर रवि के पास पहुँचा. बोला,” मित्र तुम बीमार हो फिर भी मदिरापान करते हो. ये एक शीशी है जो तुम्हारे लिए लाया हूं. इसे मदिरा में मिला कर डाल लिया करना. मदिरा की कड़वाहट कम हो जाएगी. समझ लो तुम्हारे मित्र की आखरी ख्वाहिश यही है. क्योंकि अब मैं सन्यास ग्रहण करने जा रहा हूं.”
रवि ने बब्बन की बात मान ली. मरना था ही इसलिए मदिरापान का भी आनंद लेते रहे. मगर दो चार बूँद बब्बन का आसव भी मिला लेते थे. एक महीने बाद रवि की तबीयत संभलने लगी. शरीर में शक्ति का संचार होने लगा. उठकर चलने फिरने लगे. एच आई वी टेस्ट करवाया. टेस्ट का रेजल्ट देखकर सन्न रह गये. यकीन नहीं हुआ. टेस्ट नेगेटिव था. मेडिकल हिस्ट्री का चमत्कार।
वो समझ गये, ये बब्बन की शीशी का कमाल है. बोले,” हाँ बाल मोहन, तुम जीत गये. तुम्ही सच्चे मानवता वादी हो. एक बार मिल जाओ. दवा का फार्मूला बताओ. मैं इस दवा को तुम्हारे नाम पेटेंट करवा के तुम्हारा नाम दुनिया में सदा के लिए रोशन कर दूँगा”.
बड़ी खोज खबर ली. मगर बब्बन का कहीं कोई पता ना चला. वो तो मानव और मानवता से दूर जा चुका था. इस तरह एड्स की आयुर्वेदिक दवा, विकसित होने के साथ ही, पुनः विलुप्त हो गयी”।