सद्दाम के गढ़ बग़दाद में (1998):
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यूँ तो फिल्मों में लोगों ने बहुतेरे युद्ध के दृश्य देखे थे, या फिर महाभारत काल में संजय ने देखे. लेकिन 1990 में जब खाड़ी युद्ध के वक्त टीवी के सुनहरे पर्दे पे अमरीका की मिसाइल-वर्षा देखी लोगों ने वास्तविक युद्ध की, तो अलग ही रोमांच से लबरेज हो गए. भला हो दिल्ली एशियाई खेलों का, जो रंगीन टीवी भारत में आ चुका था सन १९८२ में. लोगों ने ये भी देखा कैसे सद्दाम ने स्कड मिसाइलें छोडीं कुवैत और इजराइल पे. कैसे बाद में अमरीका उसकी मिसाइलों को हवा में ही तबाह करने लगा. शायद एक महीने चली ये हवाई लड़ाई. मीडिया कयास लगाता रहा जमीनी लड़ाई में इराक को महारत हासिल है और उसमें अमरीका के बहुतेरे सैनिक हताहत होंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और अमरीकी सैनिक कुवैत में आराम से टहलते हुए प्रवेश कर गये. सभी इराकी सैनिक कुवैत के तेल कुओं में आग लगा कर भाग खड़े हुए.
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यूँ तो फिल्मों में लोगों ने बहुतेरे युद्ध के दृश्य देखे थे, या फिर महाभारत काल में संजय ने देखे. लेकिन 1990 में जब खाड़ी युद्ध के वक्त टीवी के सुनहरे पर्दे पे अमरीका की मिसाइल-वर्षा देखी लोगों ने वास्तविक युद्ध की, तो अलग ही रोमांच से लबरेज हो गए. भला हो दिल्ली एशियाई खेलों का, जो रंगीन टीवी भारत में आ चुका था सन १९८२ में. लोगों ने ये भी देखा कैसे सद्दाम ने स्कड मिसाइलें छोडीं कुवैत और इजराइल पे. कैसे बाद में अमरीका उसकी मिसाइलों को हवा में ही तबाह करने लगा. शायद एक महीने चली ये हवाई लड़ाई. मीडिया कयास लगाता रहा जमीनी लड़ाई में इराक को महारत हासिल है और उसमें अमरीका के बहुतेरे सैनिक हताहत होंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और अमरीकी सैनिक कुवैत में आराम से टहलते हुए प्रवेश कर गये. सभी इराकी सैनिक कुवैत के तेल कुओं में आग लगा कर भाग खड़े हुए.
जार्ज बुश ने इसे अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा मान लिया और यूएन के चैनेल से सद्दाम को पंगु बना दिया. ये बुश व् सद्दाम की व्यक्तिगत लड़ाई हो गयी. इराक पे यूएन के प्रतिबन्ध लग गए. वो तेल नहीं बेच सकता. केवल बार्टर डील कर सकता है. यानी सामान के बदले तेल, वो भी एक निश्चित मात्रा में ही. बगदाद में यूएन के ऑब्जर्वर बैठ गए निगरानी के लिए.
समय बीता. हम भी इन सब घटनाओं को भूल चले. लेकिन तब ये सारी घटनाएँ जीवंत हो उठीं, जब मुझे बग़दाद जाने का मौक़ा मिला १९९८ में. लम्बी और घोर मशक्कत से एक कंसल्टेंसी प्रोजेक्ट पूर्ण किया था टाटा इलेक्ट्रिक कंपनी के लिए. बहुत अच्छी रिपोर्ट के साथ पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन दिखाया बॉम्बे हाउस में. महान आश्चर्य तो तब हुआ जब रतन टाटा स्वयं आ गए उसे देखने. क्लाइंट ने काफी पसंद किया और प्रशस्ति पत्र भी दिया व्यक्तिगत नामों से. जिसके एवज में मुझे मेरी कंपनी के बॉस ने बगदाद के ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले’ में १५ दिनों के लिए कंपनी का स्टाल लगाने और बिजनेस प्रोमोशन हेतु नामित किया. यानी काम कुछ नहीं बस तफरीह.
मैं और मेरे एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भार्गव साहब दोनों चल पड़े रॉयल-जोर्डेनियन एयरलाइन से जॉर्डन की राजधानी अम्मान के लिए. इराक पे तो प्रतिबन्ध लगा था इसलिए वहाँ के लिए कोई विमान सेवा नहीं थी कहीं से भी. अम्मान से बगदाद जाना था सड़क मार्ग से.
अम्मान शहर काफी विकसित लगा. भार्गव साहब ने बताया, ”यहाँ हमें कोई बिजनेस नहीं मिला कभी. मौक़ा लगे तो ‘डेड सी’ देख लेना. कभी वो समुन्दर से लगा था. लेकिन फिर जमीनी उथल पुथल के कारण शेष समुन्दर से कट के अलग हो गया. पानी वाष्पित होता गया. नमक की मात्रा बढ़ती गयी. पानी गाढा हो गया, इसलिए उसमें कोई डूबता नहीं”.
रात भर होटल में रुके. और अगले दिन सुबह रवाना हो गए बग़दाद के लिए एक बड़ी गाडी जीएमसी में. वो थी तो बहुत बड़ी गाडी लेकिन किराया कुछ जादा नहीं था. कारण ईराक में तेल पानी से भी सस्ता था. बेचारे को तेल बेचने की इजाजत जो नहीं थी. लोग अपनी गाडी पेट्रोल से धोते थे.
कई घंटे जॉर्डन में चलने के बाद ईराक सीमा पहुँचे. अपना पासपोर्ट दिया, जिसपे उन्होंने वीसा चिपका दिया. उस वीसा पे मोटे लाल अक्षरों में लिखा था, ”आपके पासपोर्ट में पहले से इजरायल वीसा लगे होने पर इराक प्रवेश वर्जित है. कठोर कार्यवाही होगी”.
ऐसा ही नियम खाड़ी के कई देशों में है. इसलिए इजरायल के प्रोजेक्ट में हम लोग पासपोर्ट में वीसा नहीं लगवाते थे. अलग से पेपर में वीसा लेते थे, जिसमें पासपोर्ट नम्बर लिखा होता था. उसी पे इमिग्रेशन स्टाम्प भी लगता था, पासपोर्ट में नहीं. खैर वीसा वाले ने बताया, बग़दाद पहुँच के एक बार इमिग्रेशन कार्यालय जाकर फिर से इंट्री करवानी होगी.
सड़क बहुत ही अच्छी और चौड़ी थी ईराक के अन्दर. जॉर्डन से भी जादा चौड़ी व चिकनी. दोनों ओर रुखा रेगिस्तान. जीएमसी भागी जा रही थी एक सौ बीस तीस पे. भार्गव साहब अपने पुराने प्रोजेक्ट याद करने लगे जो उन्होंने किये थे इराक में.
“ये देखो रमादी में माइक्रोवेव टावर हम्हीं लोगों ने लगवाया था. कुट-अमारा लिंक रिकार्ड समय में समाप्त हुआ. बहुत काम मिला था हमें यहाँ” उन्होंने कहना शुरू किया, “विन्च मशीन से जब बड़ा ऐन्टेना जाने लगा १०० मीटर टावर के ऊपर तो भारी भीड़ जमा हो गयी. उन्होंने पहले कभी ऐसा देखा नहीं था”.
“कब की बात है?”
“ये था १९८४. हिंदी फिल्मों के बहुत दीवाने थे इराकी. एक बार मेरा एक लम्बा-गोरा इंजिनियर सिनेमा देख के बाहर निकला, सबने उसे घेर लिया कि अमिताभ बच्चन आ गया”.
“फिर काम बंद कब और क्यों हुआ?”
कुछ वर्षों में इरान-ईराक युद्ध प्रारम्भ हो गया. कई वर्ष चलता गया. ख़त्म होने का नाम ही न ले. तंग आकर हमारे प्रबंधन ने काम बंद कर सभी लोगों को वापस बुला लिया. कितने लोगों को सद्दाम ने मरवा दिया इस युद्ध में, कितने अपंग हो गए. और आज जब अमरीका से पंगा हो गया तो सारी जीती हुई जमीन इरान को वापस कर दी”.
“क्या करता? दो दुश्मन से कैसे लडेगा अकेला. आज उसे दोस्त चाहिए, जो विश्व में कोई नहीं है”.
“कब की बात है?”
“ये था १९८४. हिंदी फिल्मों के बहुत दीवाने थे इराकी. एक बार मेरा एक लम्बा-गोरा इंजिनियर सिनेमा देख के बाहर निकला, सबने उसे घेर लिया कि अमिताभ बच्चन आ गया”.
“फिर काम बंद कब और क्यों हुआ?”
कुछ वर्षों में इरान-ईराक युद्ध प्रारम्भ हो गया. कई वर्ष चलता गया. ख़त्म होने का नाम ही न ले. तंग आकर हमारे प्रबंधन ने काम बंद कर सभी लोगों को वापस बुला लिया. कितने लोगों को सद्दाम ने मरवा दिया इस युद्ध में, कितने अपंग हो गए. और आज जब अमरीका से पंगा हो गया तो सारी जीती हुई जमीन इरान को वापस कर दी”.
“क्या करता? दो दुश्मन से कैसे लडेगा अकेला. आज उसे दोस्त चाहिए, जो विश्व में कोई नहीं है”.
बग़दाद शहर के अन्दर पहुँचे. मकान दूकान और सडकों की हालत बयान कर रही थी गरीबी. होटल शेरेटन पहुंचे अल-सादून स्ट्रीट पर और चेक इन किया. बगल में टिगरिस नदी बह रही थी, नगर के मध्य ही. होटल के प्रमुख प्रवेश द्वार में घुसते ही जमीन पर जार्ज बुश की तस्वीर पेंट की हुई थी. यानि सभी आगंतुक अपने पैर से उसका सर कुचलते हुए अन्दर जाएँ.
सोचा गया बाहर जाकर थोडा घूमा जाय. लोकल करेंसी एक्सचेंज करवाई. एक डॉलर के मिले दो हजार दीनार. भार्गव साहब दंग रह गए. अरे पहले तो एक दीनार में तीन डॉलर मिलते थे. इतनी खराब हो गयी हालत. बाहर बाजार में पब और नाईट क्लब सब बंद, जो कभी आबाद रहते थे. ईराक काफी खुला हुआ समाज था. लेकिन अमरीका ने तबाह कर दिया. खाना खाया. एक आदमी का लगा ६ हजार दीनार. यानि गड्डी भर-भर के ले जाओ थोड़ी सी भी शौपिंग के लिए.
अगले दिन टैक्सी पकड़ी और अन्दर बैठ गए,”चलो बगदाद व्यापार मेला”.
वो कुछ समझा नहीं. बोला,”फिन्दक बग़दाद?”
अब हम नहीं समझे वो क्या बोला. इसलिए फिर दोहराया,”बग़दाद इंटरनेशनल ट्रेड फेयर”.
उसने गाडी एक सज्जन के बगल रोक दी जो थोड़ा पढ़े लिखे लगते थे. उन्होंने ट्रांसलेट करके कहा उससे,”फिन्दक बग़दाद”.
अब हमें उसका अरबी शब्द मालूम हो गया जो अंत तक काम आया.
रास्ते में टैक्सी वाले ने पूछा, ”इंडियन?”
“फी इंडियन”, मुझे अरबी के कुछ शब्द आते थे सऊदी में रहने के कारण.
“शम्मी कप्पू.....शाशी कप्पू....मौजूद?”
हमने कहा, ”फी मौजूद”. यानि ज़िंदा हैं. वो सब बाकी दुनिया से पुरी तरह कट गए थे. लेकिन उनकी हिंदी सिनेमा का लगाव ज़िंदा था.
वो कुछ समझा नहीं. बोला,”फिन्दक बग़दाद?”
अब हम नहीं समझे वो क्या बोला. इसलिए फिर दोहराया,”बग़दाद इंटरनेशनल ट्रेड फेयर”.
उसने गाडी एक सज्जन के बगल रोक दी जो थोड़ा पढ़े लिखे लगते थे. उन्होंने ट्रांसलेट करके कहा उससे,”फिन्दक बग़दाद”.
अब हमें उसका अरबी शब्द मालूम हो गया जो अंत तक काम आया.
रास्ते में टैक्सी वाले ने पूछा, ”इंडियन?”
“फी इंडियन”, मुझे अरबी के कुछ शब्द आते थे सऊदी में रहने के कारण.
“शम्मी कप्पू.....शाशी कप्पू....मौजूद?”
हमने कहा, ”फी मौजूद”. यानि ज़िंदा हैं. वो सब बाकी दुनिया से पुरी तरह कट गए थे. लेकिन उनकी हिंदी सिनेमा का लगाव ज़िंदा था.
व्यापार मेला पहुँचे. भारतीय पवेलियन में अपना स्टाल लगाया. बहुत सी अन्य भारतीय कम्पनियाँ थीं वहाँ. भारतीय राजदूत श्री दयाकर राव साहब दिन में कई चक्कर लगा के स्वयं जायजा लेते रहते थे. रात्रि भोज दिया अपने घर इण्डिया-हाउस में.
अगले दिन हम सब अपना स्टाल लगा के तैयार हो गए. लोग आने शुरू हुए. हम ये देख के हैरान रह गए की सबसे जादा भीड़ हमारे भारतीय पवेलियन में ही उमड़ी पडी थी. पता लगा यहाँ के लोगों को भारत से बहुत लगाव था. इंदिरा गाँधी के वक्त से ही भारतीय आर्मी ने इराक आर्मी को ट्रेनिंग दी थी. भारतीय कंपनियों को बहुत बिजनेस मिलता था यहाँ जिसे अमरीका ने बर्बाद कर दिया.
भीड़ ज्यादातर औरतों और बच्चों की थी. मर्द तो काफी लड़ाई में मारे जा चुके थे. इराकी औरतों की खूबसूरती देख के हम दंग रह गए. गोरा सुर्ख दमकता चेहरा. भार्गव जी ने कहा,” यहाँ एक शहर है बसरा, जो कुवैत बॉर्डर के पास है. बसरा की हूरें पुरी दुनिया में मशहूर हैं”.
एक दिन हम अकेले ही बैठे थे स्टाल पे. दो औरतें आ के खड़ी हुई और देखने लगीं. हम उनसे मुखातिब हुए तो बोलने लगीं टूटी फूटी हिंदी में. हम बड़े खुश हुए एक इराकी कन्या को हिंदी बोलते देख.
हमने कहा,”आप हिंदी कैसे जानती हैं?”
“मेरे पिता भारतीय हैं. और ये हैं मेरी माता, इराकी हैं”.
“अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी बात है. आपकी माता को भी हिंदी आती है?”
“नहीं, मैंने अपने पिता से सीखा”.
“क्या करते हैं आपके पिता?”
“उनका बिजनेस था. यूएन प्रतिबन्ध के बाद बिजनेस चलना बंद हो गया. पांच साल पहले पिताजी भारत गए, फिर वापस नहीं आये”.
“क्या बोलते हैं? क्यों नहीं आये? कब आयेंगे?”, मैं अधीर हो गया.
“कुछ पता नहीं. अब उनसे कोई संपर्क नहीं है”, उसका गला रुंध गया.
“मेरे पिता भारतीय हैं. और ये हैं मेरी माता, इराकी हैं”.
“अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी बात है. आपकी माता को भी हिंदी आती है?”
“नहीं, मैंने अपने पिता से सीखा”.
“क्या करते हैं आपके पिता?”
“उनका बिजनेस था. यूएन प्रतिबन्ध के बाद बिजनेस चलना बंद हो गया. पांच साल पहले पिताजी भारत गए, फिर वापस नहीं आये”.
“क्या बोलते हैं? क्यों नहीं आये? कब आयेंगे?”, मैं अधीर हो गया.
“कुछ पता नहीं. अब उनसे कोई संपर्क नहीं है”, उसका गला रुंध गया.
मेरा दिल भर गया उसकी दास्ताँ सुनकर. आगे कुछ बोला नहीं गया. वो भी बेचारी माँ-बेटी आगे बढ़ गयीं.
हमारे स्टाल पे सद्दाम के सारे मंत्री और जनरल पधारे, सिवाय खुद सद्दाम के. वो कहीं नहीं निकलता था. कहीं भी नहीं देखा उसे सिवाय टीवी के. सद्दाम के अग्रिम पंक्ति के जनरल और उपराष्ट्रपति ताहा यासिन रमादान, उनके पुत्र उदय हुसैन, और उपप्रधान मंत्री इब्राहीम हसन इत्यादि के साथ फोटो है मेरी. अब तो नाम भी याद नहीं बहुतों के. यासीन रमादान तो काफी उम्र के लगते थे, शायद ६५ के आसपास. मै हैरान, इतनी उम्र का व्यक्ति क्या युद्ध करेगा. लोगों ने कहा ये व्यक्ति बहुत शक्तिशाली है और सद्दाम को ऊपर उठाने में इसका महती योगदान है. आज सद्दाम को विश्वासपात्र व्यक्ति चाहिए. पग पग पे खतरा है उसे अमरीका के एजेंटों से. सद्दाम के आखिरी दिनों में जब टीवी पे समाचार आता था, अमेरिका ने रमादान को मारा, या इब्राहिम को मारा, तो मैं अपने एलबम में उनकी अपने साथ लगी फोटो देखता था. और सोचता था, क्या कमी थी इन सबमें. कितने अच्छे लोग मुझे तो लगे थे. अच्छा बर्ताव, ढंग से बोलना सलीके से. अंगरेजी तो नहीं आती थी इन्हें लेकिन अनुवादक लेकर चलते थे हम लोगों से वार्ता हेतु.
अचानक एक दिन याद आया. इमिग्रेशन आफिस जाने को बोला था वीसा वाले ने. पता चला उन्होंने उसी मेले में ही अपना कैम्प लगा दिया है लोगों की सहूलियत के लिए. हम पहुंचे.
उन्होंने कहा,”इंडियन? गिव बोखोर”.
“ये क्या है?”
वो बस बार बार वही दोहराए जाए, “बोखोर ....बोखोर”.
“ये क्या है?”
वो बस बार बार वही दोहराए जाए, “बोखोर ....बोखोर”.
मैं खीझ कर वापस आ गया. स्टाल में कुछ लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा,”अरे वो अगरबत्ती मांग रहा है. यहाँ नहीं मिलती. लेकिन लोगों को वो बहुत पसंद है”.
“अब मैं अगरबत्ती कहाँ से लाकर दूं?”
“उपाध्याय जी के पास है, ओएनजीसी-विदेश वाले. वो पिछले वर्ष भी आये थे. इसलिए इस बार भारत से ही साथ लाये अगरबत्ती”.
“अब मैं अगरबत्ती कहाँ से लाकर दूं?”
“उपाध्याय जी के पास है, ओएनजीसी-विदेश वाले. वो पिछले वर्ष भी आये थे. इसलिए इस बार भारत से ही साथ लाये अगरबत्ती”.
मैंने लिया उनसे कुछ चार-पांच अगरबत्ती जिसे पाकर वो इराकी बाग़ बाग़ हो गया. फ़टाफ़ट स्टाम्प लगा के दे दिया. ये मेरे जीवन की सबसे सस्ती रिश्वत थी. लेकिन एक मीठी सी हंसी भी आई इन इराकियों की सादगी पर.
भार्गव साहब तो चले गए पांच दिन बाद, लेकिन मैं रहा पुरे १५ दिन. सद्दाम इतना मेहरबान था कि हमारे ‘इंडिया पवेलियन’ को बेस्ट पवेलियन घोषित किया. पाँच सितारा होटल का बिल हमने भरा कौड़ियों के भाव. इसका भी एक दिलचस्प किस्सा है. प्रैक्टिकली तो १ डॉलर में २००० दीनार होते थे. लेकिन सद्दाम इसे नहीं मानता था ऑफिशियली. वो अपना वही पुराना वाला रेट ही मानता था. यानि १ दीनार में ३ डॉलर. १५ दिन के होटल का बिल आया १५०० डॉलर, हमने उन्हें दिया ५०० दीनार पुराने रेट से. यानी एक डॉलर से भी कम. लेकिन ये सुविधा सबके लिए नहीं थी. भारतीय दूतावास की सिफारिश पे ही मिला था केवल हम भारतीयों को. हमने मन में सलाम ठोंका सद्दाम को.
वहाँ से चलते समय हमारे पास काफी सारा इराकी दीनार बचा रह गयां जिसे हमने कोशिश किया वापस डॉलर में बदलने का. लेकिन न हो पाया. काफी नोट भारत लेके आये और बच्चों में बाँट दिया.
पूरे ईराक में कहीं भी कोई चोरी डकैती छीना झपटी नजर नहीं आई. हम आधी रात में भी घूमते थे. सब जगह अमन चैन और शांति उस भीषण गरीबी में भी. जबकि पहले यही लोग शाही अंदाज में जीते थे. लेकिन सद्दाम के मरने के बाद अमरीका जैसा शक्तिशाली देश भी ईराक को कंट्रोल नहीं कर पाया और सब तरफ हिंसा का ताण्डव चला जो सीरिया तक फ़ैल गया और आज भी अनवरत जारी है. शांति के नाम पर अमरीका ने इसी तरह कितने देशों में अशांति फैलाई, इसका हिसाब कौन लेगा उससे? अमरीका ने सद्दाम को क्यों मटियामेट किया? कुवैत छुडा लिया, बस वहीं रुक जाना था. ओसाम लादेन मिला पाकिस्तान में, मारा भी वहीं गया. लेकिन पाकिस्तान में अमरीका ने एक बम भी न गिराया. जबकि अफगानिस्तान में अभी तक डटा हुआ है. भारत के सारे मित्र राष्ट्र ही उसका शिकार हो रहे हैं. इरान के ऊपर चढ़ा हुआ है और भारत का चाबहार बन्दरगाह हाथ से जाता हुआ. सउदी अरब से जादा मानवाधिकार हनन किसी राष्ट्र में नहीं है, लेकिन वो अमरीका का कृपापात्र बना रहा हमेशा.
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