अलगू
चौधरी व जुम्मन शेख के न्याय से पंच परमेश्वर की प्रसिद्धि दिगदिगंत में चहुँ ओर देदीप्यमान
हो गई। बड़े बड़े न्यायविद उस गाँव में सलाह मशविरा करने आने लगे। एक बार तो
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय से भी विदेशी दल पधार चुका था। आठ दशक बीत गये। एक दिन
उनके सम्मुख बड़ा ही विचित्र केस आया। एक जीर्ण शीर्ण काया में दुखियारी महिला
गुहार लगाते पहुँची। सरपंच के सम्मुख खड़े हो विलाप करने लगी। सरपंच घर से बाहर आकर
बोले,
“क्या
बात है माई? कौन हो तुम?”
“मेरा
नाम भारत माता है। मैं बड़ी दुखियारी महिला हूँ। मेरे साथ बड़ा अन्याय हुआ है।“
“किसने
किया यह अन्याय और कब हुआ?”
“बड़ी
लंबी व्यथा कथा है सरपंच। आप पंचायत बुलाइए और न्याय कीजिये”।
“ठीक
है, आने वाले मंगलवार को मंगल वेला में प्रातःकाल 10 बजे पंच परमेश्वर विराजेंगे
नीम तले उस चबूतरे पे। आप निचिंत रहिये। यदि आपकी व्यथा सच्ची है, तो आपको न्याय
अवश्य मिलेगा। इससे पूर्व भी हम एक वृद्ध खाला को न्याय दे चुके हैं।”
इए
अभूतपूर्व केस को मीडिया वालों ने खूब नमक मिर्च लगा लगा के प्रसारित किया। अरसे
बाद कोई केस पंच के पास आया था, वरना तो जिला, उच्च, उच्चतम न्यायालय में ही जाते
थे लोगबाग। मंगलवार को ठट्ट के ठट्ट जनता आ पहुँची चबूतरे पे। मीडिया वालों ने
इसके लाइव प्रसारण के लिए भी अगल बगल के वृक्षों के ऊपर कर्मी तैनात कर दिए थे,
जिससे कैमरे को फूटेज सीधा मिले। कुछ विदेशी पत्रकार भी आ टपके। ठीक 10 बजे
कार्यवाई आरंभ हुई।
सरपंच ने पूछा,”माई, आपको किससे न्याय
लेना है? विरोधी पक्ष कहाँ है?”
“महोदय, मेरी इस हाल के जिम्मेदार
बहुतेरे लोग हैं। वो सब यहाँ नहीं आ सकते। उनमें से अधिकतर तो परलोक सिधार चुके
हैं”।
“यह कैसा केस है माई? बिना विरोधी
पक्ष के न्याय कैसे होगा?”
“यह सब आप देखिये। किन्तु यदि न्याय
नहीं कर सकते तो हाथ खड़े कर दीजिए”।
पंचों ने आपसी मंत्रणा की। यदि केस की
सुनवाई नहीं होती तो बड़ी भद्द होगी। मुंशी जी की लेखनी से जो भी प्रसिद्धि हमें
मिली थी, आज वैश्विक मीडिया के समक्ष मटियामेट हो जायगी। अतः निर्णय हुआ की केस
सुन तो लिया जाय, फिर आगे देखा जायगा।
“ठीक है माई, आप अपनी बात बोलिए। हम
न्याय अवश्य करेंगे”।
माई ने कहना आरंभ किया, ”हजारों
वर्षों से मैं पददलित होती रही। विदेशी आक्रान्ताओं ने अनगिनत बार मुझे लूटा व
अपमानित किया। अंतिम लुटेरे आए अंग्रेज। किसी तरह सैकड़ों वर्षों की क्षोभ व पीड़ा
पश्चात अंततः वो समय आया जब मुझे कैद से मुक्ति मिलने की घोषणा हुई। मेरे कई सच्चे
सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी मेरे लिए। मैं स्वतंत्र होने जा रही
थी”।
“तब क्या समस्या है माई? अब तो तुम
मुक्त हो। जैसे चाहो रहो”, एक पंच ने पूछा।
“यही तो विडंबना है। कहानी मुक्ति
द्वार से ही आरंभ होती है। अन्याय उस कालखंड में व उसके पश्चात ही हुआ”।
“तनिक विस्तार में बताओ। हम बड़े
असमंजस में हैं”।
“यदि किसी घर में दो पुत्र हैं, और
पिता जमीन का बंटवारा करे तो उनका परिवार कैसे बँटेगा?”, माई ने पूछा।
“सीधी सी बात है, दोनों बेटों का
परिवार उनके साथ रहेगा”।
“और उनका हक किस जमीन पर होगा?”
“क्या माई, कैसी बात करती हो? दोनों
बेटों का परिवार उनके साथ ही जाएगा और उनकी पिता की संपत्ति पर उनका भी हक होगा”।
“तो फिर मेरे साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ?
मेरी जमीन के टुकड़े किये गये। छोटा बेटा अपना हिस्सा लेकर अलग हो गया। मैं बड़े
बेटे के साथ रह गई। इसी बड़े बेटे के साथ छोटे बेटे के परिवार के लोगों को भी अधिकार
मिल गया कि वो बड़े बेटे की जमीन पर भी रह सकते हैं। उनकी मर्जी, चाहे इस जमीन पर रहें
या उस जमीन पर। दोनों पर उनका अधिकार है। जबकि छोटे के यहाँ बड़े का परिवार नहीं रह
सकता। वहाँ उनका कोई हक नहीं। कुछ लोग वहाँ रहना चाहते थे, तो उनकी हत्या कर दी
गई, बहु बेटियों का बलात्कार हो गया”।
पंचायत में सन्नाटा छा गया।
माई ने कहना जारी रखा, ”मैं न्याय
मांगती हूँ। मेरे बड़े बेटे की जमीन पर छोटे के परिवार वालों का कोई हक न रहे।
उन्हें उनकी संख्या के हिसाब से अधिक ही जमीन दे दी गई थी। पैसे (ट्रेजरी) का भी
बंटवारा हुआ था संख्या के हिसाब से। दोनों का परिवार पूरी तरह से अलग रहे अपनी अपनी
जगह। कोई घाल मेल न हो”।
तभी एक विदेशी मिडियाकर्मी चिल्लाया,
“यह महिला सठिया गई है। छोटा बेटा कमजोर है, माइनॉरटी है, गरीब है। इसलिए उसे अधिक
मिलना चाहिये। दोनों जगह मिलना चाहिये”।
माई ने प्रतिकार किया, “यह बंटवारा
उसी छोटे के कहने पे ही हुआ था। यह उसी की माँग थी। उसने बड़ा ताण्डव किया था। बड़े
के परिवार के बहुतेरे लोगों को मार दिया था। मैंने दोनों पुत्रों को समान रूप से
पाल पोस के बड़ा किया। बंटवारे के समय दोनों समान थे, धन बल दोनों में। यदि वो
निकम्मा कर्महीन निकला, तो उसकी सजा बड़े के परिवार वाले क्यों भुगते?”
तभी कहीं से विदेशी मीडिया वालों ने
छोटे बेटे को ढूँढ निकाला। वो सामने आकर बोला, “इस माई ने सन 71 में मेरे परिवार
के दो टुकड़े कर दिए थे। हम दोनों का आपसी कलह था जिसमें ये कूद पड़ी और हमें हमेशा
के लिए अलग कर दिया। उर्दू व बंगाली की दीवार खड़ी कर दी”।
माई तनकर खड़ी हो गई, “यह सरासर मिथ्या
आरोप है। इसने अपने कनिष्ठ बंगबंधु परिवार के लोगों पे भारी अत्याचार किये। हत्या
व बलात्कार के अत्याचार से हजारों परिवार के सदस्य हमारे घर आ गये शरण लेने। हमने
राम की तरह इस विभीषण को न्याय दिलाया। मुक्तिवाहिनी सेना के साथ अपनी वानर सेना
भेजी युद्ध हेतु। इन्हें इनका घर वापस दिलवाया। विभीषण जैसा ही शेख मुजीब का
राज्याभिषेक करवाया। लेकिन इस पापी ने राजमहल में षड्यन्त्र करके अपने गुप्तचरों
से मुजीब की हत्या करवा दी”।
छोटा बेटा बोला, “ये माई आरंभ से ही
हमारे विरुद्ध रही हैं। बंटवारे में कश्मीर हमें मिलना चाहिये था। इन्होंने बड़े
बेटे को दे दिया”।
“यह सरासर मिथ्या आरोप है। कश्मीर
हमारे परिवार की संपत्ति थी ही नहीं। उस परिवार के मुखिया ने स्वयं आकर हमारे परिवार
में विलय की इच्छा प्रकट की थी अपनी जमीन जायदाद समेत। किन्तु इसने उसकी आधी जमीन
बलपूर्वक हड़प ली। हमने किसी तरह बाकी जमीन बचा ली। आज भी कश्मीर में इसके परिवार
वाले छद्म वेश में आकर बलवा करते हैं। मासूम लोगों को मारते हैं”।
सभी पंच सन्नाटे में बैठे थे। न्याय
के प्रति निष्ठावान तो थे, किन्तु कैसे दूध का दूध व पानी का पानी अलग करें, समझ
नहीं आ रहा था।
तभी माई पुनः दहाड़ी, “यह छोटा पीछे से
छुरा भोंकता है। हमारे घर में घुस कर आतंकी हमले करता है। बम विस्फोट करता है।
हमारे सैनिकों पे छुप के हमले करता है। हमारे परिवार के पुराने देशप्रेमी सरदार सपूतों
को उकसाता है खलिस्तान नामक घर बना के अलग होने के लिए”।
छोटा बोला, “आपने भी तो हमारे
बंगालियों को अलग कर दिया था। यह उसी का बदला है”।
माई बोली, “जो करना है, सामने से करो।
पीठ पीछे छुरा भोंकना हमारे संस्कारों के विरुद्ध है। आमने सामने युद्ध करो”।
“ऐसे किसी संस्कार को मैं नहीं मानता।
प्यार व युद्ध में सब जायज है”।
“तो ठीक है, हमें भी यह स्वीकार है।
हम भी तुम्हें घर में घुस के मारेंगे। यह हम सब आपस में निपट लेंगे। पंचों से बस
मेरी यही माँग है कि जो गलती 80 वर्ष पहले की गई थी, उसे सुधारा जाए”।
“कौन सी गलती?”, पंच ने पूछा।
“वही गलती जो मैंने आरंभ में ही कहा
है”।
“कृपया पुनः बतायें”।
“तो सुनिए, उसके परिवार वाले जो यहाँ
भी रह रहे हैं, यहाँ से चले जाय। उन्हें उनकी जमीन उन्हीं की डिमांड पे उनकी
संख्या के अनुपात से दे दी गई थी। उनका हमारी जमीन पर रहना व हक जताना सरासर गलत
है”।
तभी छोटा चिल्लाया, “हमारे परिवार को
यहाँ रहने का अधिकार बापू व चाचा ने दिया था”।
पंच ने पूछा, “माई आपके पति ने यह
फैसला किया था, तो हम कैसे दखल दे सकते हैं?”
“वो मेरे पति नहीं थे। पुत्र थे अन्य
समस्त पुत्रों की मानिंद। मेरा कोई पति नहीं है। मैं उन देवियों में से हूँ जिनके
पति नहीं होते, जैसे दुर्गा काली भवानी। यह बंटवारे के समय की राजनीति की उपज है।
तथाकथित बापू व चाचा ने इस छोटे का पक्ष लिया। इसे बहुत कुछ दिया। इसे अपना माना
परंतु इसने उन्हें कभी अपना नहीं माना। इसके लिए जिन्न ही सब कुछ था”।
“यह जिन्न कौन है? क्या इसमें आसुरी
शक्तियाँ भी मिली हुई हैं?”, पंच हुये हैरान।
यह वही जिन्न है महामहिम, जिसने मेरे
परिवार में दरार डाली। दोनों भाइयों में झगड़ा कराया। बंटवारा कराया। परिवार के
लाखों लोग मारे गये, बेघर हुये। लेकिन उसे इसकी सजा मिली। बराबर मिली। बंटवारे के
एक वर्ष में ही वो कैंसर से मर गया। बड़ा ही कमजर्फ इंसान था”।
छोटा दहाड़ा, “चुप रह बुढ़िया। वो हमारे
कायदे आजम हैं”।
पंच ने छोटे को चेताया, “ऐसी वृद्ध
महिला को बुढ़िया कह के संबोधित न किया जाए। वरना आपके ऊपर पंचायत मानहानि का दंड
आरोपित होगा”।
“वो तो ठीक है, किन्तु मेरे परिवार के
लोग जो 80 वर्ष से वहाँ रह रहे हैं, वहीं रहेंगे। मेरे पास अपने वर्तमान परिवार के
लिए ही खाना नहीं है। जबकि इनके भंडार भरे पड़े हैं। ये विश्व की पाँचवीं महाशक्ति
बन चुके हैं, और हम नीचे से पाँचवीं सबसे गरीब फटेहाल कंगाल। हमारे यहाँ एक बोरी
आटे के लिए भी दो चार कत्ल हो जाते हैं”, छोटा बोला।
“तो फिर तुम अलग ही क्यों हुये? न अलग
होते तो इतने बदहाल क्यों होते?”, पंचों ने प्रश्न रखा।
“अलग हुये थे अपने मजहब के लिए। पूरी
कायनात में हममजहबियों को ही जीने का हक है। अन्य किसी को नहीं”।
“यह कहाँ लिखा है? धरती माता अपने
समस्त पुत्रों को समान रूप से अधिकार देती है रहने खाने क लिए”।
“यह हमारी आसमानी किताब में लिखा है”।
तभी माई ने हस्तक्षेप किया, “पंचों,
यह कपूत कुछ विदेशी आक्रान्ताओं के झांसे में आ गया। हमारी प्राचीन सनातन संस्कृति
को त्याग उनकी आसमानी किताब पढ़ने लगा। अपना धर्म ही त्याग दिया”।
“खैर यह उसका निजी मामला है। हम इसमें
कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते”, एक पंच ने कहा।
“तो ठीक है, लेकिन मेरा घर तो खाली
करवाइए इसके परिवार वालों से”, माई ने आर्तनाद किया।
पंचों बड़े पशोपेश में पड़ गये। आपस में
लंबी वार्ता चली। लेकिन किसी नतीजे पे नहीं पहुँच पा रहे थे। माई की बात सही तो
थी, किन्तु आठ दशक पश्चात भला कैसे किसी को बेदखल किया जा सकता था। अंततः उन्होंने
फैसला सुनाने के लिये एक पखवाड़े का समय माँगा, “यह अत्यंत कठिन केस है। हम एक
पखवाड़े पश्चात पुनः यहीं एकत्रित होंगे। तब तक जनता जनार्दन की भी राय ली जायगी”।
बताइए आप सभी जनता जनार्दन, क्या
निर्णय लेना चाहिये? क्या माई को अनधिकृत कब्जे से छुटकारा मिलेगा? क्या उसका घर
केवल उसके परिवार वालों के लिए सुरक्षित कर दिया जायगा?