क्या अहिंसा नामक अस्त्र वास्तव में अमोघ है?
क्या वास्तव में अंग्रेज जैसी आधी दुनिया पे राज करने वाली महाशक्ति अहिंसक
चरखे से डर के भाग गई?
क्या हमारे सनातन संस्कृति में अहिंसा का पाठ वर्णित
है?
हिन्दू धर्म में भगवान ने दस अवतार लिये। किसी ने अहिंसा के मार्ग पे चलते
हुये दानवों के आतंक का अंत नहीं किया। राम ने असंख्य असुरों का संहार किया लंका
पहुँचने से पहले ही। लंका में तो सारी राक्षसी सेना का ही वध कर दिया। कृष्ण ने तो
धनुष बाण रख चुके अहिंसक होते अर्जुन को शस्त्र उठाने हेतु पूरे गीता का प्रवचन
सुना डाला।
परशुराम ने अस्त्र उठाया, नरसिंह ने हिरनाकश्यप का वध
किया। शिव तो ताण्डव करने और प्रलय लाने के लिए जाने ही जाते हैं। दुर्गा, काली जैसी देवियों ने भी अस्त्र उठाए हैं। लोग उदाहरण देंगे, अहिंसा परमो धर्मः। किन्तु चालाकी से दूसरी पंक्ति छुपा दी जाति है, धर्म हिंसा तथैव च। पूरा अर्थ है,
अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है,
धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उस से भी श्रेष्ठ है !!
मैं यह नहीं कहता कि सर्वदा हिंसा ही करते रहो, किन्तु
यह अवश्य कहता हूँ जिसको जो भाषा समझ आए उसे वही समझाओ। शेर चीता बाघ हिंसा पर
जीता है, गधा घोड़ा हाथी शाकाहारी हैं। तदपि शेर ही वन का राजा है, उससे चार गुना
बड़ा व बली हाथी नहीं। किसी को शेर टाइगर बोल दो वो खुश हो जायगा। किन्तु भैंसा
घोड़ा गधा बोलकर तो देखो।
जब तक हमने इस आर्य भूमि पर अपने ईश्वर के संदेशों का अनुसरण किया, कोई वाह्य उजड्ड आक्रमणकारी घुस नहीं पाया। विश्व विजेता सिकन्दर भी यहाँ
से पराजित हो वापस हुआ और अपने घर तक न पहुँच पाया। सेल्यूकस को अपनी पुत्री भेंट
करनी पड़ी चन्द्रगुप्त को।
फिर एक महानुभाव को बोधिवृक्ष तले महाज्ञान प्राप्त हो गया। अहिंसा का
ज्ञान। कोई कुछ भी कहे या करे, उसके ऊपर आक्रमण न करो। सब पे
दया करो। जीव हत्या पाप है। फिर भी कुछ न होता, किन्तु अनहोनी हो ही गई। सम्राट अशोक कलिंग युद्ध पश्चात इनके चक्कर में आ
गया। अपने पूरे परिवार व दरबारियों संग अहिंसक बौद्ध बन गया। यथा राजा तथा प्रजा।
पूरा मगध राज्य बौद्ध बन गया। बस यहीं से आरंभ हुआ भारत का काला इतिहास। राजाओं ने
शस्त्र त्याग दिये, तो बाहरी आक्रमणकारी आकार उत्पात मचाने लगे भारत
में। तैमूर चंगेज नादिरशाह गजनी गोरी सबने लूटा। यह सिलसिला अंग्रेजों तक चलता ही
गया। जितनी ऊर्जा अशोक ने लंका, कंबोडिया, तिब्बत, चीन जापान में लोगों को बौद्ध बनाने में लगाई, उतनी सनातन धर्म के प्रसार पे लगा दी होती तो आज हिन्दू मात्र भारत में
सिमट के न रह गया होता।
ये बौद्ध के अनुयायी अजब गजब ही हैं। कहते हैं अहिंसा मत करो, किन्तु माँस भक्षण करते हैं। गोमांस तक खाते हैं। पूछो क्यों, तो लचर सी दलील देंगे, हम जीव हत्या नहीं करते लेकिन
कोई अन्य मार दे तो खा लेंगे। नेपाल में गोहत्या पे प्रतिबंध है। लेकिन वही नेपाली
मेरे साथ जर्मनी गये, तो बुद्धिस्ट नेपाली बीफ खा रहे थे।
सिक्खों के गुरु नानक ने अहिंसा व शांति का पाठ पढ़ाया। किन्तु दसवें गुरु
के आते आते उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। सो गुरु गोविंद सिंह जी ने अहिंसा का
परित्याग करते हुये, शस्त्र व मिलिटेंसी की शिक्षा दी अपने
प्यारों को। उसका परिणाम भी सुखद हुआ। महाराज रंजीत सिंह का साम्राज्य
सुदूर काबुल तक जा पहुँचा। वो काबुल जहाँ से विश्व की महाशक्तियाँ रूस व अमेरिका
धूल चाट के वापस चली गईं, हरि सिंह नलवे की खड्ग से काँपता था। अफगानी मर्दों ने भी औरतों की तरह सलवार पहनना आरंभ कर दिया। तब से आजतक वही पहन रहे।
लेकिन हाय रे विधाता, एक और अहिंसावादी आ गया। भारतीय जनमानस को
प्रभावित भी कर गया। अहिंसा व चरखा चलाकर लोगों को लगा वो अंग्रेजों को डराकर भागा
देंगे। भगत, राजगुरु, सुभाष, आजाद जैसे शस्त्रधारी से अंग्रेज तंग थे, बहुत परेशान थे। काकोरी ट्रेन ही लूट ली गई थी। तभी कोढ़ में खाज हो गया।
द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हो गया। कई वर्ष चले इस युद्ध ने ब्रिटानिया साम्राज्य
की कमर तोड़ दी। उनमें दम नहीं बचा था कि भारत के क्रांतिकारियों से लोहा ले सके।
आधे से अधिक सैनिक विश्व युद्ध में मरे जा चुके थे। इंडिया गेट पे उकेरे नाम इसकी
गवाही देते हैं। अतः अंग्रेजों ने अपना बोरिया बिस्तर बाँध के खिसक जाना ही उचित
समझा। बस दो वर्षों के अंदर ही वो भारत छोड़ के भाग लिए।
भारत के जनमानस में यह बात पैठ कर दी गई कि अंग्रेज भागे हैं गाँधीजी के
‘भारत छोड़ो’ नारे से। पुस्तकों में रेडियो से व अन्य मीडिया के साधनों से यही
प्रचारित किया गया, क्योंकि सत्ता उन्हीं काँग्रेसियों के हाथ में
थी। नेहरू आकंठ अहिंसक गाँधीवादी बन गये। भारतीय सेना के जवानों से बूट पोलिश
करवाने लगे। सेना को अस्त्र शस्त्र से वंचित कर दिया। विश्व का नेता बनने चले थे
अहिंसा का पाठ पढ़ा के। चालाक चीन ने इसका लाभ उठाया। पीछे से छुरा भोंक दिया। अब
हमारे चाचा शिवाजी की तरह चालाक तो थे नहीं, कि अफजल खान में छुरा के बदले बघनख उतार देते। इन्हें अक्ल आई लाखों भारतीय
सेना के जवानों की बलि देकर। बेचारे गाजर मूली की तरह काट दिए गए। उनकी बंदूकें
जंग खा गई थीं। चली ही नहीं। सीमा तक पहुँचने के लिए सड़कें ही नहीं बनाई गई थी।
इतनी बुरी तरह हताश हुये नेहरू कि हृदयाघात से चल बसे। अहिंसा का नशा उतर चुका था।
उसके बाद शास्त्री जी आए। वो अहिंसा के चक्कर में न पड़े। जवान और किसान का
नारा देने वाला यह ‘देखन में छोटन लगे, घाव करे गंभीर’ मुहावरे को चरितार्थ करने वाला साधारण किसान का बेटा
स्वतंत्र भारत का प्रथम युद्ध विजेता बना। ताशकन्द रूस में युद्धबंदी की मीटिंग
में बिछाए षड्यन्त्र ने उनकी जान ले ली। भोजन में मिलाए गये विष ने उनकी काया नीली
कर दी थी। तदपि पोस्ट मार्टम नहीं किया गया और आनन फानन में चिता जला दी गई।
तत्पश्चात इंदिरा गांधी सत्तासीन हुई और समग्र जीवन रूस की छत्रछाया में
चलती रहीं। यही काफी है ताश कन्द में चले कुचक्र की असलियत बयान करने में। किन्तु
इंदिरा की अच्छाई यह रही कि वो अहिंसा के झांसे में न पड़ीं, और पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए।
आज भी भारत एक दोराहे पे खड़ा है। विश्व की महाशक्तियाँ इसे सशक्त नहीं होने
देना चाहती। वो नहीं चाहती भारत अणु व परमाणु बम बनाए, स्पेस तकनीक में ऊंचाई हासिल करके मिसाइल बनाये, अपने उपग्रहों से सीमाओं की निगरानी करे। और उसके लिए उन विदेशी शक्तियों
ने कई जयचंद पाल रखे हैं भारत में, जो अपनी ही जड़ खोदने को आतुर
हैं, या तो चंद सिक्कों के लिए, या सत्ता की कुर्सी के लिए।
वो आतंकवादियों को छुड़ाने हेतु केस लड़ते हैं अदालत में। हमें सजग होना है। उन्हें
पहचानना है। सनातन परंपरा कायम रखनी है। राष्ट्र को विश्व गुरु बनाना है। नहीं करेंगे तो,
इतिहास न तुझको माफ करेगा याद रहे
पीढ़ियाँ तुम्हारी करनी पे पछताएंगी।
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