Dec 20, 2021

बुजुर्ग-व्यथा

सुदूर ग्रामीण आँचल मे जन्मे जटा का जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण रहा था। इनका पूरा नाम था जटाशंकर नारायण चतुर्वेदी। अब जैसा कि नाम से ही विदित है, इनके परिवार के हर सदस्य को चारो वेदों का ज्ञान होना चाहिये। समाय बदला, काल और युग बदल गया। न संस्कृत पढ़ने वाले रहे न ही वेद पुराण कंठस्थ करने वाले। सो जटाशंकर को भी उसके पिता ने हिन्दी अँग्रेजी वाले शिक्षालय मे ही प्रवेश दिलाया।

ग्राम से नगर तत्पश्चात महानगर तक जटा ने जीवन के कई थपेड़े खाये। घाट घाट का पानी पिया। कहीं जल मीठा मिला कहीं कड़वा और दूषित। किन्तु हर जल-पान ने उन्हें जीवन के कडवे मीठे अप्रतिम अनुभव प्रदान किये। इन सभी अनुभवों से सीख लेता, उनकी गठरी बनाता जटा जीवन की डगर पे आगे बढ़ता गया। उसका यही मानना था, एक बार की गई गलती शिक्षा देती है, अनुभव देती है। किन्तु उस गलती को दोहराने वाला मूर्ख है। क्या ही अच्छा हो यदि हर मनुष्य गलतियों का अनुभव साझा करता जाये हर किसी से, जिससे अन्य व्यक्तियों को इसका लाभ मिले।
सो उसने अपना पेशा भी उसी के अनुरूप बना लिया। एक कंसल्टेंसी कंपनी मे उच्च पद प्राप्त कर अन्य कंपनियों को देने लगा परामर्श। उसके परामर्श देश-विदेश तक विख्यात हो चले। विदेशों मे भी तैनाती हुई कई वर्ष। अपने पेशे मे इतना विलीन हो चला जटा कि घर परिवार की सुध बुध भी न रही। फिर आ गया जीवन का पतझड़। व्यस्त कॉर्पोरेट जिंदगी से इतर अपने गाँव देश व परिवार से जुडने की आकांक्षा लिये जटा अंततः आ पहुँचा वापस स्वदेश। अब उसकी आकांक्षा थी अपने बच्चों के साथ अपने अनुभव साझा करने की। किन्तु घर का माहौल देख व्यथित हुआ। बच्चे सुबह देर तक सोये पड़े थे।
जटा, ”पुत्री, सुखी व स्वस्थ जीवन व्यतीत करना है तो सुबह सवेरे उठा करो”।
पुत्री, ”क्यों? देर से उठने मे कौन सी समस्या आ जायगी पिताश्री?”
जटा, ”हमे अपनी बॉडी क्लॉक को सन क्लॉक से मैच करके रखना चाहिये। सूर्य के कारण ही समग्र सौरमण्डल ऊर्जावान है। भारत ही नहीं अंग्रेजों ने भी कहा है, early to bed and early to rise, makes a man healthy wealthy and wise. इसलिये सूर्य के अस्त होने के कुछ समय पश्चात निद्रासीन व सूर्योदय से पूर्व शय्या त्याग कर देना चाहिए”।
पुत्री, ”यदि ऐसा है तो अति-उत्तरी गोलार्ध के देशवासी जैसे रूस, इंग्लंड, कनाडा इत्यादि को सर्दियों मे मात्र तीन-चार घंटे ही सोना चाइए। क्योंकि रात दस बजे सूर्यास्त होता है और दो बजे सूर्योदय। ध्रुव-वासियों को तो छ महीने सोना ही नहीं चाहिए। एवं गर्मियों मे लगातार छ महीने सोते ही रहना चाहिये।
ऐसे अकाट्य तर्क कि आशा न थी जटा को। कुछ उत्तर न सूझा। समग्र विश्व को परामर्श देकर पैसा कमाने वाला अपने ही घर मे निरुत्तर हो गया। कुछ दिनो पश्चात पुनः ज्ञान देना आरंभ किया।
जटा,”तुम्हें अब विवाह कर लेना चाहिये”।
पुत्री,”क्यों?”
जटा,”शास्त्रों मे कहा गया है, पचीस वर्ष के बाद गृहस्थ आश्रम आरंभ होता है। विवाह की यही सही उम्र है”।
पुत्री,”पर विवाह करना ही क्यों?”
जटा,”पुत्री, हम माता-पिता कब तक तेरा साथ देंगे। एक दिन चले जाएँगे। तब कौन तेरा साथ देगा?”
पुत्री,”मुझे किसी का साथ चाहिए ही नहीं। विवाहोपरांत बहुत झंझट है। मैं किसी के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहती। विवाह नाम ही समझौते का है। न करो समझौता तो विवाद होगा। मुझे अपना जीवन अपने हिसाब से जीना है। उसमें किसी कि दखलंदाजी नहीं चाहिए”।
जटा,”हर किसी को एक साथी चाहिये। यदि तुम रुग्ण हो गई तो कौन देखभाल करेगा? परवीन बाबी अकेले ही अपने घर मे मरी पाई गई, उसके मरने के कई दिन बाद जब दुर्गंध आने लगी”।
पुत्री, “तो क्या हुआ। मरना तो एक दिन है ही। मरने के बाद क्या सोचना किसी को पता चले या न चले। दुर्गंध आए या सुगंध। रुग्ण होने पर एम्ब्युलेन्स फोन पे आ जाती है। मेरे कई मित्र भी हैं जिन्हें बुलाया जा सकता है”।
ऐसा ही वाद-विवाद चलता घंटों। जटा को लगा आज के बच्चे इतने आसान नहीं हैं। कॉर्पोरेट क्लाईंट को समझाना अधिक आसान है, पर आज के बच्चों को नहीं। कई दिनों के प्रयास के पश्चात उन्होने एक अंतिम बाण चलाया। संवेदनशील बाण।
“पुत्री, मैं तेरा पिता हूँ। मेरी बात मान ले। मैं न होता तो तू इस दुनिया मे ही न आती। कृतज्ञ होना चाहिये तुझे”।
“न आती तो क्या हो जाता? जनसंख्या ही कुछ कम रहती”।
“अरे मैंने तुझसे अधिक दुनिया देखी है। मुझे अधिक अनुभव है। क्या गलत और क्या सही, इसका ज्ञान मुझे तेरे से अधिक है। मैं चाहता हूँ तुझे मेरे अनुभव का लाभ मिले”।
“बहुत बहुत धन्यवाद। पर मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है। आप की पीढ़ी आउट डेटेड हो चुकी है”।
जटा शंकर बड़े विक्षिप्त हुये। हा विधाता, जीवन के अंतिम पड़ाव पर इतने सारे अनुभव समेटे हुये आज के बुजुर्ग अपना ज्ञान साझा करना चाहते हैं। वो ज्ञान जो उन्होने ठोकरें खा खा कर प्राप्त किये। किन्तु उसे लेने वाला ही कोई नहीं आज की पीढ़ी में। कंपनी ने तो उन्हे सेवानिवृत्ति दी ही, बच्चों ने भी दे दी।

Dec 15, 2021

गृहनगर

बचपन से सुनते आए थे, असली भारत देखना है तो गाँवों में जाइये। देश की 90% जनसंख्या वहीं रहती है। अब चूंकि हम स्वयं ग्रामीण परिवेश से ही आते हैं, शिक्षा व बेहतर जीवन यापन हेतु भले ही नगरों/ महानगरों में रहते रहे हों, भीतर हृदय की गहराइयों में सर्वदा कहीं कसक रही कि सेवानिवृत्ति पश्चात शेष जीवन अपने ग्राम में ही बसर करेंगे। ग्राम में यदि न भी रहे तो निकट वाले किसी नगर में डेरा डालेंगे।

इस बीच लंबे अंतराल के लिए विदेशों में तैनाती हो गई। वर्ष में दो एक बार ही स्वदेश आना हो पाता था, वो भी अल्प समय के लिए। भागते हुये कभी कभार ही गाँव/गृहनगर देख पाते थे उड़ती निगाहों से। निकट ठीक से देख न पाया। इस वर्ष जब स्वदेश वापसी हुई, मुख्यालय स्थानांतरण पश्चात, तभी से मौके की तलाश में था।
दस दिनों के भीतर तीन विवाह की तिथियाँ आई। तीनों करीबी रिश्तेदारों के। विवाह-स्थल भी मेरे परम प्रिय, वही जो मेरे हृदय के भीतर की असीम गहराइयों में समाए थे, गोरखपुर, वाराणसी व प्रयागराज। दस दिन का अवकाश मिलना आसान तो था नहीं, पर किसी तरह कार्यालय में लड़ झगड़ अनुमोदन करा ही लिया। तीनों नगरों के अनुभव कमोवेश एक जैसे ही रहे। दरअसल ये तीनों नगर नहीं महानगर हैं यूपी के।
प्रातःकाल ब्राम्ह-मुहूर्त में शय्या त्याग देना मेरी आदत रही है विगत कई दशकों से। तत्पश्चात प्रातः भ्रमण और योग प्राणायाम। कुल मिलाकर सब कुछ एक घंटा। वहाँ पहुँचते ही सुबह उठ चल पड़े भ्रमण को, लेकिन बाहर मार्ग में सड़क पर धूल बहुत थी। यहाँ नोएडा में सड़क के बगल ईंट का फुटपाथ, फिर गार्डन जिसमें हरी घास व वृक्ष लगे होते हैं। धूल के लिये कहीं कोई जगह नहीं, सिवाय तब जब राजस्थान से आंधी आ जाए। लेकिन वहाँ ऐसा न था। नाक पर रुमाल या मास्क रखने के पश्चात भी राहत न मिलती थी। जूते अलग से धूसरित हो रहे।

बड़ी खोज बीन की, मगर नोएडा जैसे पार्क न मिले कहीं। मुख्य चौड़े मार्ग पर वाहनों की अधिकता से भीषण प्रदूषण, तो अंदर सकरी गलियों में सड़क के बाद सीधे मकानों की सरहद। वृक्ष लगाने के लिए स्थान की तो बात ही क्या करनी, यदि एक वाहन खड़ा करके कोई अपना समान उतारने लगे तो पीछे अन्य वाहनों की कतार लग जाय। पार्क व पार्किंग दोनों का आभाव।
सोचा फ्लैट देखा जाय। वहाँ अवश्य माहौल बेहतर होगा। फ्लैट वर्टिकल स्पेस लेते हैं, इसलिये हॉरिजॉन्टल स्पेस खाली मिल जाता है। अवश्य काफी खुला मैदान होगा पार्क इत्यादि के लिये। किन्तु वहाँ अंदर कोई पार्क, स्विमिंग पूल, वॉकिंग ट्रैक दृष्टिगोचर न हुआ। फ्लैट भी पास पास एक दूसरे से हाथ मिलाते हुये। टावरों के बीच की आवश्यक दूरी नजर न आई। नोएडा फ्लैट की बालकनी में खड़े हो जाने पर दूर तक विहंगम दृश्य दिखता है, लेकिन वहाँ दिखे बगल के फ्लैट की रसोई अथवा शयन-कक्ष। एफ ए आर के मानक का कोई न्यूनतम स्तर नहीं है वहाँ।
दाम सुना तो पैरों तले जमीन खिसक गई। नोएडा का दुगुना या तिगुना। जमीनो पर बने मकान तो उससे भी डबल। जमीन की ही कीमत इतनी अधिक कि उतने में नोएडा के दो फ्लैट आ जाय। धन्यवाद दीजिये सुश्री माया बहन को जिनकी वजह से नोएडा में फ्लैटों की धकापेल हो गई। इतने बन गये कि लेने वाले ही बाजार से गायब हो गये। इतने कम कीमत पर इतनी सुविधाओं के साथ, जहाँ प्रत्येक सेक्टर में धुँवाधार हरे भरे पार्क भरे पड़े हों, छोड़ दोगुनी कीमत पर कोई भला क्यों जाए? नीचे एक चित्र में आप देख सकते हैं यहीं बगल गाजियाबाद में 5 लाख की फेंकू कीमत पर फ्लैट उपलब्ध है। इतने में तो बनारस में आपको दो गज जमीन भी नसीब न होगी।
हर वस्तु की होम डेलीवेरी हो जाती है। वाहन की बैटरी कमजोर हो चली थी। स्टार्ट न हो रही थी। अनलाइन ढूँढा। चार हजार में घर पे आकर लगा गया। बाद में पता किया दुकान पर वही बैटरी पाँच हजार से भी अधिक कीमत पर थी। महानगर दिल्ली जैसी ये सुविधायें अन्य नगरों में फिलहाल अभी उपलब्ध नहीं हैं। वाराणसी में घंटों इंतजार के पश्चात भी एक टैक्सी न मिली ओला/ उबर से और यहाँ रेल लगी पड़ी है। टैक्सी के अलावा दिल्ली मेट्रो है। नोएडा मेट्रो हैं। डीटीसी की बसें हैं। यातायात के लिए तो कोई झंझट ही नहीं।
दिल्ली गुड़गांव भी नोएडा जितना खुला-खुला नहीं है। अब तो एशिया का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय विमानस्थल, फिल्म सिटी, उद्योग, सैमसंग मोबाईल फैक्ट्री, माल सभी कुछ यहीं है। दिल्ली में माल भी नहीं क्योंकि खाली स्थान नहीं बचे। देश-विदेश कहीं भी जाना हो तो सभी साधन उपलब्ध। देश का कोई प्रांत नहीं जहाँ के लिए यहाँ से ट्रेन व वायुयान न मिलते हों। विश्व में कहीं जाना हो, भारत के हर कोने से लोग यहीं दिल्ली आते हैं। हर स्थान से सीधा जुड़ाव। यदि आप को समय काटना हो तो निकल जाइये उद्योग मेला, पुस्तक मेला, दिल्ली हाट, रंगमंच, नाट्यशाला। ऐतिहासिक स्थल पे बैठ जाइए। दरियागंज हो आइए रविवार यदि सेकंड हैंड सस्ती पुस्तकें चाहिये। सेवानिवृत्ति बाद भी काम करना हो तो यहाँ ही नौकरी मिलेगी। नहीं करना हो तो देशाटन के लिए हर साधन। बस एक समस्या है नोएडा में। अक्तूबर-नवंबर में पराली प्रदूषण का प्रकोप। लेकिन बारहों महीने झेलने से बेहतर है एक महीना झेला जाए। वैसे सरकार प्रयत्नशील है, भविष्य में कोई हल निकलेगा ही।
अब हम कहीं नहीं जाने वाले। जायेंगे भी तो बस अपने ग्राम, जहाँ धूल प्रदूषण नहीं। आते जाते रहेंगे कुछ दिन के लिये। ट्रेन-वायुयान मार्ग से सीधा जुड़ाव है ही। गरीब रथ यहीं बगल आनंद विहार से मिल जाएगी, जो सीधे प्रतापगढ़ उतारेगी। नीचे चित्र में दिखाये सारे पार्क व मनोहारी उद्यान मेरे निवास से मात्र 25 मीटर की परिधि में हैं। प्रथम चित्र गोरखपुर का जबकि अन्य सभी नोएडा के हैं।
काम दाम में इतनी अधिक सुविधायें,
भला कोई क्यों नोएडा छोड़ के जाये।

विवाह

विगत 20 दिनों में हम पाँच विवाह समारोहों में सम्मिलित हुये। सोचा कुछ स्याही बिखेर दूँ।

कुछ पुराना याद आ गया। बचपन याद आ गया। लोगों का जीवन स्तर इतना बेहतर नहीं था। वेतन की तुलना में जीवन यापन मूल्य अधिक था। परिवार नियोजन मार्गों से अंजान लोगों के बच्चे भी थोक में होते थे। जिन्हें नियोजन ज्ञान था भी तो संसाधनों का आभाव अथवा उन्हें क्रय करने का संकोच आड़े आता था। एक कमाने वाला और आठ दस खाने वाले। सम्पूर्ण जीवन दो जून की रोटी जुगाड़ने में ही निकल जाता।
अब ऐसे में यदि कोई छप्पन भोग की बात करे तो हंसी ही आयेगी। आते जाते कोई मेहमान मिष्ठान्न ले आ टपका तो थोड़ा जीभ का स्वाद बदल जाता था। लेकिन वर्ष दो वर्ष में एक अवसर था जब जी भर के व्यंजन जीमने का मौका मिलता था। वह मौका होता था विवाह। परंतु हर विवाह नहीं। यदि कन्या विवाह है तब तो आप मजदूर की तरह जोत दिए जायेंगे। लेकिन सौभाग्य से आप वर पक्ष की तरफ से निमंत्रण पा गये तब तो फिर पौ बारह। लेकिन कैसा भी विवाह हो, वर या वधू, नियत तिथि से काफी पहले ही लोगबाग आ के घर में पैठ बना लेते थे। विवाह से पहले तिलक होता था। तिलक-विवाह के बीच दस-पंद्रह दिनों में ढेर सारे रीति रिवाज। गर्मी की छुट्टियों में ही अधिकतर होते थे विवाह जब लोगबाग विद्यालय के कार्यभार से मुक्त होते थे। अतः ज्यादा करीबी लोग महीने भर पहले भी जम जाते। जहां कहीं भी पड़ के रह लिए, बाग बगीचे में किसी भी पेड़ के तले। व्यंजन भले न मिले पर खेत में उपजी दाल रोटी सबके लिए पर्याप्त थी। यह काल बच्चों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। खूब सारे लोग, खूब सारे खेल कूद। कुछ नहीं तो ताश के फड़ बिछ जाते। दहला पकड़ या ट्वेंटी नाइन।
विवाह की तैयारियों में भी लगे रहते। सर्फ में कुर्ता धोया, फिर उसपे नील टिनोपाल चढ़ाया। कुछ ज्यादा ही शौकीन लोग उसापे कफ भी चढ़ाते थे, चावल का माड़ या ऐसा ही कुछ। कुर्ता कुरकुरा कडक हो जाता था। बस में सवार हो बारात बाजे गाजे के साथ विदा होती। बारात पहुँचने के साथ ही आरंभ हो जाती सबकी आवभगत। किसी विद्यालय में बारात टिकाई जाती। वो न मिले तो खेत या बाग बगीचे भी पर्याप्त थे। इस बारात पार्किंग स्थल को कहते थे जनवासा। गाँव भर से खटिया इकट्ठी कर बिछा दी जाती थी। बस से उतरते ही सभी बाराती दौड़ पड़ते अपनी अपनी खटिया कब्जा करने। कुछ ढीले लोग वंचित रह जाते खटिया से और फिर उनके पास अगले तीन दिनों तक मुँह फुलाने और खामियाँ निकालने का ही मार्ग शेष रहता।
इस बारात की खातिरदारी होती रहती अगले तीन दिनों तक। हर बाराती के अलग नखरे। कहीं फूफा नाराज तो कहीं जीजा। सबसे अधिक नाराज होने का अधिकार होता था दूल्हे को। खिचड़ी रस्म रखी ही गई थी उसे यह विशेषाधिकार देने हेतु। माँग वत्स क्या चाहिये ससुर से। इसी माँग पर विवाह का भविष्य निर्भर होता था, सफलता अथवा असफलता का। कई बारातें लौट जातीं माँग पूरी न होने पर। लेकिन माँग छोटी ही होती, साइकिल घड़ी या रेडियो। कुछ लोग गाय भैंस भी देते थे। कालांतर में इस खिचड़ी व्यवस्था ने वीभत्स रुप ले लिया। लोगों की मांगें बढ़ती गई। साइकिल से स्कूटर बाइक और फिर कार। अंत जो भी हो, बारातियों के तो मजे ही मजे होते थे। तीन दिन का जबरदस्त खानपान। ठंडाई, शरबत, ढेर सारे व्यंजन, मिठाई, नमकीन.... वगैरह वगैरह। बारात की खातिरदारी के किस्से वर्षों लोग सुनाते चटकारे ले लेकर।
समय बदला। समाज बदला। जीवन की आपाधापी में लोगों के पास इन सब उत्सवों के लिए समय कम पड़ने लगा। फास्ट फूड, फास्ट लाइफ का दौर आया। तीन दिन विवाह का स्थान ले लिया एक दिन ने। फिर वह भी कम हुआ मात्र एक रात का। तारों की छाँव में दुल्हन को विदा कर देना है, यानि सूर्योदय से पूर्व। तदपि कुछ लोग पुरातन व आधुनिक युग के बीच झूलते रहे। विवाह तिथि से दो दिन पूर्व संगीत संध्या आयोजित कर डालते हैं। बाहर से भी कई लोग आमंत्रित हो जाते हैं। लेकिन यह पुरातन पद्धति आधुनिक युग के बदले परिवेश में चल नहीं पाती। विवाह अब गर्मियों के स्थान पर सर्दियों में होने लगे हैं। नगरों में होने लगे हैं। गाँव में तो ग्रीष्म ऋतु में कहीं भी खाट बिछा पड़ जाओ, किन्तु नगरों में तो एक एक इंच की कीमत देनी होगी। बिस्तर कमरा हर एक चीज की व्यवस्था। लोगबाग भी नाजुक हो चले हैं, सामन्यतः सभी का जीवन स्तर पहले से उच्च हो गया है, स्नान हेतु गरम जल चाहिये। यानि गीजर भी हो।
लोग बाग विवाह में पहुँच तो जाते हैं, किन्तु इन सब व्यवस्थाओं की अनुपलब्धता उन्हें व्यथित करती है। महीने भर टिकने वाले अब तीन दिन टिकने में भी असहज हो जाते हैं। कहीं एक हाल में दर्जन भर लोग, कहीं दो कमरों में दस लोग। वरना विवाह का अव्यवस्थित घर तो है ही, रह सकते हो तो रह लो। मात्र दो सदस्यों के लिए अपने घर में तीन-चार टॉइलेट रखने वाले यहाँ सुबह टॉइलेट की लंबी लाइन में पेट दबाए पड़े रहो। इन सबसे निजात पाने के लिए कुछ स्मार्ट लोग अगल बगल किसी अन्य रिश्तेदार या जान पहचान के यहाँ धीरे से कट लेते हैं। क्योंकि खुलेआम छोड़कर जाने से रिश्तों में खटास आने का अंदेशा रहता है। धनाढ्य पैसे वाले तो सीधे होटल में ही आ के रुकेंगे अपने पैसे से। और जो सबसे अधिक स्मार्ट हैं, वो तो बस विवाह-संध्या को ही आयेंगे और जयमाल पश्चात रवानगी। एक विवाह में तो होटल में दो दिन रहने के पश्चात ठीक विवाह वाले दिन ही होटल वाला कमरा खाली करने को बोल गया। कारण जो भी रहा हो, लेकिन यह यजमान व मेहमान दोनों के लिए असहजपूर्ण व कष्टदायक रहा। एक ही संध्या को लोगबाग लाखों करोड़ों उड़ा देते हैं, सजावट तथा खानपान में। भला एक वक्त में कोई क्या-क्या और कितना खा पाएगा। विवाह व्यय तो पहले से कई गुना बढ़ा, किन्तु मजा पहले वाला न रहा। दो-तीन घंटों के आयोजन संध्याकाल में कौन आया कौन गया, पता भी नहीं चलता, जबकि बचपन में एक महीनों के संसर्ग में अमिट छाप छोड़ जाने वाली यादें जीवन भर साथ देती थीं।
कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन।

Oct 16, 2021

स्वीट सिक्स्टीन से स्वीट सिक्स्टी का सफर

 

स्वीट सिक्स्टीन से स्वीट सिक्स्टी का सफर,
यूँ सर्र से निकल गया
.
माँ बाप से विलग हो छात्रावास जाना
वहाँ की हुड़दंग में रम जाना
सहपाठियों से पंजा लड़ाना
अध्यापकों की नकल उतारना
क्लास बंक कर सिनेमा जाना
फिर पास होकर निकल जाने का सफर
यूँ सर्र से निकल गया
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आयल इंडिया की स्वर्णिम नौकरी
नारंगी व जालोनी क्लब की चकाचौंध
टेनिस बैडमिन्टन के खेल
स्विमिंग पूल की जलक्रीड़ाएं
पत्नी व पुत्र के साथ में रम
आसाम से निकल दिल्ली का सफर
यूँ सर्र से निकल गया
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दिल्ली की आपाधापी
घर से कार्यालय का संघर्ष
बच्चों का विद्यालय गमन  
बढ़ते खर्च की तंगी
परिवार से विलग हो  
सुदूर विदेशी प्रवासों का सफर
यूँ सर्र से निकल गया
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भैया से अंकल का सम्बोधन
मातहत से बॉस बन
कारपोरेट हेड्स के साथ मीटिंग्स  
काले से श्वेत होते बाल
कमर की बढ़ती परिधि  
दुबले से मोटे होने को तरसने से
मोटे से छरहरे होने का सफर
यूँ सर्र से निकल गया
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बच्चों की शिक्षा सम्पूर्ण
उनका हमसे विलग हो कहीं दूर
अपनी स्वयं की गृहस्थी बसा लेना
पति-पत्नी का वही एकाकीपन
कैरियर में सेवानिवृत्ति निकट आने का सफर
यूँ सर्र से निकल गया
 
स्वीट सिक्स्टीन से स्वीट सिक्स्टी का सफर,
यूँ सर्र से निकल गया
~dk
On his 60th birthday 16/10/21.