यूं तो अपने जीवन काल में हमने अनेक देशों में कार्य किया हैं, लेकिन आज विचार आया क्यों न ऐसे देश के बारे में लिखा जाय जो थोडा भिन्न हो. प्रायः लोग पर्यटन स्थलों या सुन्दर मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हैं. मै किसी रोमांचक खतरनाक कार्यस्थल बारे में लिखना चाहूँगा. और जब खतरनाक स्थलों की बात चले तो अफगानिस्तान शायद सबसे ऊपर आयेगा.
वही भूमि जिसके बारे में कहा जाता है ये कभी गुलाम न हुई. जिस किसी ने इसे गुलाम बनाने का प्रयत्न किया, वो स्वयं मिट गया. सिवाय एक शख्स के, महाराजा रणजीत सिंह. इनके सेनापति हरी सिंह नलवा का एसा जलवा था, की उनके मरने के बाद भी लोगबाग उनके शव के पास न गए बहुत दिनों तक डर के मारे. काबुल तक पंजाब का राज्य फ़ैल चुका था.
जी हाँ ये वही अफगानिस्तान है जहाँ के गांधार नरेश शकुनि व उनकी भगिनी गान्धारी ने महाभारत काल में इतिहास रच दिया था. जहाँ कभी बौद्ध भिच्छुओं ने बामियान की कंदराओं में अप्रतिम विशालकाय बुद्ध प्रतिमाओं का गढन कर डाला था. और वही सरजमीं जहां पृथ्वीराज चौहान व उनके वीर दरबारी कवि चन्द्रवरदाई ने मुहम्मद गोरी के शीश को शब्दभेदी बाण से विच्छिन्न कर दिया था.
वही देश जो सोवियत संघ जैसे विशाल राष्ट्र के लिए उसके विघटन का निमित्त बना. अमरीका जैसे विश्व शक्ति के गढ़ में विमान सहित आक्रमण करवा के भूमिगत होने वाले ओसामा की पनाहस्थली. विश्व की दोनों महाशक्तियों को अभूतपूर्व हानि पहुंचाने वाले दुर्दांत गिरोहों की शरणस्थली अफगानिस्तान से ज्यादा खतरनाक भला और कौन सी जगह हो सकती है.
इसलिए जब हमें वहाँ 3 सप्ताह के लिए आप्टिकल फाइबर व अन्य दूरसंचार नेटवर्क सर्वेक्षण के लिए प्रस्तावित किया गया, तो डर व रोमांच से बदन सिहर गया. अभी अभी माओवादियों के गढ़ नेपाल से किसी तरह प्रोजेक्ट पूर्ण करके सही सलामत वापस दिल्ली आया ही था. मैनेजमेंट ने कहा, तुम्हें आतंकी इलाकों में काम करने का अच्छा अनुभव हो गया है. तुमसे बेहतर कोई नहीं है. न जाने का कोई मार्ग न सूझा. नौकरी इसी का नाम है. मान न मान करनी ही पड़े है. मन में बोला, चढ़ जा बेटा सूली पे भली करेंगे राम.
बहरहाल विमान में बैठ दिल्ली से उड़ा और काबुल जा पहुंचा. संचार नेटवर्क सर्वेक्षण की प्लानिंग करते वक्त हमें कहा गया, दो बंदूकधारी अंगरक्षकों को साथ ले जाने के लिए. हमने मना कर दिया. भला एके सैतालिस से लैस तालिबानियों के लिए इन दो बंदूकधारियों को निपटाना तो मच्छर मारने के सामान होता. साथ ले जाने में अलग से हाई लाईट हो जाते और आतंकियों की नजर में आ जाते. हाँ उनका ये प्रस्ताव हमने स्वीकार कर लिया, एक स्थानीय अनुवादक को साथ ले जाने के लिए.
अगले दिन सुबह हमारे साथ हमारा कनिष्ठ सहयोगी, स्थानीय अनुवादक, पाकिस्तानी वाहन चालक सब लोग लैंड क्रूजर में बैठ काबुल से बाहर निकल पड़े. पूरे रास्ते कोई ऐसा मकान न दिखा, कोई ऐसी दीवाल न दृष्टिगोचर हुई, जिसमें गोलियों के सुराख न हों. अनगिनत सुराखें. कुछ छोटी, कुछ बड़ी. इस देश ने सदियों से खून खराबे ही देखे. चाहे वो पाषाण काल हो, लौह काल हो, मुगलों का बारूद काल, रूसियों के साथ लड़ते तालिबानियों का काल हो या फिर अल कायदा का काल. सौ में शायद ही एक इमारत होगी जो क्षतिग्रस्त न हो कहीं न कहीं. इसलिए मकानों का किराया बहुत महँगा था.
थोड़ा आगे बढे तो एक टैंक दिखा सड़क के बगल में खडा, आडा टेढा. मैं चिल्लाया, “रुको रुको, आगे खतरा है”.
वाहन चालाक,”क्या हुआ?”
“वो देखो, आगे कुछ लोग टैंक लेके खड़े हैं”.
“अरे साहब वो कुछ खतरा नहीं है”.
“क्यों?”
“वो सब टैंक यहाँ कई वर्षों से पड़े हैं बेकार. ये सब टैंक नष्ट कर दिए गए थे तालिबानियों द्वारा जिन्हें रूसी सैनिक यहीं सड़क पे छोड़ के भाग गए अपने देश”.
“अरे इनमें तो कई टन का लोहा पडा है, कोई कबाड़ी ले नहीं जाता?”
“नहीं साहब, इसे ले जाने की लागत ज्यादा है, बिकेगा नहीं. यहाँ कोई उद्योग कारखाना नहीं है जहाँ इसे गलाके उपयोग किया जा सके”.
रास्ते भर ऐसे न जाने कितने टैंक जहाँ तहाँ पड़े दिखे नष्ट अवस्था में. कुछ और आगे बढे तो लघुशंका की अनुभूति हुई. एक निर्जन मरुस्थल में सड़क किनारे वाहन रुका. मै उतर के तेजी से वाहन से दूर सड़क से नीचे जाने को भागा.
पीछे से अनुवादक चिल्लाया,”अरे साहब यहीं निपट लो दूर न जाओ”.
मैं पलटा, ”क्या बकवास है. कुछ लाज शर्म नहीं है क्या तुम अफगानियों में?”
“अरे साहब जान चली जायेगी तो लाज शर्म क्या करेगा?”
“यहाँ सब सन्नाटा है. कौन लेगा जान?”
“यहाँ सड़क से कुछ दूर जगह जगह बारूदी सुरंगें बिछी हैं. जिन्हें रूसी सैनिकों ने बिछाया था, तालिबानियों से बचने के लिए. जब इनके काफिले गुजरें तो वो आक्रमण न कर सकें राकेट लांचर से. रूसी तो चले गए यहाँ से. लेकिन अब वो सुरंगें कहाँ कहाँ बिछी हैं, ये किसी को नहीं पता. अभी भी यदा कदा बकरी-भेड़ें इन सुरंगों के फटने से मरती रहती हैं. आदमी तो सड़क से नीचे उस तरफ जाते ही नहीं”.
मैं सिहर गया सुनकर. अगर ये स्थानीय लोग साथ न होते तो मेरा क्या होता.
दोपहर खाने का वक्त हो चला था. सड़क किनारे एक जीर्ण शीर्ण अवस्था में ढाबे जैसी जगह रुके हम. नीचे जमीन पे दरी बिछी थी उसी पे बैठे थे सब लोग. हम भी नीचे बैठ गए पालथी मार के. शाकाहारी तो कुछ मिलता न था. अतः मटन का आर्डर दिया गया. एक प्लेट में आया शोरबा के साथ. चावल तो मिलता न था. सो रोटी माँगी गयी.
दो फिट की लम्बी रोटी दूर से फेंकी गयी जो दरी पे आकर गिरी. उसी दरी पे लोगबाग चल रहे थी पैर रखके. और उसी दरी पे रोटी नीचे रख के खा रहे थे सब. मै जाकर दूसरी रोटी लाने को उद्यत हुआ.
पाकिस्तानी ड्राइवर ने रोक दिया,”साहब चुपचाप खा लो. अलग विदेशी जैसा न दिखो. यहाँ का यही चलन है. अलग दिखोगे तो जान जोखिम में आ जायेगी. ज्यादा कहीं रुकना नहीं है. जितना हो सके गाडी में ही चलते जाना है. ज़रा ज़रा सी बात पे गोलियाँ चल जाती हैं”.
रोटी थी तो अच्छी लेकिन ऐसे जमीन पे रख के खाया नहीं जा रहा था. कुछ लोग जाँघ पे रख के खा रहे थे. वहाँ यदि खाना बच जाय किसी ग्राहक का, तो जूठा खाना भी फेंकते नहीं थे. उसे बाकी खाने में डाल देते थे. और फिर उसे ही आने वाले नए ग्राहक को परोस देते थे. मन खिन्न हुआ, पर क्या करें. खैर किसी तरह आगे बढे. शाम चार बजे तक कांधार पहुँच गए. वही शहर जहाँ की थी हमारी गान्धारी. ये स्थान पाकिस्तान सीमा से मात्र २०-२५ किमी दूर है. टेलीफोन एक्सचेंज पहुंचे.
वहाँ उतरते ही एक कर्मचारी ने पूछा, “ इन्डियन हो या पाकिस्तानी?”
“इंडियन”
बहुत खुश हुआ वो.”वल्लाह इंडियन, इंडिया में कहाँ से?”
“दिल्ली से”
“सोनू निगम आपके घर से कितना दूर रहता है?”
“वो मुंबई में है. हजार किमी दूर”.
“मुझे वो बहुत पसंद है”.
“यहाँ से पाकिस्तान बार्डर कितना दूर है?”, मैंने बात बदली.
“बीस किमी. मगर शाम के चार बज गए हैं. मत जाइए वहाँ”.
“क्यों?”
“बहुत बेकार एरिया है. आपको लूट लेंगे. गाडी वाडी सब छीन लेंगे”.
हमने इच्छा प्रकट की वो हवाई अड्डा देखने की जहाँ भारतीय वायुयान हाइजैक करके लाया गया था काठमान्डू से कांधार.
“हाँ, वहाँ जा सकते हैं. यहाँ से उसी रोड पे है. चार किमी दूर”.
हम पहुंचे उस हवाई अड्डे पे. सड़क से ही देखा उसे. जीर्ण शीर्ण अवस्था में बस एक टूटी फूटी हवाई पट्टी. मुझे याद दिला गयी अपने प्रतापगढ़ के पिरथीगंज गाँव की हवाई पट्टी जो अंग्रेजों ने द्वितीय विश्व युद्ध काल में बनाई थी. मगर कभी प्रयोग में न आई. उसपे धान सटका जाता है अब.
वहीं से वापस हो लिए हम और एक होटल में रुके. होटल क्या था पूरा किला. उपर हर दीवाल पे हथियारबंद जवान तैनात थे. रात्रि भोजन में रोटी लाने में ज्यादा देर हुई तो इंटरकाम पे हमने डांट लगाई.
वो कमरे में आ गया और बोला,”आप लोग कैसे गुस्सा कर सकते हैं? आप लोग तो शरीफ हिन्दुस्तानी हैं. गुस्सा तो केवल हम खान लोग ही कर सकते हैं”.
ये नई परिभाषा दिलचस्प लगी.
अगले दिन यात्रा जारी हुई. कांधार से हेरात की तरफ. कुछ दो घंटे चलने के बाद पिच रोड समाप्त हो गयी. रह गए बस बालू के ट्रैक. समानांतर आड़े तिरछे बहुत सारे ट्रैक. हम कहाँ जा रहे हैं, ये कुछ समझ नहीं आ रहा था. फिर एकाएक हरा भरा खेत नजर आया. रुके वहाँ. देखा गौर से और पूछा तो पता चला खरबूजे का खेत है. विशवास न हुआ जब देखा की खरबूजे की साइज तरबूज जितनी है. सोचा शायद बहुत सारा रसायन / उर्वरक डाल के बड़ा कर दिया होगा, स्वाद नहीं होगा. लेकिन खाने के बाद पाया अत्यंत रसभरा और स्वादिष्ट. बताया गया की वहाँ के खरबूजे ऐसे ही होते हैं, बड़े एवं जूसी. पहली बार अफगानिस्तान में कुछ अच्छी वस्तु नजर आई. खेत वाले से पूछा गया तो पता चला आगे के ट्रैक से हेरात पहुँचना संभव नहीं है, और खतरनाक भी. मरुभूमि में गुम हो जाने का भी खतरा है. सो वहीं से वापस हो लिए.
वापस काबुल आके फिर जलालाबाद की तरफ प्रस्थान किया गया. पाकिस्तान बार्डर के निकट. वहाँ एक गाँव दिखा. हमारे पाकिस्तानी ड्राइवर के कुछ मित्र मिल गए. वे हमें अपने साथ ले गए एक पहाडी पे. वहाँ देखा कुछ लोग राकेट लान्चर लेके घूम रहे थे. डर लगा. उसने कहा मत डरो अपने ही आदमी हैं.
फिर हमने कौतूहल वश पूछा,”ये लान्चर है. इसे कैसे चलाते हैं?”
“आइये आपको दिखाते हैं”.
कहके वो जमीन पे बैठ गया और पोजीशन ले ली. और फिर देखते देखते फायर कर दिया. दूर एक गाँव में गोला गिरा और आग व् धुँवा उठा.
हम चिल्लाए,”अरे ये क्या कर दिया? वहाँ तो बस्ती थी, लोग रहते होंगे?”
“तो क्या हुआ? ये तो हमारा रोज का काम है. कुछ उधर से मारते हैं. कुछ हम इधर से फेंकते हैं”.
उनकी ये जिन्दगी देख हमें जीवन का एक विचित्र अनुभव हुआ. दुनिया में कैसी कैसी जीवन शैली है लोगों की.
खैर हमने विदा ली. वापसी में शाम का धुंधलका छाने लगा. पहाड़ियों के बीच हम चले जा रहे थी. अचानक एक अमरीकन कैम्प का चेक पोस्ट आया. कुछ आपाधापी मची थी. हमारी गाडी रोकी गयी. अमरीकन सैनिकों में से एक ने अंग्रेजी में पूछा,”कौन हो तुम लोग? और कहाँ से आ रहे हो?”
बाकी लोगों को तो अंगरेजी आती नहीं थी. इसलिए मैंने जवाब दिया,”हम भारतीय हैं. यहाँ आये हैं संचार नेटवर्क का सर्वेक्षण करने”.
“इंडियन? ओह वेरी गुड. ग्लैड तो मीट यू. वेरी बैड नेटवर्क हियर. अपना पासपोर्ट दिखाओ”.
हमारा पासपोर्ट देख के संतुष्ट हुआ. फिर हमारे सहयोगी का देखा. फिर हमारे अनुवादक का लोकल आई-डी देखा, कुछ नाराज होके भुनभुनाया. लेकिन पाकिस्तानी ड्राइवर को देख के तो एकदम भड़क गया.
उसे उतार लिया, और लगा चिल्लाने, गाली देने. पीटने भी लगा. हम दहशत में आ गए. क्या किया जाय.
फिर उसने एक को आर्डर दिया,”इसे ले जाके गोली मार दो”.
अब हमारी इन्द्रियाँ एकदम सुन्न हो गईं. वो ड्राइवर तो लगा कांपने.
फिर मैंने आगे बढ़ के उस अमरीकन सैनिक के कमांडर को खोजा. मिल के विस्तार से बातचीत की. उसने बताया की कुछ पाकिस्तानियों ने उनके काफिले पे आक्रमण करके कई सैनिकों को मार दिया था, इसलिए सारे सैनिक बहुत गुस्से में थे. खैर किसी तरह मिन्नतें करके, समझा बुझा के उस ड्राइवर को उन्होंने हमारी गारटी पे ज़िंदा जाने दिया, काफी कुटाई करने के बाद.
उसके बाद से तो जैसे वो ड्राईवर मेरा गुलाम हो गया. वापस काबुल होते हुए मजारे शरीफ पहुंचे लम्बी यात्रा करके. पूरा दिन लग गया. बीच में काफी ऊँची पहाड़ियाँ भी मिली. ये इलाका एकदम उत्तर में है और रूस से अलग हुए देश उजबेकिस्तान की सीमा से लगी हुई. रेलवे ट्रैक दिखा जो दुसरे देश के अन्दर जा रहा था. अफगानिस्तान में अन्यत्र कहीं ट्रैक नहीं है.
मजारे शरीफ से आगे हेरात की तरफ बढे. रास्ते में अमेरिकन आर्मी का काफिला जा रहा था. हमें बताया गया कि इनके आगे ओवरटेक करके निकलना मना है. यदि जबरदस्ती की तो गोली मार देंगे. बड़े खिन्न मन से उनके पीछे चलते रहे धीरे धीरे कच्छप गति से. हेरात शहर इरान से लगा हुआ है और काफी हरा भरा भी. खरबूजे की खेती दिखी.
वापसी में वहाँ से हम तीन चीजें लाये. रोटी, खरबूजा और शिलाजीत. रोटी बहुत ही सॉफ्ट और बड़ी होती है. खरबूजा बड़ा तरबूज जितना और जूसी भी. शिलाजीत का प्रयोग जादा नहीं किया. प्रयोग विधि की जानकारी नहीं थी.
No comments:
Post a Comment