मेरा पहला विदेश प्रवास सऊदी अरब (1994-96) इतना दुखदाई रहा था, कि वापस आने के बाद विदेशी प्रोजेक्ट में कभी न जाने का मन बना लिया था. घर परिवार से दूर, अपने वतन से दूर, काफी प्रताड़ित सा लगता था. मानसिक व शारीरिक दोनों रूप से. उसपे सऊदी अरब तो नीम पे चढ़ा करेला. बंद समाज, विषम परिस्थिति, मनोरंजन के साधनों का आभाव, पूजा पाठ पे प्रतिबन्ध, क्रूर सजा, इत्यादि अनेक कारणों से मन में विरक्ति हो गयी थी.
इसलिए जब एक दिन हमारे सहयोगी कृशन जी अफ्रीका जाने का प्रस्ताव लेकर आये, तो मैं पशोपेश में पड़ गया. कहने लगे, ”डीके भाई, बस चार महीने का छोटा सा प्रोजेक्ट है. जादा लंबा नहीं रहना है. पलक झपकते ही बीत जाएगा”.
सऊदी से लौटे ३ वर्ष बीत चुके थे. जो कुछ कमा के लाये थे, खर्च हो गए. पॉकेट में फिर छेद दिखने लगे थे. इसलिए मस्तिष्क कह रहा था निकल चलो. अंततः एक दो दिन के पशोपेश के बाद हाँ कह दी.
जाना भी ऐसे देश था, जिसका कभी नाम भी न सुना था, ‘इरिट्रिया’. एक छोटा सा देश अफ्रीका में जो इथियोपिया से कट के अलग हुआ, दोनों देशों के बीच लम्बी लड़ाई के बाद. वो लड़ाई अभी भी फट पड़ती थी कभी कभी.
जाने से पहले घरेलु पत्नी ने कहा, ”मुझे बड़ी दिक्कत होती है. पैसे निकालने के लिए बैंक में जा के लाइन में लगो. फिर टोकन के बाद लंबा इन्तजार करो. मुझसे न होगा ये सब”.
तभी मुझे ध्यान आया, बैंक ऑफ़ अमरीका में 16% ब्याज के चक्कर में मैंने ऍफ़डी कराई थी. साथ में सेविंग्स अकाउंट फ्री. एटीएम कार्ड भी दिया था. सोचा ये कार्ड आजमाया जाय. क्या है, कैसा है. गए उसके एटीएम कक्ष में. फ़टाफ़ट एकदम कड़क नोट नए-नए निकल के आ गए. बस फिर क्या था, उसी खाते में चार महीने के घर खर्च का पैसा डाल दिया और कार्ड चलाने का तरीका भी बता दिया पत्नी को. सन 1998 में किसी और बैंक में एटीएम नहीं था.
यात्रा का टिकट आ गया. सीधी विमान सेवा तो थी नहीं इस छोटे से देश के लिए. दिल्ली से दुबई, दुबई में ८ घंटे की प्रतीक्षा, दुबई से काहिरा (मिश्र यानि इजिप्ट की राजधानी काहिरा), काहिरा में ८ घंटे प्रतीक्षा, काहिरा से अस्मारा (इरिट्रिया की राजधानी). दिल्ली से बैठे दुबई के लिए एमिरेट्स (दुबई की एयरलाइन) में. बड़ी अच्छी व्यवस्था. सुरीली सुन्दरियाँ मोहक मुकानों से सहायता को तत्पर. जबकि मेरी पहली वाली सउदिया (सऊदी एयरलाइन) की यात्रा में थीं लाल आँखों से अंगारे बरसाती और गुर्राती लम्बी दाढी वाली खूँखार आकृतियाँ. हर सीट के पीछे छोटा टीवी लगा हुआ, जिसे पीछे बैठने वाले देख सके. सुन्दर पकवानों का लुत्फ़ उठाते और टीवी में गोविंदा की हास्य फिल्म “राजा बाबू” देखते कब दुबई आ गया पता ही न चला.
दुबई में उतरे. हमारा पासपोर्ट उन्होंने ले लिया और एक कार्ड जैसा पास दे दिया. आठ घंटे बिताने के लिए एअरपोर्ट के बगल ही पांच सितारा होटल में रहने खाने की सुन्दर व्यवस्था भी की. वही कार्ड पास हमारा वीसा था दुबई शहर घूमने के लिए. बड़ा क्रेज होता था उन दिनों दुबई में शोपिंग का. हम बड़े खुश हुए एमिरेट्स से और उसे फाइव स्टार रेटिंग दे डाली.
यात्रा में आगे बढे और मिश्र की राजधानी काहिरा उतरे. एमिरेट्स की सेवा समाप्त हुई और अगली फ्लाइट इजिप्ट एयर की थी. लेकिन उस एयरपोर्ट का मंजर देख हम चकरा गए. बड़ा अफरातफरी का माहौल था. एअरपोर्ट से बाहर जाने वाले तो इमिग्रेशन की लाइन में लग बाहर निकल लिए. हम जैसे ट्रांजिट यात्रियों को अलग एक लाइन में हाँक दिया गया. उसी लाइन में धीरे धीरे आगे खिसकते रहे. एक स्थान पे उन्होंने हमारा टिकट व् पासपोर्ट लिया और अपने पास ही रख लिया. और लोगों की तरह हमें भी आगे हाँक दिया गया. हम एकदम भौंचक व किकर्तव्यविमूढ. विदेश में बिना पासपोर्ट तो गैरकानूनी अप्रवासी माने जायेंगे. लेकिन देखा जब सभी को करते हुए, तो हमने भी छोड़ दिया स्वयं को भाग्य पे.
लाइन आगे खिसकी. एक व्यक्ति लाइन के बगल खडा लोगों के कान में कुछ फुसफुसा रहा था. हम भी आगे पहुंचे तो बोला वो, “केवल २०० डॉलर में पूरा काहिरा घुमा दूँगा. वीसा और गाडी सब इसी में शामिल है”.
मैं तैयार हो गया. ये तो बहुत ही अच्छा ऑफर है. अगली फ्लाइट 8 घंटे बाद है. घूम घाम के वापस आ जाऊँगा.
लेकिन तभी भला हो लाइन में खड़े मेरे पीछे वाले का, जिसने मुझे सचेत किया, “भैया ये काहिरा है. बाहर ले जाकर कहीं छोड़ के भाग जाएगा. आप अन्दर भी नहीं आ पाएंगे”.
मै हिल गया ऐसा सोच के ही.
खैर लाइन आगे बढ़ती गयी. अंत में हमें एक बड़े हाल में नीचे ले जाया गया. बेसमेंट लग रहा था. न कोई खिड़की न रोशनदान. बहुत सारे लोग वहाँ पड़े थे. नाममात्र की चार-छ बेंच. बाकी सारे लोग नीचे जमीन पे ही लेटे हुए थे. दमघोंटू माहौल. किनारे एक छोटा सा बाथरूम. उसी के अन्दर टॉयलेट. फ्लाइट की जानकारी के लिए न कोई डिस्प्ले न लाउडस्पीकर की उद्घोषणा. हाल से बाहर जाने की मनाही थी. अगली फ्लाइट की जानकारी कैसे मिले, इसके लिए भी हमें उसी व्यक्ति पे निर्भर होना था जो हाल के प्रवेश द्वार पे बैठा था.
हम उसके पास गए और पूछा,” हमारी अगली फ्लाइट सही वक्त पे हैं न?”
“अभी आप की फ्लाइट 8 घंटे बाद है. अभी उसकी कोई जानकारी नहीं है”.
तीन घंटे बाद हमने फिर पूछा उससे,” हमें अगली फ्लाइट का बोर्डिंग पास तो दे दो”.
“वो फ्लाइट पूरी फुल है. उसमें जगह नहीं है”.
“अरे ये कैसे? हमने तो कन्फर्म टिकट लिया था”.
“आपने आगे की यात्रा का टिकट रिकंफर्म नहीं किया था. इसलिए सीट कैंसिल हो गयी”.
“अरे ये क्या नाटक है. मुझे जाने दो काउंटर पे. मैं उनसे बात करूँगा”.
“नहीं आपको जाने की इजाजत नहीं है”.
हम तो बड़े तनाव में आ गए. इस जेल में 24 घंटे और रहना नरक सामान था. कुछ भारतीय ग्रुप वहाँ बैठा था. सोचा उनसे कुछ मार्गदर्शन हो.
“हेलो भाई लोगों, आप सब भारतीय हैं? कहाँ जाना है?”
“हाँ हम सभी को दिल्ली जाना है. लीबिया से आ रहे हैं बाई रोड. यहाँ इसी हाल में 4 दिन से पड़े हैं. आगे का टिकट नहीं हो रहा कन्फर्म”.
“पर ये लोग हमें क्यों नहीं जाने दे रहे एयरलाइन काउन्टर पे?”
“ये काहिरा है. बहुत ही भ्रष्ट. जाने तो नहीं देंगे, लेकिन आप उस प्रवेश द्वार पे बैठे व्यक्ति से कुछ लेन-देन कर लें तो आपका काम हो सकता है. ऐसे तो आप बैठे रहेंगे हफ़्तों”.
मैं वापस पहुँचा उस व्यक्ति के पास और डरते हुए कहा,”भाई मै दिल्ली से आपके लिए कुछ लाया नहीं. ये लो, अपने बच्चों के लिए कुछ केक खरीद लेना”.
दस डॉलर देख के वो व्यक्ति मुँह बनाता हुआ बोला,”इतने में केक नहीं मिलता”.
“फिर कितने में मिलता है?”
“इतने ही और लगेंगे”
“ये लो भैया”, कहते हुए मैंने उसे 10 डालर और थमाए.
उसने रख लिए और बोला,” ठीक है आधे घंटे बाद आना मेरे पास. अभी जाकर वहाँ बैठो”.
इकत्तीस मिनट बाद मै फिर पहुंचा उसके पास,”भाई मेरा बोर्डिंग पास आ गया क्या?”
“भेजा हुआ है. इंतज़ार कीजिये”.
एक घन्टे बाद पासपोर्ट की गड्डी आई उसके पास. मैं तुरंत पहुँचा. कई और लोग भी थे. वो एक एक पासपोर्ट देख रहा था. कुछ सफल लोग अपना पासपोर्ट लेकर बाहर जा रहे थे. असफल लोग वापस हाल में. अंततः मेरा पासपोर्ट भी दिखा बोर्डिंग कार्ड के साथ. जितनी खुशी मुझे उस वक्त हुई, उतनी शायद प्रोजेक्ट पूर्ण करने के बाद भी न होगी. वापस आकर उन लीबिया वाले भारतीयों से विदा ली. वो सब मुझे जलनभरी निगाहों से देख रहे थे.
इजिप्ट एयर का विमान दिल्ली की ब्लू लाइन बस लग रहा था. बोर्डिंग पास में सीट नंबर नहीं. बैठने में ही काफी भगदड़ रही. कई फॅमिली वाले अलग थलग बैठने को मजबूर हुए. खाने में न जाने क्या दिया था. हमें डर लग रहा था कहीं बीफ न दे दिया हो. इसलिए बस सब्जी भाजी और ब्रेड खा ली, बाकी सब छोड़ दिया. इरिट्रिया की राजधानी अस्मारा में विमान उतरा. बहुत ही छोटा सा हवाई अड्डा. बाहर निकल के टैक्सी से होटल पहुँचा. वहाँ की लोकल करेंसी का नाम था “नक्फा”. उस समय एक नक्फा में करीब ६ भारू होते थे.
खाने की बड़ी विकट समस्या नजर आ रही थी रेस्टोरेंट में. कुछ न सूझे मीनू में क्या लिखा है. खैर वेटर को बुला के बोला,” लेंटिल सूप, ब्रेड, राईस”.
पहले वो लेंटिल सूप लाया. जो दाल ही थी. जब तक मैंने उसे ख़त्म न किया, वो अगली डिश न लाया. बड़े बेवकूफी भरे अंदाज में मैंने दाल के बाद सूखी ब्रेड चबाई, फिर चावल निगला. बड़ी समस्या थी. वहाँ लोग अंगरेजी भी नहीं समझते थे ठीक से.
अगले दिन मैं थोड़ा स्मार्ट हुआ. उसे पहले ही बोल दिया,”ब्रिंग एवरी थिंग टुगेदर (सब कुछ एक साथ लाओ)”. उसने टुगेदर का मतलब कुछ और ही समझा. चावल दाल ब्रेड सब कुछ एक ही कटोरे में मिला के ले आया. पता नहीं कौन सी खिचडी बन गयी थी.
रात में सोना भी मुश्किल हुआ. होटल के सामने एक चर्च था. वहाँ रात बारह-एक बजे तक जोर जोर से औरतों की चीख चिल्लाहट आती रही. पता लगा ये वहाँ रोज का टंटा है. रात में “पेशेवर औरतों” का काम शुरू होता था.
मैंने सोचा इस तरह तो मैं होटल में नहीं रह पाऊँगा. होटल से बाहर निकला. एक छोटे से रेस्तराँ के आगे फुटपाथ पे पडी कुर्सियों पे कुछ भारतीय नजर आये. मैं भी बैठ गया. बातचीत से पता लगा वहाँ बहुत सारे भारतीय अध्यापक कार्यरत हैं. उन्होंने प्रोफ़ेसर मिश्राजी का पता दिया, जो प्रयाग के रहने वाले थे और अवध विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे थे. बड़ी ख़ुशी हुई उनसे मिलकर उनके घर जो सेम्बेल में था. उन्ही लोगों ने मुझे एक प्रोपर्टी डीलर का नंबर दिया. उसने मुझे एक घर दिखाया फर्निश्ड, जो मैंने ले लिया तुरंत. अब खाना खुद बनाऊँगा तभी ज़िंदा रह पाउँगा. उसी दिन शिफ्ट कर लिया मैंने उस मकान में. रात का खाना बनाया ‘चिकन चावल’ और अच्छे से सोया संतुष्ट होकर.
अगले दिन सुबह उठा. ऊपर गाउन डाला. चाय बनाया और निकल गया बाहर लान में निरिक्षण करने. अच्छा घर था एक आदमी के लिए. दो बेडरूम, ड्राइंग डाइनिंग अलग. एकदम मेन एयरपोर्ट रोड से लगा हुआ. बाहर तीन तरफ लान जिसमें कुछ पौधे आरोपित थे. चाय समाप्त की और निरिक्षण पश्चात वापस दरवाजे के भीतर घुसना चाहा.
लेकिन ये क्या दरवाजा तो बंद हो गया. ये वो वाला आटोमेटिक दरवाजा था जो अपने आप लॉक हो जाता था, और अन्दर से ही खुलेगा या फिर चाभी से. मैं तो सन्न रह गया. ध्यान आया, डीलर ने चेतावनी दी थी इस दरवाजे की. लेकिन बेध्यानी में मैं बाहर निकल गया. अब करूँ तो क्या करूँ? एक दो बार धक्का मारा, शायद इंटरलोंक टूट जाए. लेकिन कुछ न हुआ. बड़ा मजबूत था दरवाजा. अनजान जगह विदेश की. भाषा का ज्ञान नहीं. किससे लेने जाऊँ सहायता. जेब खाली. एक भी फूटी कौड़ी नहीं. सर पकडे बैठा रहा काफी देर.
फिर कुछ सोच बाहर निकला. सड़क पे देखा एक बेकरी की दूकान. वहाँ जा के जायजा लिया. एक अफ्रीकन लड़की करीब बीस वर्ष की बैठी थी दूकान पे. दो-तीन ग्राहक खड़े थे. पास में ही एक लैंडलाइन टेलीफोन पडा था. दिमाग पे जोर डाला. डीलर का नंबर याद करने की कोशिश किया. होटल से कई बार उसे डायल किया था.
फिर उस लड़की की और मुखातिब हुआ अंगरेजी में,” मेरे घर का दरवाजा बंद हो गया है. बड़ी मुश्किल में हूँ. पैसे नहीं हैं. एक फोन करना है”.
उसके जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही मैं टूट पडा फोन पे. इसके पहले कि वो मना कर दे.
पहली बार में ही सही लग गया, “हाइ वोल्डे जोसेफ, अरे मैं बड़े मुश्किल में फंस गया”.
एक ही सांस में उसे सारी बात कह डाली. उसने कहा ठीक है आप इंतज़ार कीजिये. मैं मकान मालिक के पास जाता हूँ. पता नहीं डुप्लीकेट चाभी है भी या नहीं. मैं फिर दूकान से बाहर आ गया बिना उस लड़की की और देखे. यदि उसने पैसे माँग लिए तो क्या होगा. लेकिन उस लडकी ने भी पैसे नहीं माँगे. व्यस्तता वश या किसी और कारण, पता नहीं.
खैर करीब एक घंटे के बाद जोसेफ आ गया. बड़ी ख़ुशी हुई जब उसके हाथ में चाभी देखी. दरवाजा खोल के वापस चला गया वो. उसके बाद कभी भी मैंने उस आटोमेटिक दरवाजे का प्रयोग नहीं किया. पीछे किचेन के दरवाजे से बाहर निकलता था.
कुछ दिन बीते. एक दिन सुबह चाय पीने के बाद जब नहाने गया तो देखा कहीं पानी नहीं आ रहा था. मेरी आदत ऐसी कि बिना नहाए मैं ऑफिस जा ही नहीं सकता. उस दिन पहली बार मैं बिसलरी की एक बोतल से नहाया. बस ऊपर से डाल के गीला किया और तौलिये से पोंछ लिया. नहाने की फीलिंग आ गयी.
लेकिन ताजुब तो तब हुआ जब कई दिनों तक पानी न आया. पता चला कहीं पानी की नई पाइप डल रही है. इसलिए कुछ दिन नहीं आयेगा. लेकिन एक महीने हो गए पानी नहीं आया. पता चला पुरे मोहल्ले में नहीं आ रहा और कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था. मैंने उनके स्वभाव की दाद दी. भारत में तो धरना प्रदर्शन सब हो जाता. खैर हम रोज एक जरीकेन भर के पानी लाते टेलीफोन एक्सचेंज से और उसी से काम चलता.
फिर एक दिन मिश्राजी पधारे,”कैसा चल रहा है? कोई सहायता चाहिए?”
“हाँ एक खाना बनाने वाला चाहिए”.
“चलो यहीं बगल में एक थी मेरी जान पहचान की. देख के आते हैं”.
भाग्य से वो अपने घर में मिल गयी. उसकी एक चौदह पंद्रह साल की बच्ची थी. उसी को लगाया काम पे. अब वो ठहरी अफ्रीकन. उसे भारतीय व्यंजन की कोई जानकारी तो थी नहीं. सो हमने उसे एक अत्यंत ही सरल तरीका बताया डेमो के साथ.
“सब्जी के लिए आलू काटो बड़ा बड़ा. फिर उसे तेल में फ्राई कर दो. बाहर निकालो. मसाला भूनो. उसमें आलू डाल दो. ऊपर से टमाटर काट के डाल के हल्का उबाल के ढक देना. बस”.
“ओके”.
“ऐसे ही सारी सब्जियाँ बनाना. आलू, बैगन, गोभी सब”.
“ओके”
एक दिन आ के देखा पालक के पत्ते भी उसने तेल में पापड की तरह फ्राई कर दिए थे बड़ा बड़ा. हम सर पकड़ के बैठ गए.
एक दिन मैं वहाँ की लोकल सिटी बस में चढ़ा. कोई सीट खाली न थी. मुश्किल से दस मिनट का रास्ता था मेरे घर का इसलिए मै भी निश्चिन्त था. तभी यकायक एक अठारह वर्ष का लड़का अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट मुझे देने लगा. मै हैरान. भला ये मुझे कैसे जानता है. मैंने मना किया पर वो न माने. अपनी भाषा में कुछ बोले जा रहा था और अपनी सीट पे बिठा के ही माना. मै समझ गया, ये हमारे भारतीय शिक्षकों की पढाई का कमाल है. सभी भारतीय वहाँ शिक्षक ही थे. केवल मैं ही इंजिनियर था. उसने मुझे भी शिक्षक समझ लिया. नमन किया मैंने भारतीय शिक्षक वर्ग को जिनके प्रयत्न से भारतीय संस्कृति का शंख वहाँ अफ्रिका में भी ध्वनित हो रहा था. वरना अफ्रिका में तो लूट खसोट और किडनैपिंग का ही बोलबाला है. ये हमारे शिक्षकों का ही कमाल है, शैशवकाल से उच्च विद्यालय तक विद्यार्थियों में भारतीय संस्कार पिरोये. फलस्वरूप इथियोपिया और इरिट्रिया में सुरक्षा और शांति है. जबकि बाकी देशों में आप दिन में भी लूट लिए जाते हैं. नाइजीरिया के भरे बाजार में भारतीय राजदूत की पत्नी कार में बैठी थी. सीडी नंबर प्लेट. भारत का झंडा कार के बोनट पे लगा हुआ. फिर भी एक अफ्रीकन आ के उनका गोल्ड चेन खींच रहा था. वो चिल्लाए जा रही थी. कोई सुनने वाला नहीं.
इसी बीच इरिट्रिया और इथियोपिया में पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया. पुराना सीमा विवाद था. टीवी के प्रोग्राम तो पहले ही जादा समझ न आते थे, सिवाय कुछ अंग्रेजी सेरिअल्स को छोड़. अब तो एकदम देशभक्ति के ही गाने आने लगे स्थानीय भाषा में....आजाबे ना...आजाबे ना....आजाबे ना.
एक दिन टेलीफोन एक्सचेंज के पास हम टहलते आ रहे थे हल्का लंच खाने के बाद. एक भारतीय सज्जन भागते हुए आये,”आप लोग कब वापस जा रहे हैं? जर्मन लोग आज चले गए. अमेरिकन कल जायेंगे”.
“अच्छा हालत जादा खराब हो गयी क्या?”
“हाँ, इथियोपिया ने कई भारतीय फाइटर पायलट हायर किये हैं. उनका निशाना अचूक है. इरीट्रिया के पास तो केवल गिन के चार फाइटर प्लेन हैं. यहाँ खतरा बहुत है”.
तब तक हमारे मित्र कृशन भी दिल्ली से हमारे पास आ चुके थे प्रोजेक्ट के दुसरे फेज में. हम दोनों शाम को घर पे चाय पीते हुए चर्चा कर रहे थे, क्या किया जाय. तभी एक जोरदार धमाका हुआ. घर की दीवारें हिल गईं. खिड़की के कांच टूट गए. हम लोग गिरते पड़ते बाहर की तरफ भागे. मगर बाहर कहीं कुछ नजर न आया. बहुत डर गए थे हम और अन्दर तक हिले हुए.
हमने सोचा क्या किया जाय. बिना प्रोजेक्ट पूर्ण किये जाना अपनी आन-बान के खिलाफ था. रहते हैं तो जान जोखिम में. फिर फैसला किया, सारी परिस्थिति लिख के भेज देते हैं दिल्ली. उन्ही पे डाल देते हैं फैसला.
लेकिन दिल्ली वाले हमसे भी जादा चालाक. दो लाइन का जवाब आया, ”जो तुम्हें ठीक लगे करो. परिस्थिति के हिसाब से स्वयं निर्णय लो”.
हम नहीं गए. ऐसे ही युद्ध चलता रहा. और हम काम करते रहे. बाद में पता चला वो बम फटा था, जिसमें इरीट्रिया का एक युद्धक विमान तबाह हो गया. कुछ दिनों पश्चात उनके चारों विमान नष्ट कर दिए गए.
शाम को पत्नी से बात किया तो अलग ही समस्या आन पडी. एटीएम कार्ड खराब हो गया था. ये अकाउंट केवल मेरे नाम था. पत्नी कुछ कर भी नहीं सकती थी. इसी तरह के कई व्यवधान आते हैं परिवार में जब हम दूर होते हैं. खैर हमारे दिल्ले के बॉस वर्माजी ने अपने अकाउंट से पैसा भिजवाया मेरे घर.
एक दिन सेटेलाइट स्टेशन पहाडी के ऊपर हम संचार प्रणाली लगाने में व्यस्त थे. ये स्टेशन आर्मी एरिया में था. साथ में इरिट्रिया टेलिकॉम के कई कर्मचारी हाथ बंटा रहे थे. तभी एक व्यक्ति आया कमरे में. कुछ निरिक्षण किया. उन कर्मचारियों से वार्ता की. सभी अपने काम में ही लगे रहे. कोई खडा भी न हुआ. हमने सोचा कोई होगा इन्हीं के विभाग का. लेकिन जब वो चला गया तो मैंने ऐसे ही उत्कंठा वश पूछा, “कौन था?”
तेस्फालेम ने जवाब दिया,” ये हमारा रक्षा मंत्री था”.
“अरे पहले क्यों नहीं बताया? हम भारतीय कितने अशिष्ट साबित हुए. हम उठ के उनका अभिवादन करते”, मैंने खड़े हो के प्रतिवाद किया.
“नहीं ऐसा क्यों करना? ये लोग तो कहीं भी मिल जाते हैं. खाना भी आम लोगों की ही तरह खाते हैं, रेस्टोरेंट में या फिर फुटपाथ पे चलते फिरते”.
मैंने नमन किया ऐसी व्यवस्था को. तुलना किया इनकी हमारे भारतीय मंत्रियों से जिनके साथ पूरा लाव-लश्कर चलता है.
गजरथ एक्सचेंज में काम करते वक्त एरिट्रिया टेलीकाम के एक सहयोगी ने तंज कसा, ”भारतीय औरतें केवल फिल्म और टीवी में ही सुन्दर लगती हैं. ऐसे सड़क पे देखो तो बेकार”.
मैंने सोचा क्या जवाब दूँ. फिर नहले पे दहला मार ही दिया,” अफ्रीकन औरतें तो टीवी पे भी नहीं सुन्दर लगती”.
ऐसे ही हंसते बोलते प्रोजेक्ट पूरा हो गया. बेचारे इरीट्रीयन बड़े अच्छे थे. इस प्रोजेक्ट में उन्होंने हमें पार्टी दी प्रोजेक्ट पूर्ण होने पे. बढ़िया होटल में कॉकटेल डिनर. जबकि वो क्लाइंट थे, इसलिए पार्टी हमें देनी चाहिए थी. उन्होंने प्रशस्ति पत्र भी दिया हमारे व्यक्तिगत नाम से. और हम किसी छोटी सी बात पर खुंदक में थे कि रिटर्न पार्टी नहीं दी. ये दुःख हमें जीवन में बहुत दिनों तक सालता रहा.
खैर ये मेरे जीवन का सबसे छोटा प्रोजेक्ट था. केवल चार महीने का. लेकिन इसमें बहुत कुछ सीखा जो जीवन पर्यंत काम आया. ठीक चार महीने बाद किराए के मकान की चाभी वापस कर दी. वापसी का टिकट हमने वाया काहिरा के बजाय साना (यमन) करा लिया था.
आते समय नया खरीदा कोरियन कम्बल दान कर दिया उस छोटी काम वाली बच्ची को कृशन ने. हम एअरपोर्ट के लिए घर से निकल टैक्सी में बैठ ही रहे थे कि देखा वो बच्ची अपनी माँ के साथ भागी चली आ रही थी. उसकी माँ कम्बल पा के बहुत खुश थी. उसके रोम रोम से आशीर्वाद फूट रहा था. अपनी भाषा में जाने क्या बोले जा रही थी दोनों हाथ ऊपर उठाये. समझ में कुछ न आते हुए भी सब समझ रहे थे हम. बॉडी लैंग्वेज और प्रेम की भाषा के लिए शब्द चाहिए ही नहीं.
(दुर्भाग्यवश मेरे कंप्यूटर में इरिट्रिया की कोई फोटो नहीं है. सभी मेरे नॉएडा निवास के एलबम में पड़े हैं. इसलिए क्लाइंट का प्रशस्ति पत्र ही लगा दे रहा हूँ).
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