Feb 4, 2020

जीवन चक्र


नगर के सरस्वती शिशु मंदिर की कक्षा तृतीय में सारे बच्चे विह्वल हो के गीत गा रहे थे,

“कल की छुट्टी परसों आना,
चना भुनाकर लेते आना,
पंडित जी को देते आना”.

छुट्टी मात्र कल की नहीं थी अपितु ग्रीष्मकालीन अवकाश था दो मॉस का. अभी-अभी विद्यालय का चपरासी कक्षा में नोटिस लेकर आया था जिसे अध्यापक ने पढ़कर सुनाया. अतः अध्यापक के जाने के पश्चात समस्त विद्यार्थियों का समवेत स्वर में उपर्युक्त हर्षोल्लासपूर्ण गीत गान प्रारम्भ हुआ.

यूँ तो सभी बच्चे हर्षित थे, लेकिन सबसे ज्यादा उत्साहित था एक विद्यार्थी ‘धर्मू’. इसे ग्रीष्मावकाश में अपने गाँव जाकर रहने से जो अतीव प्रसन्नता प्राप्त होती थी, वैसा किसी भोगी को इंद्रलोक में भी न मिले. यह प्रसन्नता अकारण नहीं थी. गाँव में उसकी माँ थी जो खेत खलिहान संभालती थी. वर्ष भर माँ से विलग रहने के बाद मिलने का बालसुलभ मोह. खूब सारे बालसखा थे गाँव के. चाचा-ताऊ के बच्चे जो दूर नगर में अध्ययनरत थे, वो भी गाँव आ जाया करते थे इस अवकाश में. और यदि किसी का विवाह भी आन पड़ा इस बीच, फिर तो नाते रिश्तेदार भी आ के जम जाते महीने भर. उन दिनों परिवार बड़े होते थे, अतः प्रतिवर्ष किसी न किसी का शादी-विवाह पड़ ही जाता था. खूब सारे लोग और खूब धमा चौकड़ी हंसी-ठट्ठा. घर के बाहर बड़ा सा खुला दुआर था और अन्दर दो आँगन, एक छोटा आँगन व एक बड़ा. यह दुआर वैसे तो खलिहान रखने, मड़ाई करने, गन्ने का रस पेरने, इत्यादि के काम आता था. लेकिन ग्रीष्म ऋतु में खलिहान के कार्य समाप्त हो जाते थे. तब यह बन जाता था बच्चों का क्रीडा मैदान. छोटे आँगन में वेदिका थी जिसके ऊपर विवाह मण्डप लगता था और बड़े आँगन में रात्रिकाल के वक्त औरतों व बच्चों के लिए चारपाइयाँ बिछ जातीं. उसी बड़े आँगन में एक कुआँ भी था जो नहाने धोने के काम आता.

दुआर वाले मैदान के एक ओर विशाल नीम का वृक्ष था जिसके नीचे चबूतरा बना था. चबूतरे के तीन ओर किनारे पर गाय भैंस बैल बांधे जाते थे. ऊपर हौज बने थे उन्हें भूसा-खाना परोसने के लिए. चबूतरे के ऊपर चारपाइयाँ पडी होती थीं. ग्रीष्म काल की पहली फुहार में जब मदमस्त पुरबिया बयार चलती और घर के अन्दर उमस होती तो इस नीम की छाया का सुख पाँच-सितारा होटल से कहीं बेहतर हो जाता था. यहाँ चौपाल लगती थी गाँव की. ताश के फड बिछ जाते. दहला पकड़, बादशाह पकड़, कोट पीस, ट्वेंटी नाइन जैसे ताश के खेल की बाजियाँ चलती रहतीं पूरी दोपहरी. कबड्डी की बदी-बदा होती चबूतरे के नीचे चौथी तरफ जिधर पशु नहीं बांधे जाते थे. कोड़ा जमाल होता था, ”कोड़ा जमाल खाए, पीछे देखे मार खाए”. और यदि नीम से जी भर जाए, तो उसी के बगल में एक बरगद का उतना ही विशाल वृक्ष था जिसकी शाखाएं व जटाएं नीचे जमीन तक आती थीं. कहते हैं इस नीम व बरगद की आयु गाँव में किसी को ज्ञात न थीं. कोई बोलता दो सौ वर्ष कोई तीन सौ. बच्चे उन बरगद की जटाओं पे झूला झूलते थे. शाखाओं पे चढ़ के चिल्होर खेलते थे. अब चूँकि ग्रीष्म ऋतू में धूप अत्यंत तीव्र होती थी, तो पेड़ों के नीचे ही रहा जा सकता था या खेला जा सकता था. हाँ संध्याकाळ में बड़े मैदान वाले खेल प्रारम्भ हो जाते, जैसे क्रिकेट, वालीबाल, फ़ुटबाल, गुल्ली-डंडा, झाबर इत्यादि.    

नीम व बरगद से भी जी भर जाय तो बच्चों की टोली चल देती थी आम के बाग़ में. खोज शुरू होती थी पेड़ पे लदे आमों में से पके पीले आम ढूंढ के निकालना. फिर उसे तोड़ना या पत्थर ढेला मारकर गिराना. गिरने के बाद आम की लूट और बंदरबाँट. उन्हीं आम के पेड़ों के मध्य कुछ जामुन के वृक्ष भी थे. गाँव में यह प्रचलन था की जामुन का पेड सबके लिए खुला था. यानी किसी के पेड़ का फल कोई भी खा सकता था. सारे दिन बच्चों की टोली घूम घूम के हर बाग़ के जामुन के पेड़ों पे चढ़ के ताजा तुरंत का पका फल खाती थी. उस काले जामुन का जो स्वाद मिलता था वो अवर्णनीय है. बड़े बूढ़े चिल्लाते रहते, “धर्मू मत चढो. जामुन के पेड़ की डाल कमजोर होती है. टूट जायेगी”. मगर धरमू व अन्य बच्चे कहाँ सुनते.

पेड़ पे चढ़े दर्जनों बच्चे धम्म-धम्म नीचे कूदते यदि भोंपू की आवाज सुनाई दे जाती. ये आवाज आती एक साइकिल सवार से जो पीछे कैरियर पे लकड़ी के बक्से के अन्दर आइसक्रीम ले के चलता था. यह आइसक्रीम रंगीन पानी में सिक्रीन डाल के जमाया हुआ बर्फ होता था जिसके अन्दर एक लकड़ी की डंडी होती थी पकड़ने के लिए. साधारण आइसक्रीम तीन पैसे व विशिष्ट वाली पांच पैसे की मिलती थी. उस तपती दोपहरी में बच्चों को वो साधारण आइसक्रीम अमृत जैसी लगती थी. पैसे तो कोई ले के चलता नहीं था, अतः ललचाई नज़रों से सारे बच्चे एक दूसरे का मुँह देखते. तभी एक चतुर बच्चा ‘गप्पू’ जा के दो किलो आम ले आता और उस बर्फ वाले से ‘बार्टर डील’ कर लेता पांच आइसक्रीम के लिए. वो बच्चा पाँच आइसक्रीम पा के विश्व का सबसे बड़ा शहंशाह बन जाता और सारे बच्चे उसके गुलाम. एक अदद आइसक्रीम के लिए उसकी हर बात मानने को तैयार.

आमों के पकने का समय आने पर उन्हें कच्चा ही तोड़ लिया जाता और झउआ में भूसे के बीच रख के ऊपर से बोरा डाल के पैक कर दिया जाता था. झउआ बनता था अरहर के पौधे के तने से, जिसे करीने से बुनकर एक बड़े पात्र का आकार दे दिया जाता. इस पात्र से खेती का सामान जैसे भूसा इत्यादि की ढुलाई होती या पशुओं को चारा परोसा जाता था. इस पाल में डले आम को पकने में हफ्ते-दस दिन लग ही जाते थी. लेकिन धर्मू को इतना धैर्य कहाँ था. चार-पाँच दिन पश्चात ही वो चुपके से उस पाल वाले कक्ष में प्रवेश कर जाता था भरी दोपहरी में जब घर की औरते लू की वजह से सो रही होती थीं. आराम से भर पेट आम खाता, थोड़े कम पके ही सही. गुठली और छिलके उसी झउआ में वापस डाल चुपके से निकल लेता. समय पूर्ण होने पर माँ जब पाल खोलती तो आधे आम व आधी गुठलियाँ निकलतीं.

अब ऐसा सुख धर्मू को कहाँ मिलता नगर में. वहाँ तो घर से बाहर निकलते ही पक्की सडक और उसपे चलते वाहन. एक बार घर में ऐसे हे खेलते हुए गेंद लेने बाहर भागा तो साईकिल से टकरा गया. दूसरी बार गया तो रिक्शे से. भला हो उस जमाने में लोगों के पास बड़ी गाड़ियाँ क्रय शक्ति के बाहर थीं वरना टकराने का अंजाम गंभीर होता. नगर में न तो कोई पेड़ बाग़ बगीचे, न ही गाँव के बाल गोपाल. ज्यादा लोग मोहल्ले में उसे जानते नहीं थे, और मोहल्ले के बाहर तो कोई भी नहीं. जबकि गाँव का हर घर उसे या उसके परिवार को जानता था. जेठ की दोपहरी में आम के बाग़ में घूमते हुए प्यास लगने पे किसी के भी घर पहुँच जाते, और वो लोग सभी बच्चों को चुल्लू में पानी पिला देते थे. इसलिए धर्मू को नगर में रहना फूटी आँख नहीं सुहाता था. जब भी मौक़ा मिलता, हर अवकाश में पिता के साथ गाँव भाग लेता. और वापस आने के वक्त माँ से लिपटकर रोता पीटता नगर न जाने के लिए. माँ का ह्रदय विदीर्ण हो जाता. कहती चलो ठीक है, “मैं कल बाबूलाल के साथ भिजवा दूंगी”. मगर पिता इस मामले में बहुत ही अनुशासन पसन्द. एक भी विद्यालय का पाठ नहीं छूटना चाहिए बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए.

समय का पहिया घूमता गया. धर्मू बड़ा हुआ. प्राथमिक पाठशाला से माध्यमिक में गया और फिर उच्च-माध्यमिक. पत्र-पत्रिकाएं पढता. हिंदी फ़िल्में देखता. क्रिकेट कमेंटरी सुनता. एक बार उसे महानगर प्रयाग जाने का अवसर मिला, तो बड़े महानगर की चकाचौंध से प्रभावित हुआ. चौड़ी सड़कें, रात में रोशन जगमगाता सिविल लाइन. साथी विद्यार्थियों से सुना था दिल्ली बंबई जैसे महानगर और भी ज्यादा चमकीले व आकर्षण के केंद्र हैं. किसी सहपाठी ने कहा, पेरिस में शीशे की सड़कें हैं. तो दूसरे ने बोला वेनिस में पानी की सड़कें हैं. ये सब सुनकर धर्मू किसी कल्पित सपनों की दूसरी दुनिया में पहुँच जाता और सोचता मैं भी किस तरह उन सब बड़े स्थानों को देखूँ. समय बदला, वो बड़ा होता गया और उसकी सोच भी बदलती गयी. गाँव का आकर्षण कम होता गया. नगरीय आकर्षण बढ़ता गया. ग्रामवासी उसे गँवार पिछड़े लगने लगे. महानगरीय लोग विकासशील व संभ्रांत लगे. गाँव की भाषा अवधी त्याग उसने हिंदी बोलना शुरू किया. कालान्तर में हिंदी भी पिछड़ी लगी और उसने अंगरेजी में अपना भविष्य ढूँढना प्रारम्भ किया. तीव्र अच्छा जगी कैसे और किस तरह शीघ्रातिशीघ्र मैं भी महानगरों की राह पकडूँ, और यदि हो सके तो उससे भी आगे विदेश की.

जहाँ चाह वहाँ राह. धर्मू अभियंत्रण (इंजीनियरिंग) महाविद्यालय में प्रवेश पा गया जो उस समय अत्यंत प्रतिष्ठित माने जाते थे. पूरे प्रदेश में मात्र आधा दर्जन संस्थान थे और उनमें प्रवेश पाने के लिए कठिन संग्राम होता था प्रतिभावान विद्यार्थियों के बीच. इंजीनियरिग पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करने के पश्चात नौकरी मिल गयी. जीवन के अभीष्ट साधन व् भोग विलास की सारी सुख सुविधाएं उसे शनैः शनैः प्राप्त होती गईं. क्लब, स्वीमिंग पूल, टेनिस, बिलिअर्ड, डांस फ्लोर, देर रात्रिकालीन पार्टियाँ, मोटर साईकिल, कार इत्यादि सभी कुछ. कुछ वर्ष कार्य करने के पश्चात उसकी इच्छा हुई महानगरों की ओर जाने की और यदि हो सके तो उससे भी आगे विदेश. अंततः उसे अपनी मंजिल मिल गयी. महानगर दिल्ली में एक प्रतिष्ठान मिला जिसका व्यवसाय कई देशों में फैला हुआ था. दिल्ली में गृहस्थी जमाई, घर क्रय किया. विदेशों में कई दौरे लगे. यूरोप जापान जैसे विकसित देशों को करीब से देखा परखा. कई देशों में लंबा प्रवास भी हुआ. दो दशक निकल गए इसी भागमभाग में. काफी पैसा कमाया, सारे भौतिक साधन इकठ्ठा किये. लेकिन कहते हैं की हर यात्रा का एक अंत होता है. धीरे-धीरे उसे ये जीवन नीरस लगने लगा. 

सुबह तड़के घर से निकलता और दिल्ली महानगर की सडकों पे जाम में जूझता हुआ डेढ़ घंटे में आफिस. यही होता वापसी में. सूर्यदेव के दर्शन न होते. कैल्शियम व विटामिन-डी की कमी से अस्थि व जोड़ों के रोग हो चले. प्लास्टिक के पैकेट के दूध में लोगों ने तरह तरह की खामियाँ निकालनी शुरू कीं.

धर्मू कहता, ”हमारे गाँव में गाय रोज दस लीटर शुद्ध दूध देती है. मिलावट का नाम नहीं. लेकिन कोई पीने वाला नहीं है. और यहाँ हम सिंथेटिक दूध पीकर मर रहे हैं. पुरखों ने कई बीघे जमीन हड्डी तोड़ मेहनत से कमा के हमारे लिए रख छोडी और हम हैं की यहाँ महानगर में फ़्लैट खरीद के इकट्ठा कर रहे हैं. जब हमने अपने पुरखों की छोड़ी जमीन नहीं प्रयोग की, तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमारी उपार्जित संपत्ति का उपयोग भला क्यों करेंगी?”

महानगरों में लोगों की भीड़ तो बहुत ज्यादा लेकिन सब अनजान और अपनी अपनी छोटी सी दुनिया में मग्न. विदेशों में तो हालत और भी ज्यादा नाजुक. कार्यालय से आकर घर से बाहर कदम रखता सांध्य-भ्रमण के लिए तो सारे मार्ग सुनसान. वहाँ पैदल चलने का रिवाज ही न था. न कोई बोलने वाला न बात करने वाला. फेसबुक व वाट्सएप की आभासी दुनिया में व्यस्त हुआ. पांच हजार मित्र बन गए. रचनात्मक कहानियों व फोटो पे सैकड़ों लाइक्स व कमेन्ट आते. कुछ वर्ष ये सब अच्छा लगा. लेकिन फिर धीरे धीरे वास्तविकता अपने पर्त उधाडती चली गयी. यह सब एक दिवास्वप्न लगने लगा. स्वप्न समाप्त, आँखें खुलीं तो सब कुछ गायब. न कोई भौतिक क्रियाकलाप न मेल-मिलाप. आँखें अलग से खराब होतीं दिन भर मोबाइल पे गडाने से.

धर्मू की अब इच्छा हो चली अपने वही गाँव वाले बचपन के दिन जीने की. पत्नी से कहता, “बेकार में इतना बड़ा घर बनवा लिया दिल्ली में. क्या करना है अब वहाँ रह के सेवानिवृत्ति के पश्चात? चालीस वर्ष नौकरी कर ली, कितना करूँगा? और यदि करना भी चाहूँ तो क्या स्वास्थ इसकी अनुमति देगा? विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित महानगर है. दीवाली के आसपास सात सौ का आंकड़ा पार कर जाता है प्रदूषण-स्तर. गाँव देहात में नब्बे वर्ष जी सकने वाला धर्मू इस महानगर में सत्तर भी नहीं पहुँच पायेगा. मैं तो अब गाँव ही जाऊँगा. वहाँ नीम के नीचे शुद्ध आक्सीजन का सेवन करूँगा. लोगों के साथ दहला पकड़ खेलूँगा. गाय का शुद्ध दूध पिऊँगा. अपने खेत का बिना यूरिया वाला अनाज खाऊँगा. सीधे पेड़ की डाल से तोड़ आम अमरूद जामुन खाने का तो जैसे स्वाद ही भूल गया हूँ. गाँव की चौखट से निकल किसी भी तरफ चल दूंगा. किसी के भी दरवाजे पे बैठ जाऊँगा, वहीं लग जायेगी चौपाल. हर कोई तो जानता है वहाँ हमें और हमारे खानदान को. रामलीला व दशहरे का मेला देखूँगा. माघ महीने में कुम्भ मेला में एक महीने का कल्पवास करूँगा. बचपन वाले सारे बालसखाओं को एकत्र करके फिर से एक फ़ौज बनाउँगा. अब मैं वहीं गाँव में एक घर बनवाऊँगा”.

पत्नी ने कहा, “मुझे नहीं रहना वहाँ. तुम्हें रहना है तो घर बनवाने की क्या जरूरत है. एक कमरा तो है ही हमारा अपने पुश्तैनी घर में. जाओ कुछ दिन रह के देखो. यदि अच्छा लगे तो फिर घर भी बनवा लेना”.

धरमू, “ अच्छा क्यों नहीं लगेगा? वहाँ की मिटटी और हवा में हमारे पुरखों की सम्मोहनकारी सुगंध है. बहुत पहले मैं वहीं अपना बचपन छोड़ आया हूँ. अब इस काया में उसी बचपन के किरदार को प्रविष्ट कराने की तीव्र अभिलाषा है”.

सेवानिवृत्ति पश्चात धर्मू कुछ दिन अपने फण्ड इत्यादि को व्यवस्थित करने में लगे रहे. जब सब कुछ निपट गया तो अपने गाँव गमन के लिए ट्रेन में विराजमान हुए. रात्रिकालीन यात्रा पश्चात सुबह तड़के उतर गए प्लेटफोर्म पे. भतीजा वहाँ पहले से ही स्वागत में कार लिए खडा था. उन्हें याद आया अपना बचपन. कैसे इसी स्टेशन पर लोगों को लेने के लिए हमारी पुरानी बैलगाड़ी आया करती थी. एक किमी पक्की सडक छोड़ने के पश्चात कच्ची सड़क जाती थी एक और किमी घर तक. उस सड़क में कुछ जगह गड्ढों में पानी भर जाता था, तो धर्मू भी कई अन्य लोगों के साथ बैलगाड़ी के पहिये को घुमाने के लिए जोर लगाता हुआ चिल्लाता था, “इत्ती बित्ती भईसा, जोर लगा के हईंसा”.

और कुछ ज्यादा सोच पाता की कार घर के दरवाजे पे आ के रुकी. जिस रास्ते को तय करने में बैलगाड़ी घंटे लगाती थी, वो दो मिनट में सर्र से उड़ गया. पूरी सड़क पक्की और चौड़ी हो चुकी थी घर तक. धर्मू हर्षातिरेक से उछल पडा. गाँवों में भी विकास हो गया. अब रहने में भला क्या परेशानी है. उतरे और बैठ गए उसी नीम के नीचे चबूतरे पे. चारो तरफ जायजा लिया. कच्चे मकान सब गायब हो चुके थे और उनकी जगह या तो रिक्त थी या पक्के मकान आ गए थे. चबूतरे के चारो तरफ के जानवर गायब हो चुके थे. केवल एक गाय बंधी थी. पूछने पे पता लगा पूरे गाँव में एक भी बैल नहीं हैं. सारी खेती ट्रैक्टर से होती है. धर्मू थोड़ा चिंतित हुआ. स्वास्थ्योपयोगी ऑर्गेनिक अनाज उगाने के लिए गोबर की कम्पोस्ट खाद कैसे मिलेगी बिना बैलों के?

खैर कोई बात नहीं चलो चाचा ताऊ के घर वालों से मिल लेते हैं. बड़े भाई ने बताया, “कोई नहीं रहता अब”.

“क्यों कहाँ गए प्रधान जी? उन्होंने तो नौकरी छोड़ खेती बाडी को ही अपना जीवन उद्द्येश्य मान इस मिटटी से जुड़ गए थे”.

भाई, “वो भी बनारस में मकान बना के वहीं रहते हैं अब”.

धरमू, “मेरे बालसखा बाबा और चुन्नन तो होंगे ही?”

“बाबा की रंजिश हो गयी थी तुर्कों से. उन्होंने बीच बाजार इन्हें बम से उड़ा दिया. और चुन्नन की किडनी खराब होने से कई वर्ष पहले मौत हो गयी”.

धर्मू को झटका लगा, “किडनी तो महानगरों की बीमारी है, यहाँ गाँव में कैसे सुनाई दे गयी?”

“अब गाँव में भी शुगर और हृदयाघात के रोग आम हो चुके हैं. लोग बाग़ हल चलाते नहीं. सब कुछ मशीनों से होता है. कई लोग तो डाक्टरों के कहने पे सुबह टहलते हुए मिल जायेंगे सडक पे”.

आरंभिक निराशा के बाद भी धर्मू उठ खडा हुआ पूरे गाँव का जायजा लेने के लिए. अपनी निकर पहनी और चल पडा गाँव की पगडंडियों पे. कई जगह बच्चे दिखे. नौजवान भी दिखे. किसी ने धर्मू को न पहचाना, न ही धर्मू ने किसी को. काफी घंटे भर घूम टहलने के पश्चात भी धर्मू को वो दृश्य अवलोकित न हुआ, जिसकी उसे तलाश थी. वो तलाश रहा था कबड्डी, चिल्होर, गुल्ली-डंडा, झाबर, कोड़ा-जमाल. चलो ये गाँव के खेल न सही कोई क्रिकेट फुटबाल ही दिख जाय. मगर निराशा ही हाथ लगी. हाँ कुछ जगह लोगबाग दिखे चाय-पान की दुकानों पे गप्प मारते हुए. ज्यादातर लोग अकेले दिखे मोबाइल पे आँखें गडाए हुए.

संध्याकाल में भाई के साथ अपने पुराने मंदिर कुटी के लिए चल पड़े. इस कुटी के प्रांगण में बचपनकाल में रामलीला होती थी. पीछे वृहद् मैदान में दशहरे का मेला लगता था. रावण मारने व जलाने के लिए राम-लक्ष्मण की पालकी यहीं से उठती थी. मंदिर के पुजारी ने बताया, रामलीला तो काफी पहले ही बंद हो चुकी थी. राम पालकी भी अब यहाँ से नहीं उठती. मेला मैदान दूसरे ग्राम-समाज के भौगोलिक परिसीमन में चला गया. इस चक्कर में काफी झगड़ा फसाद हुआ बर्चस्व को लेकर, कि मेला प्रबंधन व रावण-दहन किसके हाथ में होगा. इसलिए जिला प्रशासन ने रावन दहन पे रोक लगा दी. बस मेला लगता है, रावण-दहन नहीं होता.

धर्मू बड़ा दुखी हुआ फिर भी हिम्मत नहीं हारी. अगले दिन आम के बाग़ की राह पकड़ी. मौसम तो नहीं है आमों का, लेकिन थोड़ी पुराने दिनों की याद ताजा हो जायेगी. कैसे किस डाल पे हम भागते फिरते थे आम तोड़ने के लिए. वो नशपतिअहवा आम का पेड़ जिससे चुन्नन गिरे और जीवन भर लंगडाते फिरे. लेकिन आम के बाग़ में पहुँच के सन्न रह गया. वो घना बाग़, जहाँ दिन में भी जमीन पे प्रकाश नहीं आता था, जहाँ बंदरों के डर से हम बच्चे दिन में भी आने से डरते थे, अब खेत में परिवर्तित हो चुका था. सारे पेड़ काटे जा चुके थे. कुछ बागों में नाम मात्र के वृक्ष बचे थे. मायूस हो वापस घर आ गया.

दोपहर हो चली. सोचा चलो पम्पिंग सेट की टंकी में जा के स्नान किया जाय. यह बचपन में गाँव का स्वीमिंग पूल हुआ करता था. कुएँ से मोटी लोहे की पाइप से पानी निकलकर पहले टंकी में भरता, फिर वहाँ से गिरकर खेत में जाता नालियों के जरिये. लेकिन वहाँ पहुँच के देखा टंकी तो यथावत थी, लेकिन कुआँ और पाइप गायब हो गए थे. भाई ने बताया, “अत्याधिक जलदोहन की वजह से भूजलस्तर नीचे गिरता चला गया. सारे कुएं सूख गए. चाँपाकल बेअसर हो गए. सभी लोगों ने सबमर्सिबिल पम्प लगवा लिए. इसमे एक पाइप डाली जाती है काफी गहरी और वाटर पम्प उसके अन्दर काफी नीचे होता है जलस्तर के समीप ही. पाइप से सीधे खेतों में पानी पहुंचाया जाता है. टंकी में संचित करने की आवश्यकता ही नहीं है”.

धर्मू अब काफी निराश हो चुका था. घर आ के अपने कक्ष में गया और मोबाइल निकाल लिया. सोचा चलो आधुनिकता वाली जिन्दगी ही जिया जाए. फेसबुक और व्हात्सप्प खोला. लेकिन डाटा ही नहीं चल रहा था. बाहर आया दुआर पे. वहाँ भी सिग्नल न मिला. भाई ने बताया दूर मंदिर पे जाना पडेगा तब चलेगा. धर्मू ने कहा, “आप वाई-फाई क्यों नहीं लगवाते?”

भाई, ”लैंडलाइन सबने कटवा दी है. वैसे भी यहाँ बहुत निम्न गति मिलती है वाई-फाई पे. उसका लगाना न लगाना एक बराबर है. आप्टिकल फाइबर से वाई-फाई देने वाला कोई है नहीं यहाँ. ”.

धर्मू ने अपना सर पटक लिया. अरे ये कहाँ पहुँच गया मैं? ये कौन सी जगह है? यहाँ न आधुनिकता है न प्राचीनता. पुराने जान पहचान वाले काफी लोग स्वर्गवासी हो गए. नए नौजवान नगरों को पलायन कर गए बेहतर भविष्य की तलाश में. जो कुछ बचे खुचे हैं वो हमें पहचानते ही नहीं. पुरानी बचपन वाली संस्कृति तो रही नहीं. नगरों की आधुनिकता भी नदारद है. ये परिवर्तित ग्राम अपनी अस्मिता और नए पहचान की तलाश में भटक गया है शायद कहीं. ऐसे ही सभी लोग यदि नगरों को पलायन करते गए तो खेतों में फसल कौन उगाएगा? क्या हम मशीनों को ही खा के पेट भरेंगे? घर के घर सभी खाली पड़े हैं गाँवों में. हमारे अपने ही घर में अगली पीढी में कोई रहने वाला न बचेगा. हमारे बच्चों को तो ये भी नहीं पता उनके खेत कितने हैं, कहाँ हैं, उनकी सीमा कहाँ तक है. परिस्थिति बहुत ही चिंतनीय और विकट है. स्वयं धर्मू का अपना पुत्र गाँव तो क्या देश ही छोड़ निकल गया. गहन विचारों में मग्न धर्मू खेतों के मध्य पगडंडियों पे चलते कहीं दूर निकल गये. तभी मोबाइल की घन्टी बजी. उठाने पे पत्नी की आवाज उधर से आई.

“अजी सुनते हो. हमारी सोसाइटी के वरिष्ठ-नागरिकों का ग्रुप १५ दिन की पिकनिक यात्रा पर जा रहा है कुलू-मनाली. मैंने भी अपना नाम दे दिया है. तुम तो इस बीच आओगे नहीं, फिर भी मैं फ्लैट की चाभी बगल वाले अग्रवाल जी के यहाँ छोड़ जाऊँगी”.

धर्मू ने कहा, “चाभी देने की कोई जरुरत नहीं है”.

पत्नी,” क्यों भला?”

धर्मू, “मैं भी साथ चलूँगा. कल वापस आ रहा हूँ”.

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