Jul 21, 2020

सद्दाम के गढ़ बग़दाद में (1998):

सद्दाम के गढ़ बग़दाद में (1998):
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यूँ तो फिल्मों में लोगों ने बहुतेरे युद्ध के दृश्य देखे थे, या फिर महाभारत काल में संजय ने देखे. लेकिन 1990 में जब खाड़ी युद्ध के वक्त टीवी के सुनहरे पर्दे पे अमरीका की मिसाइल-वर्षा देखी लोगों ने वास्तविक युद्ध की, तो अलग ही रोमांच से लबरेज हो गए. भला हो दिल्ली एशियाई खेलों का, जो रंगीन टीवी भारत में आ चुका था सन १९८२ में. लोगों ने ये भी देखा कैसे सद्दाम ने स्कड मिसाइलें छोडीं कुवैत और इजराइल पे. कैसे बाद में अमरीका उसकी मिसाइलों को हवा में ही तबाह करने लगा. शायद एक महीने चली ये हवाई लड़ाई. मीडिया कयास लगाता रहा जमीनी लड़ाई में इराक को महारत हासिल है और उसमें अमरीका के बहुतेरे सैनिक हताहत होंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और अमरीकी सैनिक कुवैत में आराम से टहलते हुए प्रवेश कर गये. सभी इराकी सैनिक कुवैत के तेल कुओं में आग लगा कर भाग खड़े हुए.



जार्ज बुश ने इसे अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा मान लिया और यूएन के चैनेल से सद्दाम को पंगु बना दिया. ये बुश व् सद्दाम की व्यक्तिगत लड़ाई हो गयी. इराक पे यूएन के प्रतिबन्ध लग गए. वो तेल नहीं बेच सकता. केवल बार्टर डील कर सकता है. यानी सामान के बदले तेल, वो भी एक निश्चित मात्रा में ही. बगदाद में यूएन के ऑब्जर्वर बैठ गए निगरानी के लिए.
समय बीता. हम भी इन सब घटनाओं को भूल चले. लेकिन तब ये सारी घटनाएँ जीवंत हो उठीं, जब मुझे बग़दाद जाने का मौक़ा मिला १९९८ में. लम्बी और घोर मशक्कत से एक कंसल्टेंसी प्रोजेक्ट पूर्ण किया था टाटा इलेक्ट्रिक कंपनी के लिए. बहुत अच्छी रिपोर्ट के साथ पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन दिखाया बॉम्बे हाउस में. महान आश्चर्य तो तब हुआ जब रतन टाटा स्वयं आ गए उसे देखने. क्लाइंट ने काफी पसंद किया और प्रशस्ति पत्र भी दिया व्यक्तिगत नामों से. जिसके एवज में मुझे मेरी कंपनी के बॉस ने बगदाद के ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले’ में १५ दिनों के लिए कंपनी का स्टाल लगाने और बिजनेस प्रोमोशन हेतु नामित किया. यानी काम कुछ नहीं बस तफरीह.
मैं और मेरे एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भार्गव साहब दोनों चल पड़े रॉयल-जोर्डेनियन एयरलाइन से जॉर्डन की राजधानी अम्मान के लिए. इराक पे तो प्रतिबन्ध लगा था इसलिए वहाँ के लिए कोई विमान सेवा नहीं थी कहीं से भी. अम्मान से बगदाद जाना था सड़क मार्ग से.
अम्मान शहर काफी विकसित लगा. भार्गव साहब ने बताया, ”यहाँ हमें कोई बिजनेस नहीं मिला कभी. मौक़ा लगे तो ‘डेड सी’ देख लेना. कभी वो समुन्दर से लगा था. लेकिन फिर जमीनी उथल पुथल के कारण शेष समुन्दर से कट के अलग हो गया. पानी वाष्पित होता गया. नमक की मात्रा बढ़ती गयी. पानी गाढा हो गया, इसलिए उसमें कोई डूबता नहीं”.
रात भर होटल में रुके. और अगले दिन सुबह रवाना हो गए बग़दाद के लिए एक बड़ी गाडी जीएमसी में. वो थी तो बहुत बड़ी गाडी लेकिन किराया कुछ जादा नहीं था. कारण ईराक में तेल पानी से भी सस्ता था. बेचारे को तेल बेचने की इजाजत जो नहीं थी. लोग अपनी गाडी पेट्रोल से धोते थे.
कई घंटे जॉर्डन में चलने के बाद ईराक सीमा पहुँचे. अपना पासपोर्ट दिया, जिसपे उन्होंने वीसा चिपका दिया. उस वीसा पे मोटे लाल अक्षरों में लिखा था, ”आपके पासपोर्ट में पहले से इजरायल वीसा लगे होने पर इराक प्रवेश वर्जित है. कठोर कार्यवाही होगी”.
ऐसा ही नियम खाड़ी के कई देशों में है. इसलिए इजरायल के प्रोजेक्ट में हम लोग पासपोर्ट में वीसा नहीं लगवाते थे. अलग से पेपर में वीसा लेते थे, जिसमें पासपोर्ट नम्बर लिखा होता था. उसी पे इमिग्रेशन स्टाम्प भी लगता था, पासपोर्ट में नहीं. खैर वीसा वाले ने बताया, बग़दाद पहुँच के एक बार इमिग्रेशन कार्यालय जाकर फिर से इंट्री करवानी होगी.
सड़क बहुत ही अच्छी और चौड़ी थी ईराक के अन्दर. जॉर्डन से भी जादा चौड़ी व चिकनी. दोनों ओर रुखा रेगिस्तान. जीएमसी भागी जा रही थी एक सौ बीस तीस पे. भार्गव साहब अपने पुराने प्रोजेक्ट याद करने लगे जो उन्होंने किये थे इराक में.
“ये देखो रमादी में माइक्रोवेव टावर हम्हीं लोगों ने लगवाया था. कुट-अमारा लिंक रिकार्ड समय में समाप्त हुआ. बहुत काम मिला था हमें यहाँ” उन्होंने कहना शुरू किया, “विन्च मशीन से जब बड़ा ऐन्टेना जाने लगा १०० मीटर टावर के ऊपर तो भारी भीड़ जमा हो गयी. उन्होंने पहले कभी ऐसा देखा नहीं था”.
“कब की बात है?”
“ये था १९८४. हिंदी फिल्मों के बहुत दीवाने थे इराकी. एक बार मेरा एक लम्बा-गोरा इंजिनियर सिनेमा देख के बाहर निकला, सबने उसे घेर लिया कि अमिताभ बच्चन आ गया”.
“फिर काम बंद कब और क्यों हुआ?”
कुछ वर्षों में इरान-ईराक युद्ध प्रारम्भ हो गया. कई वर्ष चलता गया. ख़त्म होने का नाम ही न ले. तंग आकर हमारे प्रबंधन ने काम बंद कर सभी लोगों को वापस बुला लिया. कितने लोगों को सद्दाम ने मरवा दिया इस युद्ध में, कितने अपंग हो गए. और आज जब अमरीका से पंगा हो गया तो सारी जीती हुई जमीन इरान को वापस कर दी”.
“क्या करता? दो दुश्मन से कैसे लडेगा अकेला. आज उसे दोस्त चाहिए, जो विश्व में कोई नहीं है”.
बग़दाद शहर के अन्दर पहुँचे. मकान दूकान और सडकों की हालत बयान कर रही थी गरीबी. होटल शेरेटन पहुंचे अल-सादून स्ट्रीट पर और चेक इन किया. बगल में टिगरिस नदी बह रही थी, नगर के मध्य ही. होटल के प्रमुख प्रवेश द्वार में घुसते ही जमीन पर जार्ज बुश की तस्वीर पेंट की हुई थी. यानि सभी आगंतुक अपने पैर से उसका सर कुचलते हुए अन्दर जाएँ.
सोचा गया बाहर जाकर थोडा घूमा जाय. लोकल करेंसी एक्सचेंज करवाई. एक डॉलर के मिले दो हजार दीनार. भार्गव साहब दंग रह गए. अरे पहले तो एक दीनार में तीन डॉलर मिलते थे. इतनी खराब हो गयी हालत. बाहर बाजार में पब और नाईट क्लब सब बंद, जो कभी आबाद रहते थे. ईराक काफी खुला हुआ समाज था. लेकिन अमरीका ने तबाह कर दिया. खाना खाया. एक आदमी का लगा ६ हजार दीनार. यानि गड्डी भर-भर के ले जाओ थोड़ी सी भी शौपिंग के लिए.
अगले दिन टैक्सी पकड़ी और अन्दर बैठ गए,”चलो बगदाद व्यापार मेला”.
वो कुछ समझा नहीं. बोला,”फिन्दक बग़दाद?”
अब हम नहीं समझे वो क्या बोला. इसलिए फिर दोहराया,”बग़दाद इंटरनेशनल ट्रेड फेयर”.
उसने गाडी एक सज्जन के बगल रोक दी जो थोड़ा पढ़े लिखे लगते थे. उन्होंने ट्रांसलेट करके कहा उससे,”फिन्दक बग़दाद”.
अब हमें उसका अरबी शब्द मालूम हो गया जो अंत तक काम आया.
रास्ते में टैक्सी वाले ने पूछा, ”इंडियन?”
“फी इंडियन”, मुझे अरबी के कुछ शब्द आते थे सऊदी में रहने के कारण.
“शम्मी कप्पू.....शाशी कप्पू....मौजूद?”
हमने कहा, ”फी मौजूद”. यानि ज़िंदा हैं. वो सब बाकी दुनिया से पुरी तरह कट गए थे. लेकिन उनकी हिंदी सिनेमा का लगाव ज़िंदा था.
व्यापार मेला पहुँचे. भारतीय पवेलियन में अपना स्टाल लगाया. बहुत सी अन्य भारतीय कम्पनियाँ थीं वहाँ. भारतीय राजदूत श्री दयाकर राव साहब दिन में कई चक्कर लगा के स्वयं जायजा लेते रहते थे. रात्रि भोज दिया अपने घर इण्डिया-हाउस में.
अगले दिन हम सब अपना स्टाल लगा के तैयार हो गए. लोग आने शुरू हुए. हम ये देख के हैरान रह गए की सबसे जादा भीड़ हमारे भारतीय पवेलियन में ही उमड़ी पडी थी. पता लगा यहाँ के लोगों को भारत से बहुत लगाव था. इंदिरा गाँधी के वक्त से ही भारतीय आर्मी ने इराक आर्मी को ट्रेनिंग दी थी. भारतीय कंपनियों को बहुत बिजनेस मिलता था यहाँ जिसे अमरीका ने बर्बाद कर दिया.
भीड़ ज्यादातर औरतों और बच्चों की थी. मर्द तो काफी लड़ाई में मारे जा चुके थे. इराकी औरतों की खूबसूरती देख के हम दंग रह गए. गोरा सुर्ख दमकता चेहरा. भार्गव जी ने कहा,” यहाँ एक शहर है बसरा, जो कुवैत बॉर्डर के पास है. बसरा की हूरें पुरी दुनिया में मशहूर हैं”.
एक दिन हम अकेले ही बैठे थे स्टाल पे. दो औरतें आ के खड़ी हुई और देखने लगीं. हम उनसे मुखातिब हुए तो बोलने लगीं टूटी फूटी हिंदी में. हम बड़े खुश हुए एक इराकी कन्या को हिंदी बोलते देख.
हमने कहा,”आप हिंदी कैसे जानती हैं?”
“मेरे पिता भारतीय हैं. और ये हैं मेरी माता, इराकी हैं”.
“अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी बात है. आपकी माता को भी हिंदी आती है?”
“नहीं, मैंने अपने पिता से सीखा”.
“क्या करते हैं आपके पिता?”
“उनका बिजनेस था. यूएन प्रतिबन्ध के बाद बिजनेस चलना बंद हो गया. पांच साल पहले पिताजी भारत गए, फिर वापस नहीं आये”.
“क्या बोलते हैं? क्यों नहीं आये? कब आयेंगे?”, मैं अधीर हो गया.
“कुछ पता नहीं. अब उनसे कोई संपर्क नहीं है”, उसका गला रुंध गया.
मेरा दिल भर गया उसकी दास्ताँ सुनकर. आगे कुछ बोला नहीं गया. वो भी बेचारी माँ-बेटी आगे बढ़ गयीं.
हमारे स्टाल पे सद्दाम के सारे मंत्री और जनरल पधारे, सिवाय खुद सद्दाम के. वो कहीं नहीं निकलता था. कहीं भी नहीं देखा उसे सिवाय टीवी के. सद्दाम के अग्रिम पंक्ति के जनरल और उपराष्ट्रपति ताहा यासिन रमादान, उनके पुत्र उदय हुसैन, और उपप्रधान मंत्री इब्राहीम हसन इत्यादि के साथ फोटो है मेरी. अब तो नाम भी याद नहीं बहुतों के. यासीन रमादान तो काफी उम्र के लगते थे, शायद ६५ के आसपास. मै हैरान, इतनी उम्र का व्यक्ति क्या युद्ध करेगा. लोगों ने कहा ये व्यक्ति बहुत शक्तिशाली है और सद्दाम को ऊपर उठाने में इसका महती योगदान है. आज सद्दाम को विश्वासपात्र व्यक्ति चाहिए. पग पग पे खतरा है उसे अमरीका के एजेंटों से. सद्दाम के आखिरी दिनों में जब टीवी पे समाचार आता था, अमेरिका ने रमादान को मारा, या इब्राहिम को मारा, तो मैं अपने एलबम में उनकी अपने साथ लगी फोटो देखता था. और सोचता था, क्या कमी थी इन सबमें. कितने अच्छे लोग मुझे तो लगे थे. अच्छा बर्ताव, ढंग से बोलना सलीके से. अंगरेजी तो नहीं आती थी इन्हें लेकिन अनुवादक लेकर चलते थे हम लोगों से वार्ता हेतु.
अचानक एक दिन याद आया. इमिग्रेशन आफिस जाने को बोला था वीसा वाले ने. पता चला उन्होंने उसी मेले में ही अपना कैम्प लगा दिया है लोगों की सहूलियत के लिए. हम पहुंचे.
उन्होंने कहा,”इंडियन? गिव बोखोर”.
“ये क्या है?”
वो बस बार बार वही दोहराए जाए, “बोखोर ....बोखोर”.
मैं खीझ कर वापस आ गया. स्टाल में कुछ लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा,”अरे वो अगरबत्ती मांग रहा है. यहाँ नहीं मिलती. लेकिन लोगों को वो बहुत पसंद है”.
“अब मैं अगरबत्ती कहाँ से लाकर दूं?”
“उपाध्याय जी के पास है, ओएनजीसी-विदेश वाले. वो पिछले वर्ष भी आये थे. इसलिए इस बार भारत से ही साथ लाये अगरबत्ती”.
मैंने लिया उनसे कुछ चार-पांच अगरबत्ती जिसे पाकर वो इराकी बाग़ बाग़ हो गया. फ़टाफ़ट स्टाम्प लगा के दे दिया. ये मेरे जीवन की सबसे सस्ती रिश्वत थी. लेकिन एक मीठी सी हंसी भी आई इन इराकियों की सादगी पर.
भार्गव साहब तो चले गए पांच दिन बाद, लेकिन मैं रहा पुरे १५ दिन. सद्दाम इतना मेहरबान था कि हमारे ‘इंडिया पवेलियन’ को बेस्ट पवेलियन घोषित किया. पाँच सितारा होटल का बिल हमने भरा कौड़ियों के भाव. इसका भी एक दिलचस्प किस्सा है. प्रैक्टिकली तो १ डॉलर में २००० दीनार होते थे. लेकिन सद्दाम इसे नहीं मानता था ऑफिशियली. वो अपना वही पुराना वाला रेट ही मानता था. यानि १ दीनार में ३ डॉलर. १५ दिन के होटल का बिल आया १५०० डॉलर, हमने उन्हें दिया ५०० दीनार पुराने रेट से. यानी एक डॉलर से भी कम. लेकिन ये सुविधा सबके लिए नहीं थी. भारतीय दूतावास की सिफारिश पे ही मिला था केवल हम भारतीयों को. हमने मन में सलाम ठोंका सद्दाम को.
वहाँ से चलते समय हमारे पास काफी सारा इराकी दीनार बचा रह गयां जिसे हमने कोशिश किया वापस डॉलर में बदलने का. लेकिन न हो पाया. काफी नोट भारत लेके आये और बच्चों में बाँट दिया.
पूरे ईराक में कहीं भी कोई चोरी डकैती छीना झपटी नजर नहीं आई. हम आधी रात में भी घूमते थे. सब जगह अमन चैन और शांति उस भीषण गरीबी में भी. जबकि पहले यही लोग शाही अंदाज में जीते थे. लेकिन सद्दाम के मरने के बाद अमरीका जैसा शक्तिशाली देश भी ईराक को कंट्रोल नहीं कर पाया और सब तरफ हिंसा का ताण्डव चला जो सीरिया तक फ़ैल गया और आज भी अनवरत जारी है. शांति के नाम पर अमरीका ने इसी तरह कितने देशों में अशांति फैलाई, इसका हिसाब कौन लेगा उससे? अमरीका ने सद्दाम को क्यों मटियामेट किया? कुवैत छुडा लिया, बस वहीं रुक जाना था. ओसाम लादेन मिला पाकिस्तान में, मारा भी वहीं गया. लेकिन पाकिस्तान में अमरीका ने एक बम भी न गिराया. जबकि अफगानिस्तान में अभी तक डटा हुआ है. भारत के सारे मित्र राष्ट्र ही उसका शिकार हो रहे हैं. इरान के ऊपर चढ़ा हुआ है और भारत का चाबहार बन्दरगाह हाथ से जाता हुआ. सउदी अरब से जादा मानवाधिकार हनन किसी राष्ट्र में नहीं है, लेकिन वो अमरीका का कृपापात्र बना रहा हमेशा. 

Jul 16, 2020

अफ्रीका (इरिट्रिया) यात्रा 1998-99

मेरा पहला विदेश प्रवास सऊदी अरब (1994-96) इतना दुखदाई रहा था, कि वापस आने के बाद विदेशी प्रोजेक्ट में कभी न जाने का मन बना लिया था. घर परिवार से दूर, अपने वतन से दूर, काफी प्रताड़ित सा लगता था. मानसिक व शारीरिक दोनों रूप से. उसपे सऊदी अरब तो नीम पे चढ़ा करेला. बंद समाज, विषम परिस्थिति, मनोरंजन के साधनों का आभाव, पूजा पाठ पे प्रतिबन्ध, क्रूर सजा, इत्यादि अनेक कारणों से मन में विरक्ति हो गयी थी.
इसलिए जब एक दिन हमारे सहयोगी कृशन जी अफ्रीका जाने का प्रस्ताव लेकर आये, तो मैं पशोपेश में पड़ गया. कहने लगे, ”डीके भाई, बस चार महीने का छोटा सा प्रोजेक्ट है. जादा लंबा नहीं रहना है. पलक झपकते ही बीत जाएगा”.
सऊदी से लौटे ३ वर्ष बीत चुके थे. जो कुछ कमा के लाये थे, खर्च हो गए. पॉकेट में फिर छेद दिखने लगे थे. इसलिए मस्तिष्क कह रहा था निकल चलो. अंततः एक दो दिन के पशोपेश के बाद हाँ कह दी.
जाना भी ऐसे देश था, जिसका कभी नाम भी न सुना था, ‘इरिट्रिया’. एक छोटा सा देश अफ्रीका में जो इथियोपिया से कट के अलग हुआ, दोनों देशों के बीच लम्बी लड़ाई के बाद. वो लड़ाई अभी भी फट पड़ती थी कभी कभी.

जाने से पहले घरेलु पत्नी ने कहा, ”मुझे बड़ी दिक्कत होती है. पैसे निकालने के लिए बैंक में जा के लाइन में लगो. फिर टोकन के बाद लंबा इन्तजार करो. मुझसे न होगा ये सब”.
तभी मुझे ध्यान आया, बैंक ऑफ़ अमरीका में 16% ब्याज के चक्कर में मैंने ऍफ़डी कराई थी. साथ में सेविंग्स अकाउंट फ्री. एटीएम कार्ड भी दिया था. सोचा ये कार्ड आजमाया जाय. क्या है, कैसा है. गए उसके एटीएम कक्ष में. फ़टाफ़ट एकदम कड़क नोट नए-नए निकल के आ गए. बस फिर क्या था, उसी खाते में चार महीने के घर खर्च का पैसा डाल दिया और कार्ड चलाने का तरीका भी बता दिया पत्नी को. सन 1998 में किसी और बैंक में एटीएम नहीं था.
यात्रा का टिकट आ गया. सीधी विमान सेवा तो थी नहीं इस छोटे से देश के लिए. दिल्ली से दुबई, दुबई में ८ घंटे की प्रतीक्षा, दुबई से काहिरा (मिश्र यानि इजिप्ट की राजधानी काहिरा), काहिरा में ८ घंटे प्रतीक्षा, काहिरा से अस्मारा (इरिट्रिया की राजधानी). दिल्ली से बैठे दुबई के लिए एमिरेट्स (दुबई की एयरलाइन) में. बड़ी अच्छी व्यवस्था. सुरीली सुन्दरियाँ मोहक मुकानों से सहायता को तत्पर. जबकि मेरी पहली वाली सउदिया (सऊदी एयरलाइन) की यात्रा में थीं लाल आँखों से अंगारे बरसाती और गुर्राती लम्बी दाढी वाली खूँखार आकृतियाँ. हर सीट के पीछे छोटा टीवी लगा हुआ, जिसे पीछे बैठने वाले देख सके. सुन्दर पकवानों का लुत्फ़ उठाते और टीवी में गोविंदा की हास्य फिल्म “राजा बाबू” देखते कब दुबई आ गया पता ही न चला.
दुबई में उतरे. हमारा पासपोर्ट उन्होंने ले लिया और एक कार्ड जैसा पास दे दिया. आठ घंटे बिताने के लिए एअरपोर्ट के बगल ही पांच सितारा होटल में रहने खाने की सुन्दर व्यवस्था भी की. वही कार्ड पास हमारा वीसा था दुबई शहर घूमने के लिए. बड़ा क्रेज होता था उन दिनों दुबई में शोपिंग का. हम बड़े खुश हुए एमिरेट्स से और उसे फाइव स्टार रेटिंग दे डाली.
यात्रा में आगे बढे और मिश्र की राजधानी काहिरा उतरे. एमिरेट्स की सेवा समाप्त हुई और अगली फ्लाइट इजिप्ट एयर की थी. लेकिन उस एयरपोर्ट का मंजर देख हम चकरा गए. बड़ा अफरातफरी का माहौल था. एअरपोर्ट से बाहर जाने वाले तो इमिग्रेशन की लाइन में लग बाहर निकल लिए. हम जैसे ट्रांजिट यात्रियों को अलग एक लाइन में हाँक दिया गया. उसी लाइन में धीरे धीरे आगे खिसकते रहे. एक स्थान पे उन्होंने हमारा टिकट व् पासपोर्ट लिया और अपने पास ही रख लिया. और लोगों की तरह हमें भी आगे हाँक दिया गया. हम एकदम भौंचक व किकर्तव्यविमूढ. विदेश में बिना पासपोर्ट तो गैरकानूनी अप्रवासी माने जायेंगे. लेकिन देखा जब सभी को करते हुए, तो हमने भी छोड़ दिया स्वयं को भाग्य पे.
लाइन आगे खिसकी. एक व्यक्ति लाइन के बगल खडा लोगों के कान में कुछ फुसफुसा रहा था. हम भी आगे पहुंचे तो बोला वो, “केवल २०० डॉलर में पूरा काहिरा घुमा दूँगा. वीसा और गाडी सब इसी में शामिल है”.
मैं तैयार हो गया. ये तो बहुत ही अच्छा ऑफर है. अगली फ्लाइट 8 घंटे बाद है. घूम घाम के वापस आ जाऊँगा.
लेकिन तभी भला हो लाइन में खड़े मेरे पीछे वाले का, जिसने मुझे सचेत किया, “भैया ये काहिरा है. बाहर ले जाकर कहीं छोड़ के भाग जाएगा. आप अन्दर भी नहीं आ पाएंगे”.
मै हिल गया ऐसा सोच के ही.
खैर लाइन आगे बढ़ती गयी. अंत में हमें एक बड़े हाल में नीचे ले जाया गया. बेसमेंट लग रहा था. न कोई खिड़की न रोशनदान. बहुत सारे लोग वहाँ पड़े थे. नाममात्र की चार-छ बेंच. बाकी सारे लोग नीचे जमीन पे ही लेटे हुए थे. दमघोंटू माहौल. किनारे एक छोटा सा बाथरूम. उसी के अन्दर टॉयलेट. फ्लाइट की जानकारी के लिए न कोई डिस्प्ले न लाउडस्पीकर की उद्घोषणा. हाल से बाहर जाने की मनाही थी. अगली फ्लाइट की जानकारी कैसे मिले, इसके लिए भी हमें उसी व्यक्ति पे निर्भर होना था जो हाल के प्रवेश द्वार पे बैठा था.
हम उसके पास गए और पूछा,” हमारी अगली फ्लाइट सही वक्त पे हैं न?”
“अभी आप की फ्लाइट 8 घंटे बाद है. अभी उसकी कोई जानकारी नहीं है”.
तीन घंटे बाद हमने फिर पूछा उससे,” हमें अगली फ्लाइट का बोर्डिंग पास तो दे दो”.
“वो फ्लाइट पूरी फुल है. उसमें जगह नहीं है”.
“अरे ये कैसे? हमने तो कन्फर्म टिकट लिया था”.
“आपने आगे की यात्रा का टिकट रिकंफर्म नहीं किया था. इसलिए सीट कैंसिल हो गयी”.
“अरे ये क्या नाटक है. मुझे जाने दो काउंटर पे. मैं उनसे बात करूँगा”.
“नहीं आपको जाने की इजाजत नहीं है”.
हम तो बड़े तनाव में आ गए. इस जेल में 24 घंटे और रहना नरक सामान था. कुछ भारतीय ग्रुप वहाँ बैठा था. सोचा उनसे कुछ मार्गदर्शन हो.
“हेलो भाई लोगों, आप सब भारतीय हैं? कहाँ जाना है?”
“हाँ हम सभी को दिल्ली जाना है. लीबिया से आ रहे हैं बाई रोड. यहाँ इसी हाल में 4 दिन से पड़े हैं. आगे का टिकट नहीं हो रहा कन्फर्म”.
“पर ये लोग हमें क्यों नहीं जाने दे रहे एयरलाइन काउन्टर पे?”
“ये काहिरा है. बहुत ही भ्रष्ट. जाने तो नहीं देंगे, लेकिन आप उस प्रवेश द्वार पे बैठे व्यक्ति से कुछ लेन-देन कर लें तो आपका काम हो सकता है. ऐसे तो आप बैठे रहेंगे हफ़्तों”.
मैं वापस पहुँचा उस व्यक्ति के पास और डरते हुए कहा,”भाई मै दिल्ली से आपके लिए कुछ लाया नहीं. ये लो, अपने बच्चों के लिए कुछ केक खरीद लेना”.
दस डॉलर देख के वो व्यक्ति मुँह बनाता हुआ बोला,”इतने में केक नहीं मिलता”.
“फिर कितने में मिलता है?”
“इतने ही और लगेंगे”
“ये लो भैया”, कहते हुए मैंने उसे 10 डालर और थमाए.
उसने रख लिए और बोला,” ठीक है आधे घंटे बाद आना मेरे पास. अभी जाकर वहाँ बैठो”.
इकत्तीस मिनट बाद मै फिर पहुंचा उसके पास,”भाई मेरा बोर्डिंग पास आ गया क्या?”
“भेजा हुआ है. इंतज़ार कीजिये”.
एक घन्टे बाद पासपोर्ट की गड्डी आई उसके पास. मैं तुरंत पहुँचा. कई और लोग भी थे. वो एक एक पासपोर्ट देख रहा था. कुछ सफल लोग अपना पासपोर्ट लेकर बाहर जा रहे थे. असफल लोग वापस हाल में. अंततः मेरा पासपोर्ट भी दिखा बोर्डिंग कार्ड के साथ. जितनी खुशी मुझे उस वक्त हुई, उतनी शायद प्रोजेक्ट पूर्ण करने के बाद भी न होगी. वापस आकर उन लीबिया वाले भारतीयों से विदा ली. वो सब मुझे जलनभरी निगाहों से देख रहे थे.
इजिप्ट एयर का विमान दिल्ली की ब्लू लाइन बस लग रहा था. बोर्डिंग पास में सीट नंबर नहीं. बैठने में ही काफी भगदड़ रही. कई फॅमिली वाले अलग थलग बैठने को मजबूर हुए. खाने में न जाने क्या दिया था. हमें डर लग रहा था कहीं बीफ न दे दिया हो. इसलिए बस सब्जी भाजी और ब्रेड खा ली, बाकी सब छोड़ दिया. इरिट्रिया की राजधानी अस्मारा में विमान उतरा. बहुत ही छोटा सा हवाई अड्डा. बाहर निकल के टैक्सी से होटल पहुँचा. वहाँ की लोकल करेंसी का नाम था “नक्फा”. उस समय एक नक्फा में करीब ६ भारू होते थे.
खाने की बड़ी विकट समस्या नजर आ रही थी रेस्टोरेंट में. कुछ न सूझे मीनू में क्या लिखा है. खैर वेटर को बुला के बोला,” लेंटिल सूप, ब्रेड, राईस”.
पहले वो लेंटिल सूप लाया. जो दाल ही थी. जब तक मैंने उसे ख़त्म न किया, वो अगली डिश न लाया. बड़े बेवकूफी भरे अंदाज में मैंने दाल के बाद सूखी ब्रेड चबाई, फिर चावल निगला. बड़ी समस्या थी. वहाँ लोग अंगरेजी भी नहीं समझते थे ठीक से.
अगले दिन मैं थोड़ा स्मार्ट हुआ. उसे पहले ही बोल दिया,”ब्रिंग एवरी थिंग टुगेदर (सब कुछ एक साथ लाओ)”. उसने टुगेदर का मतलब कुछ और ही समझा. चावल दाल ब्रेड सब कुछ एक ही कटोरे में मिला के ले आया. पता नहीं कौन सी खिचडी बन गयी थी.
रात में सोना भी मुश्किल हुआ. होटल के सामने एक चर्च था. वहाँ रात बारह-एक बजे तक जोर जोर से औरतों की चीख चिल्लाहट आती रही. पता लगा ये वहाँ रोज का टंटा है. रात में “पेशेवर औरतों” का काम शुरू होता था.
मैंने सोचा इस तरह तो मैं होटल में नहीं रह पाऊँगा. होटल से बाहर निकला. एक छोटे से रेस्तराँ के आगे फुटपाथ पे पडी कुर्सियों पे कुछ भारतीय नजर आये. मैं भी बैठ गया. बातचीत से पता लगा वहाँ बहुत सारे भारतीय अध्यापक कार्यरत हैं. उन्होंने प्रोफ़ेसर मिश्राजी का पता दिया, जो प्रयाग के रहने वाले थे और अवध विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे थे. बड़ी ख़ुशी हुई उनसे मिलकर उनके घर जो सेम्बेल में था. उन्ही लोगों ने मुझे एक प्रोपर्टी डीलर का नंबर दिया. उसने मुझे एक घर दिखाया फर्निश्ड, जो मैंने ले लिया तुरंत. अब खाना खुद बनाऊँगा तभी ज़िंदा रह पाउँगा. उसी दिन शिफ्ट कर लिया मैंने उस मकान में. रात का खाना बनाया ‘चिकन चावल’ और अच्छे से सोया संतुष्ट होकर.
अगले दिन सुबह उठा. ऊपर गाउन डाला. चाय बनाया और निकल गया बाहर लान में निरिक्षण करने. अच्छा घर था एक आदमी के लिए. दो बेडरूम, ड्राइंग डाइनिंग अलग. एकदम मेन एयरपोर्ट रोड से लगा हुआ. बाहर तीन तरफ लान जिसमें कुछ पौधे आरोपित थे. चाय समाप्त की और निरिक्षण पश्चात वापस दरवाजे के भीतर घुसना चाहा.
लेकिन ये क्या दरवाजा तो बंद हो गया. ये वो वाला आटोमेटिक दरवाजा था जो अपने आप लॉक हो जाता था, और अन्दर से ही खुलेगा या फिर चाभी से. मैं तो सन्न रह गया. ध्यान आया, डीलर ने चेतावनी दी थी इस दरवाजे की. लेकिन बेध्यानी में मैं बाहर निकल गया. अब करूँ तो क्या करूँ? एक दो बार धक्का मारा, शायद इंटरलोंक टूट जाए. लेकिन कुछ न हुआ. बड़ा मजबूत था दरवाजा. अनजान जगह विदेश की. भाषा का ज्ञान नहीं. किससे लेने जाऊँ सहायता. जेब खाली. एक भी फूटी कौड़ी नहीं. सर पकडे बैठा रहा काफी देर.
फिर कुछ सोच बाहर निकला. सड़क पे देखा एक बेकरी की दूकान. वहाँ जा के जायजा लिया. एक अफ्रीकन लड़की करीब बीस वर्ष की बैठी थी दूकान पे. दो-तीन ग्राहक खड़े थे. पास में ही एक लैंडलाइन टेलीफोन पडा था. दिमाग पे जोर डाला. डीलर का नंबर याद करने की कोशिश किया. होटल से कई बार उसे डायल किया था.
फिर उस लड़की की और मुखातिब हुआ अंगरेजी में,” मेरे घर का दरवाजा बंद हो गया है. बड़ी मुश्किल में हूँ. पैसे नहीं हैं. एक फोन करना है”.
उसके जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही मैं टूट पडा फोन पे. इसके पहले कि वो मना कर दे.
पहली बार में ही सही लग गया, “हाइ वोल्डे जोसेफ, अरे मैं बड़े मुश्किल में फंस गया”.
एक ही सांस में उसे सारी बात कह डाली. उसने कहा ठीक है आप इंतज़ार कीजिये. मैं मकान मालिक के पास जाता हूँ. पता नहीं डुप्लीकेट चाभी है भी या नहीं. मैं फिर दूकान से बाहर आ गया बिना उस लड़की की और देखे. यदि उसने पैसे माँग लिए तो क्या होगा. लेकिन उस लडकी ने भी पैसे नहीं माँगे. व्यस्तता वश या किसी और कारण, पता नहीं.
खैर करीब एक घंटे के बाद जोसेफ आ गया. बड़ी ख़ुशी हुई जब उसके हाथ में चाभी देखी. दरवाजा खोल के वापस चला गया वो. उसके बाद कभी भी मैंने उस आटोमेटिक दरवाजे का प्रयोग नहीं किया. पीछे किचेन के दरवाजे से बाहर निकलता था.
कुछ दिन बीते. एक दिन सुबह चाय पीने के बाद जब नहाने गया तो देखा कहीं पानी नहीं आ रहा था. मेरी आदत ऐसी कि बिना नहाए मैं ऑफिस जा ही नहीं सकता. उस दिन पहली बार मैं बिसलरी की एक बोतल से नहाया. बस ऊपर से डाल के गीला किया और तौलिये से पोंछ लिया. नहाने की फीलिंग आ गयी.
लेकिन ताजुब तो तब हुआ जब कई दिनों तक पानी न आया. पता चला कहीं पानी की नई पाइप डल रही है. इसलिए कुछ दिन नहीं आयेगा. लेकिन एक महीने हो गए पानी नहीं आया. पता चला पुरे मोहल्ले में नहीं आ रहा और कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था. मैंने उनके स्वभाव की दाद दी. भारत में तो धरना प्रदर्शन सब हो जाता. खैर हम रोज एक जरीकेन भर के पानी लाते टेलीफोन एक्सचेंज से और उसी से काम चलता.
फिर एक दिन मिश्राजी पधारे,”कैसा चल रहा है? कोई सहायता चाहिए?”
“हाँ एक खाना बनाने वाला चाहिए”.
“चलो यहीं बगल में एक थी मेरी जान पहचान की. देख के आते हैं”.
भाग्य से वो अपने घर में मिल गयी. उसकी एक चौदह पंद्रह साल की बच्ची थी. उसी को लगाया काम पे. अब वो ठहरी अफ्रीकन. उसे भारतीय व्यंजन की कोई जानकारी तो थी नहीं. सो हमने उसे एक अत्यंत ही सरल तरीका बताया डेमो के साथ.
“सब्जी के लिए आलू काटो बड़ा बड़ा. फिर उसे तेल में फ्राई कर दो. बाहर निकालो. मसाला भूनो. उसमें आलू डाल दो. ऊपर से टमाटर काट के डाल के हल्का उबाल के ढक देना. बस”.
“ओके”.
“ऐसे ही सारी सब्जियाँ बनाना. आलू, बैगन, गोभी सब”.
“ओके”
एक दिन आ के देखा पालक के पत्ते भी उसने तेल में पापड की तरह फ्राई कर दिए थे बड़ा बड़ा. हम सर पकड़ के बैठ गए.
एक दिन मैं वहाँ की लोकल सिटी बस में चढ़ा. कोई सीट खाली न थी. मुश्किल से दस मिनट का रास्ता था मेरे घर का इसलिए मै भी निश्चिन्त था. तभी यकायक एक अठारह वर्ष का लड़का अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट मुझे देने लगा. मै हैरान. भला ये मुझे कैसे जानता है. मैंने मना किया पर वो न माने. अपनी भाषा में कुछ बोले जा रहा था और अपनी सीट पे बिठा के ही माना. मै समझ गया, ये हमारे भारतीय शिक्षकों की पढाई का कमाल है. सभी भारतीय वहाँ शिक्षक ही थे. केवल मैं ही इंजिनियर था. उसने मुझे भी शिक्षक समझ लिया. नमन किया मैंने भारतीय शिक्षक वर्ग को जिनके प्रयत्न से भारतीय संस्कृति का शंख वहाँ अफ्रिका में भी ध्वनित हो रहा था. वरना अफ्रिका में तो लूट खसोट और किडनैपिंग का ही बोलबाला है. ये हमारे शिक्षकों का ही कमाल है, शैशवकाल से उच्च विद्यालय तक विद्यार्थियों में भारतीय संस्कार पिरोये. फलस्वरूप इथियोपिया और इरिट्रिया में सुरक्षा और शांति है. जबकि बाकी देशों में आप दिन में भी लूट लिए जाते हैं. नाइजीरिया के भरे बाजार में भारतीय राजदूत की पत्नी कार में बैठी थी. सीडी नंबर प्लेट. भारत का झंडा कार के बोनट पे लगा हुआ. फिर भी एक अफ्रीकन आ के उनका गोल्ड चेन खींच रहा था. वो चिल्लाए जा रही थी. कोई सुनने वाला नहीं.
इसी बीच इरिट्रिया और इथियोपिया में पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया. पुराना सीमा विवाद था. टीवी के प्रोग्राम तो पहले ही जादा समझ न आते थे, सिवाय कुछ अंग्रेजी सेरिअल्स को छोड़. अब तो एकदम देशभक्ति के ही गाने आने लगे स्थानीय भाषा में....आजाबे ना...आजाबे ना....आजाबे ना.
एक दिन टेलीफोन एक्सचेंज के पास हम टहलते आ रहे थे हल्का लंच खाने के बाद. एक भारतीय सज्जन भागते हुए आये,”आप लोग कब वापस जा रहे हैं? जर्मन लोग आज चले गए. अमेरिकन कल जायेंगे”.
“अच्छा हालत जादा खराब हो गयी क्या?”
“हाँ, इथियोपिया ने कई भारतीय फाइटर पायलट हायर किये हैं. उनका निशाना अचूक है. इरीट्रिया के पास तो केवल गिन के चार फाइटर प्लेन हैं. यहाँ खतरा बहुत है”.
तब तक हमारे मित्र कृशन भी दिल्ली से हमारे पास आ चुके थे प्रोजेक्ट के दुसरे फेज में. हम दोनों शाम को घर पे चाय पीते हुए चर्चा कर रहे थे, क्या किया जाय. तभी एक जोरदार धमाका हुआ. घर की दीवारें हिल गईं. खिड़की के कांच टूट गए. हम लोग गिरते पड़ते बाहर की तरफ भागे. मगर बाहर कहीं कुछ नजर न आया. बहुत डर गए थे हम और अन्दर तक हिले हुए.
हमने सोचा क्या किया जाय. बिना प्रोजेक्ट पूर्ण किये जाना अपनी आन-बान के खिलाफ था. रहते हैं तो जान जोखिम में. फिर फैसला किया, सारी परिस्थिति लिख के भेज देते हैं दिल्ली. उन्ही पे डाल देते हैं फैसला.
लेकिन दिल्ली वाले हमसे भी जादा चालाक. दो लाइन का जवाब आया, ”जो तुम्हें ठीक लगे करो. परिस्थिति के हिसाब से स्वयं निर्णय लो”.
हम नहीं गए. ऐसे ही युद्ध चलता रहा. और हम काम करते रहे. बाद में पता चला वो बम फटा था, जिसमें इरीट्रिया का एक युद्धक विमान तबाह हो गया. कुछ दिनों पश्चात उनके चारों विमान नष्ट कर दिए गए.
शाम को पत्नी से बात किया तो अलग ही समस्या आन पडी. एटीएम कार्ड खराब हो गया था. ये अकाउंट केवल मेरे नाम था. पत्नी कुछ कर भी नहीं सकती थी. इसी तरह के कई व्यवधान आते हैं परिवार में जब हम दूर होते हैं. खैर हमारे दिल्ले के बॉस वर्माजी ने अपने अकाउंट से पैसा भिजवाया मेरे घर.
एक दिन सेटेलाइट स्टेशन पहाडी के ऊपर हम संचार प्रणाली लगाने में व्यस्त थे. ये स्टेशन आर्मी एरिया में था. साथ में इरिट्रिया टेलिकॉम के कई कर्मचारी हाथ बंटा रहे थे. तभी एक व्यक्ति आया कमरे में. कुछ निरिक्षण किया. उन कर्मचारियों से वार्ता की. सभी अपने काम में ही लगे रहे. कोई खडा भी न हुआ. हमने सोचा कोई होगा इन्हीं के विभाग का. लेकिन जब वो चला गया तो मैंने ऐसे ही उत्कंठा वश पूछा, “कौन था?”
तेस्फालेम ने जवाब दिया,” ये हमारा रक्षा मंत्री था”.
“अरे पहले क्यों नहीं बताया? हम भारतीय कितने अशिष्ट साबित हुए. हम उठ के उनका अभिवादन करते”, मैंने खड़े हो के प्रतिवाद किया.
“नहीं ऐसा क्यों करना? ये लोग तो कहीं भी मिल जाते हैं. खाना भी आम लोगों की ही तरह खाते हैं, रेस्टोरेंट में या फिर फुटपाथ पे चलते फिरते”.
मैंने नमन किया ऐसी व्यवस्था को. तुलना किया इनकी हमारे भारतीय मंत्रियों से जिनके साथ पूरा लाव-लश्कर चलता है.
गजरथ एक्सचेंज में काम करते वक्त एरिट्रिया टेलीकाम के एक सहयोगी ने तंज कसा, ”भारतीय औरतें केवल फिल्म और टीवी में ही सुन्दर लगती हैं. ऐसे सड़क पे देखो तो बेकार”.
मैंने सोचा क्या जवाब दूँ. फिर नहले पे दहला मार ही दिया,” अफ्रीकन औरतें तो टीवी पे भी नहीं सुन्दर लगती”.
ऐसे ही हंसते बोलते प्रोजेक्ट पूरा हो गया. बेचारे इरीट्रीयन बड़े अच्छे थे. इस प्रोजेक्ट में उन्होंने हमें पार्टी दी प्रोजेक्ट पूर्ण होने पे. बढ़िया होटल में कॉकटेल डिनर. जबकि वो क्लाइंट थे, इसलिए पार्टी हमें देनी चाहिए थी. उन्होंने प्रशस्ति पत्र भी दिया हमारे व्यक्तिगत नाम से. और हम किसी छोटी सी बात पर खुंदक में थे कि रिटर्न पार्टी नहीं दी. ये दुःख हमें जीवन में बहुत दिनों तक सालता रहा.
खैर ये मेरे जीवन का सबसे छोटा प्रोजेक्ट था. केवल चार महीने का. लेकिन इसमें बहुत कुछ सीखा जो जीवन पर्यंत काम आया. ठीक चार महीने बाद किराए के मकान की चाभी वापस कर दी. वापसी का टिकट हमने वाया काहिरा के बजाय साना (यमन) करा लिया था.
आते समय नया खरीदा कोरियन कम्बल दान कर दिया उस छोटी काम वाली बच्ची को कृशन ने. हम एअरपोर्ट के लिए घर से निकल टैक्सी में बैठ ही रहे थे कि देखा वो बच्ची अपनी माँ के साथ भागी चली आ रही थी. उसकी माँ कम्बल पा के बहुत खुश थी. उसके रोम रोम से आशीर्वाद फूट रहा था. अपनी भाषा में जाने क्या बोले जा रही थी दोनों हाथ ऊपर उठाये. समझ में कुछ न आते हुए भी सब समझ रहे थे हम. बॉडी लैंग्वेज और प्रेम की भाषा के लिए शब्द चाहिए ही नहीं.
(दुर्भाग्यवश मेरे कंप्यूटर में इरिट्रिया की कोई फोटो नहीं है. सभी मेरे नॉएडा निवास के एलबम में पड़े हैं. इसलिए क्लाइंट का प्रशस्ति पत्र ही लगा दे रहा हूँ).

Jul 13, 2020

मेरा अफगानिस्तान प्रवास: Yr-2005


यूं तो अपने जीवन काल में हमने अनेक देशों में कार्य किया हैं, लेकिन आज विचार आया क्यों न ऐसे देश के बारे में लिखा जाय जो थोडा भिन्न हो. प्रायः लोग पर्यटन स्थलों या सुन्दर मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हैं. मै किसी रोमांचक खतरनाक कार्यस्थल बारे में लिखना चाहूँगा. और जब खतरनाक स्थलों की बात चले तो अफगानिस्तान शायद सबसे ऊपर आयेगा.
वही भूमि जिसके बारे में कहा जाता है ये कभी गुलाम न हुई. जिस किसी ने इसे गुलाम बनाने का प्रयत्न किया, वो स्वयं मिट गया. सिवाय एक शख्स के, महाराजा रणजीत सिंह. इनके सेनापति हरी सिंह नलवा का एसा जलवा था, की उनके मरने के बाद भी लोगबाग उनके शव के पास न गए बहुत दिनों तक डर के मारे. काबुल तक पंजाब का राज्य फ़ैल चुका था.
जी हाँ ये वही अफगानिस्तान है जहाँ के गांधार नरेश शकुनि व उनकी भगिनी गान्धारी ने महाभारत काल में इतिहास रच दिया था. जहाँ कभी बौद्ध भिच्छुओं ने बामियान की कंदराओं में अप्रतिम विशालकाय बुद्ध प्रतिमाओं का गढन कर डाला था. और वही सरजमीं जहां पृथ्वीराज चौहान व उनके वीर दरबारी कवि चन्द्रवरदाई ने मुहम्मद गोरी के शीश को शब्दभेदी बाण से विच्छिन्न कर दिया था.
वही देश जो सोवियत संघ जैसे विशाल राष्ट्र के लिए उसके विघटन का निमित्त बना. अमरीका जैसे विश्व शक्ति के गढ़ में विमान सहित आक्रमण करवा के भूमिगत होने वाले ओसामा की पनाहस्थली. विश्व की दोनों महाशक्तियों को अभूतपूर्व हानि पहुंचाने वाले दुर्दांत गिरोहों की शरणस्थली अफगानिस्तान से ज्यादा खतरनाक भला और कौन सी जगह हो सकती है.
इसलिए जब हमें वहाँ 3 सप्ताह के लिए आप्टिकल फाइबर व अन्य दूरसंचार नेटवर्क सर्वेक्षण के लिए प्रस्तावित किया गया, तो डर व रोमांच से बदन सिहर गया. अभी अभी माओवादियों के गढ़ नेपाल से किसी तरह प्रोजेक्ट पूर्ण करके सही सलामत वापस दिल्ली आया ही था. मैनेजमेंट ने कहा, तुम्हें आतंकी इलाकों में काम करने का अच्छा अनुभव हो गया है. तुमसे बेहतर कोई नहीं है. न जाने का कोई मार्ग न सूझा. नौकरी इसी का नाम है. मान न मान करनी ही पड़े है. मन में बोला, चढ़ जा बेटा सूली पे भली करेंगे राम.
बहरहाल विमान में बैठ दिल्ली से उड़ा और काबुल जा पहुंचा. संचार नेटवर्क सर्वेक्षण की प्लानिंग करते वक्त हमें कहा गया, दो बंदूकधारी अंगरक्षकों को साथ ले जाने के लिए. हमने मना कर दिया. भला एके सैतालिस से लैस तालिबानियों के लिए इन दो बंदूकधारियों को निपटाना तो मच्छर मारने के सामान होता. साथ ले जाने में अलग से हाई लाईट हो जाते और आतंकियों की नजर में आ जाते. हाँ उनका ये प्रस्ताव हमने स्वीकार कर लिया, एक स्थानीय अनुवादक को साथ ले जाने के लिए.
अगले दिन सुबह हमारे साथ हमारा कनिष्ठ सहयोगी, स्थानीय अनुवादक, पाकिस्तानी वाहन चालक सब लोग लैंड क्रूजर में बैठ काबुल से बाहर निकल पड़े. पूरे रास्ते कोई ऐसा मकान न दिखा, कोई ऐसी दीवाल न दृष्टिगोचर हुई, जिसमें गोलियों के सुराख न हों. अनगिनत सुराखें. कुछ छोटी, कुछ बड़ी. इस देश ने सदियों से खून खराबे ही देखे. चाहे वो पाषाण काल हो, लौह काल हो, मुगलों का बारूद काल, रूसियों के साथ लड़ते तालिबानियों का काल हो या फिर अल कायदा का काल. सौ में शायद ही एक इमारत होगी जो क्षतिग्रस्त न हो कहीं न कहीं. इसलिए मकानों का किराया बहुत महँगा था.
थोड़ा आगे बढे तो एक टैंक दिखा सड़क के बगल में खडा, आडा टेढा. मैं चिल्लाया, “रुको रुको, आगे खतरा है”.
वाहन चालाक,”क्या हुआ?”
“वो देखो, आगे कुछ लोग टैंक लेके खड़े हैं”.
“अरे साहब वो कुछ खतरा नहीं है”.
“क्यों?”
“वो सब टैंक यहाँ कई वर्षों से पड़े हैं बेकार. ये सब टैंक नष्ट कर दिए गए थे तालिबानियों द्वारा जिन्हें रूसी सैनिक यहीं सड़क पे छोड़ के भाग गए अपने देश”.
“अरे इनमें तो कई टन का लोहा पडा है, कोई कबाड़ी ले नहीं जाता?”
“नहीं साहब, इसे ले जाने की लागत ज्यादा है, बिकेगा नहीं. यहाँ कोई उद्योग कारखाना नहीं है जहाँ इसे गलाके उपयोग किया जा सके”.
रास्ते भर ऐसे न जाने कितने टैंक जहाँ तहाँ पड़े दिखे नष्ट अवस्था में. कुछ और आगे बढे तो लघुशंका की अनुभूति हुई. एक निर्जन मरुस्थल में सड़क किनारे वाहन रुका. मै उतर के तेजी से वाहन से दूर सड़क से नीचे जाने को भागा.
पीछे से अनुवादक चिल्लाया,”अरे साहब यहीं निपट लो दूर न जाओ”.
मैं पलटा, ”क्या बकवास है. कुछ लाज शर्म नहीं है क्या तुम अफगानियों में?”
“अरे साहब जान चली जायेगी तो लाज शर्म क्या करेगा?”
“यहाँ सब सन्नाटा है. कौन लेगा जान?”
“यहाँ सड़क से कुछ दूर जगह जगह बारूदी सुरंगें बिछी हैं. जिन्हें रूसी सैनिकों ने बिछाया था, तालिबानियों से बचने के लिए. जब इनके काफिले गुजरें तो वो आक्रमण न कर सकें राकेट लांचर से. रूसी तो चले गए यहाँ से. लेकिन अब वो सुरंगें कहाँ कहाँ बिछी हैं, ये किसी को नहीं पता. अभी भी यदा कदा बकरी-भेड़ें इन सुरंगों के फटने से मरती रहती हैं. आदमी तो सड़क से नीचे उस तरफ जाते ही नहीं”.
मैं सिहर गया सुनकर. अगर ये स्थानीय लोग साथ न होते तो मेरा क्या होता.
दोपहर खाने का वक्त हो चला था. सड़क किनारे एक जीर्ण शीर्ण अवस्था में ढाबे जैसी जगह रुके हम. नीचे जमीन पे दरी बिछी थी उसी पे बैठे थे सब लोग. हम भी नीचे बैठ गए पालथी मार के. शाकाहारी तो कुछ मिलता न था. अतः मटन का आर्डर दिया गया. एक प्लेट में आया शोरबा के साथ. चावल तो मिलता न था. सो रोटी माँगी गयी.
दो फिट की लम्बी रोटी दूर से फेंकी गयी जो दरी पे आकर गिरी. उसी दरी पे लोगबाग चल रहे थी पैर रखके. और उसी दरी पे रोटी नीचे रख के खा रहे थे सब. मै जाकर दूसरी रोटी लाने को उद्यत हुआ.
पाकिस्तानी ड्राइवर ने रोक दिया,”साहब चुपचाप खा लो. अलग विदेशी जैसा न दिखो. यहाँ का यही चलन है. अलग दिखोगे तो जान जोखिम में आ जायेगी. ज्यादा कहीं रुकना नहीं है. जितना हो सके गाडी में ही चलते जाना है. ज़रा ज़रा सी बात पे गोलियाँ चल जाती हैं”.
रोटी थी तो अच्छी लेकिन ऐसे जमीन पे रख के खाया नहीं जा रहा था. कुछ लोग जाँघ पे रख के खा रहे थे. वहाँ यदि खाना बच जाय किसी ग्राहक का, तो जूठा खाना भी फेंकते नहीं थे. उसे बाकी खाने में डाल देते थे. और फिर उसे ही आने वाले नए ग्राहक को परोस देते थे. मन खिन्न हुआ, पर क्या करें. खैर किसी तरह आगे बढे. शाम चार बजे तक कांधार पहुँच गए. वही शहर जहाँ की थी हमारी गान्धारी. ये स्थान पाकिस्तान सीमा से मात्र २०-२५ किमी दूर है. टेलीफोन एक्सचेंज पहुंचे.
वहाँ उतरते ही एक कर्मचारी ने पूछा, “ इन्डियन हो या पाकिस्तानी?”
“इंडियन”
बहुत खुश हुआ वो.”वल्लाह इंडियन, इंडिया में कहाँ से?”
“दिल्ली से”
“सोनू निगम आपके घर से कितना दूर रहता है?”
“वो मुंबई में है. हजार किमी दूर”.
“मुझे वो बहुत पसंद है”.
“यहाँ से पाकिस्तान बार्डर कितना दूर है?”, मैंने बात बदली.
“बीस किमी. मगर शाम के चार बज गए हैं. मत जाइए वहाँ”.
“क्यों?”
“बहुत बेकार एरिया है. आपको लूट लेंगे. गाडी वाडी सब छीन लेंगे”.
हमने इच्छा प्रकट की वो हवाई अड्डा देखने की जहाँ भारतीय वायुयान हाइजैक करके लाया गया था काठमान्डू से कांधार.
“हाँ, वहाँ जा सकते हैं. यहाँ से उसी रोड पे है. चार किमी दूर”.
हम पहुंचे उस हवाई अड्डे पे. सड़क से ही देखा उसे. जीर्ण शीर्ण अवस्था में बस एक टूटी फूटी हवाई पट्टी. मुझे याद दिला गयी अपने प्रतापगढ़ के पिरथीगंज गाँव की हवाई पट्टी जो अंग्रेजों ने द्वितीय विश्व युद्ध काल में बनाई थी. मगर कभी प्रयोग में न आई. उसपे धान सटका जाता है अब.
वहीं से वापस हो लिए हम और एक होटल में रुके. होटल क्या था पूरा किला. उपर हर दीवाल पे हथियारबंद जवान तैनात थे. रात्रि भोजन में रोटी लाने में ज्यादा देर हुई तो इंटरकाम पे हमने डांट लगाई.
वो कमरे में आ गया और बोला,”आप लोग कैसे गुस्सा कर सकते हैं? आप लोग तो शरीफ हिन्दुस्तानी हैं. गुस्सा तो केवल हम खान लोग ही कर सकते हैं”.
ये नई परिभाषा दिलचस्प लगी.
अगले दिन यात्रा जारी हुई. कांधार से हेरात की तरफ. कुछ दो घंटे चलने के बाद पिच रोड समाप्त हो गयी. रह गए बस बालू के ट्रैक. समानांतर आड़े तिरछे बहुत सारे ट्रैक. हम कहाँ जा रहे हैं, ये कुछ समझ नहीं आ रहा था. फिर एकाएक हरा भरा खेत नजर आया. रुके वहाँ. देखा गौर से और पूछा तो पता चला खरबूजे का खेत है. विशवास न हुआ जब देखा की खरबूजे की साइज तरबूज जितनी है. सोचा शायद बहुत सारा रसायन / उर्वरक डाल के बड़ा कर दिया होगा, स्वाद नहीं होगा. लेकिन खाने के बाद पाया अत्यंत रसभरा और स्वादिष्ट. बताया गया की वहाँ के खरबूजे ऐसे ही होते हैं, बड़े एवं जूसी. पहली बार अफगानिस्तान में कुछ अच्छी वस्तु नजर आई. खेत वाले से पूछा गया तो पता चला आगे के ट्रैक से हेरात पहुँचना संभव नहीं है, और खतरनाक भी. मरुभूमि में गुम हो जाने का भी खतरा है. सो वहीं से वापस हो लिए.
वापस काबुल आके फिर जलालाबाद की तरफ प्रस्थान किया गया. पाकिस्तान बार्डर के निकट. वहाँ एक गाँव दिखा. हमारे पाकिस्तानी ड्राइवर के कुछ मित्र मिल गए. वे हमें अपने साथ ले गए एक पहाडी पे. वहाँ देखा कुछ लोग राकेट लान्चर लेके घूम रहे थे. डर लगा. उसने कहा मत डरो अपने ही आदमी हैं.
फिर हमने कौतूहल वश पूछा,”ये लान्चर है. इसे कैसे चलाते हैं?”
“आइये आपको दिखाते हैं”.
कहके वो जमीन पे बैठ गया और पोजीशन ले ली. और फिर देखते देखते फायर कर दिया. दूर एक गाँव में गोला गिरा और आग व् धुँवा उठा.
हम चिल्लाए,”अरे ये क्या कर दिया? वहाँ तो बस्ती थी, लोग रहते होंगे?”
“तो क्या हुआ? ये तो हमारा रोज का काम है. कुछ उधर से मारते हैं. कुछ हम इधर से फेंकते हैं”.
उनकी ये जिन्दगी देख हमें जीवन का एक विचित्र अनुभव हुआ. दुनिया में कैसी कैसी जीवन शैली है लोगों की.
खैर हमने विदा ली. वापसी में शाम का धुंधलका छाने लगा. पहाड़ियों के बीच हम चले जा रहे थी. अचानक एक अमरीकन कैम्प का चेक पोस्ट आया. कुछ आपाधापी मची थी. हमारी गाडी रोकी गयी. अमरीकन सैनिकों में से एक ने अंग्रेजी में पूछा,”कौन हो तुम लोग? और कहाँ से आ रहे हो?”
बाकी लोगों को तो अंगरेजी आती नहीं थी. इसलिए मैंने जवाब दिया,”हम भारतीय हैं. यहाँ आये हैं संचार नेटवर्क का सर्वेक्षण करने”.
“इंडियन? ओह वेरी गुड. ग्लैड तो मीट यू. वेरी बैड नेटवर्क हियर. अपना पासपोर्ट दिखाओ”.
हमारा पासपोर्ट देख के संतुष्ट हुआ. फिर हमारे सहयोगी का देखा. फिर हमारे अनुवादक का लोकल आई-डी देखा, कुछ नाराज होके भुनभुनाया. लेकिन पाकिस्तानी ड्राइवर को देख के तो एकदम भड़क गया.
उसे उतार लिया, और लगा चिल्लाने, गाली देने. पीटने भी लगा. हम दहशत में आ गए. क्या किया जाय.
फिर उसने एक को आर्डर दिया,”इसे ले जाके गोली मार दो”.
अब हमारी इन्द्रियाँ एकदम सुन्न हो गईं. वो ड्राइवर तो लगा कांपने.
फिर मैंने आगे बढ़ के उस अमरीकन सैनिक के कमांडर को खोजा. मिल के विस्तार से बातचीत की. उसने बताया की कुछ पाकिस्तानियों ने उनके काफिले पे आक्रमण करके कई सैनिकों को मार दिया था, इसलिए सारे सैनिक बहुत गुस्से में थे. खैर किसी तरह मिन्नतें करके, समझा बुझा के उस ड्राइवर को उन्होंने हमारी गारटी पे ज़िंदा जाने दिया, काफी कुटाई करने के बाद.
उसके बाद से तो जैसे वो ड्राईवर मेरा गुलाम हो गया. वापस काबुल होते हुए मजारे शरीफ पहुंचे लम्बी यात्रा करके. पूरा दिन लग गया. बीच में काफी ऊँची पहाड़ियाँ भी मिली. ये इलाका एकदम उत्तर में है और रूस से अलग हुए देश उजबेकिस्तान की सीमा से लगी हुई. रेलवे ट्रैक दिखा जो दुसरे देश के अन्दर जा रहा था. अफगानिस्तान में अन्यत्र कहीं ट्रैक नहीं है.
मजारे शरीफ से आगे हेरात की तरफ बढे. रास्ते में अमेरिकन आर्मी का काफिला जा रहा था. हमें बताया गया कि इनके आगे ओवरटेक करके निकलना मना है. यदि जबरदस्ती की तो गोली मार देंगे. बड़े खिन्न मन से उनके पीछे चलते रहे धीरे धीरे कच्छप गति से. हेरात शहर इरान से लगा हुआ है और काफी हरा भरा भी. खरबूजे की खेती दिखी.
वापसी में वहाँ से हम तीन चीजें लाये. रोटी, खरबूजा और शिलाजीत. रोटी बहुत ही सॉफ्ट और बड़ी होती है. खरबूजा बड़ा तरबूज जितना और जूसी भी. शिलाजीत का प्रयोग जादा नहीं किया. प्रयोग विधि की जानकारी नहीं थी.