Dec 15, 2021

विवाह

विगत 20 दिनों में हम पाँच विवाह समारोहों में सम्मिलित हुये। सोचा कुछ स्याही बिखेर दूँ।

कुछ पुराना याद आ गया। बचपन याद आ गया। लोगों का जीवन स्तर इतना बेहतर नहीं था। वेतन की तुलना में जीवन यापन मूल्य अधिक था। परिवार नियोजन मार्गों से अंजान लोगों के बच्चे भी थोक में होते थे। जिन्हें नियोजन ज्ञान था भी तो संसाधनों का आभाव अथवा उन्हें क्रय करने का संकोच आड़े आता था। एक कमाने वाला और आठ दस खाने वाले। सम्पूर्ण जीवन दो जून की रोटी जुगाड़ने में ही निकल जाता।
अब ऐसे में यदि कोई छप्पन भोग की बात करे तो हंसी ही आयेगी। आते जाते कोई मेहमान मिष्ठान्न ले आ टपका तो थोड़ा जीभ का स्वाद बदल जाता था। लेकिन वर्ष दो वर्ष में एक अवसर था जब जी भर के व्यंजन जीमने का मौका मिलता था। वह मौका होता था विवाह। परंतु हर विवाह नहीं। यदि कन्या विवाह है तब तो आप मजदूर की तरह जोत दिए जायेंगे। लेकिन सौभाग्य से आप वर पक्ष की तरफ से निमंत्रण पा गये तब तो फिर पौ बारह। लेकिन कैसा भी विवाह हो, वर या वधू, नियत तिथि से काफी पहले ही लोगबाग आ के घर में पैठ बना लेते थे। विवाह से पहले तिलक होता था। तिलक-विवाह के बीच दस-पंद्रह दिनों में ढेर सारे रीति रिवाज। गर्मी की छुट्टियों में ही अधिकतर होते थे विवाह जब लोगबाग विद्यालय के कार्यभार से मुक्त होते थे। अतः ज्यादा करीबी लोग महीने भर पहले भी जम जाते। जहां कहीं भी पड़ के रह लिए, बाग बगीचे में किसी भी पेड़ के तले। व्यंजन भले न मिले पर खेत में उपजी दाल रोटी सबके लिए पर्याप्त थी। यह काल बच्चों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं था। खूब सारे लोग, खूब सारे खेल कूद। कुछ नहीं तो ताश के फड़ बिछ जाते। दहला पकड़ या ट्वेंटी नाइन।
विवाह की तैयारियों में भी लगे रहते। सर्फ में कुर्ता धोया, फिर उसपे नील टिनोपाल चढ़ाया। कुछ ज्यादा ही शौकीन लोग उसापे कफ भी चढ़ाते थे, चावल का माड़ या ऐसा ही कुछ। कुर्ता कुरकुरा कडक हो जाता था। बस में सवार हो बारात बाजे गाजे के साथ विदा होती। बारात पहुँचने के साथ ही आरंभ हो जाती सबकी आवभगत। किसी विद्यालय में बारात टिकाई जाती। वो न मिले तो खेत या बाग बगीचे भी पर्याप्त थे। इस बारात पार्किंग स्थल को कहते थे जनवासा। गाँव भर से खटिया इकट्ठी कर बिछा दी जाती थी। बस से उतरते ही सभी बाराती दौड़ पड़ते अपनी अपनी खटिया कब्जा करने। कुछ ढीले लोग वंचित रह जाते खटिया से और फिर उनके पास अगले तीन दिनों तक मुँह फुलाने और खामियाँ निकालने का ही मार्ग शेष रहता।
इस बारात की खातिरदारी होती रहती अगले तीन दिनों तक। हर बाराती के अलग नखरे। कहीं फूफा नाराज तो कहीं जीजा। सबसे अधिक नाराज होने का अधिकार होता था दूल्हे को। खिचड़ी रस्म रखी ही गई थी उसे यह विशेषाधिकार देने हेतु। माँग वत्स क्या चाहिये ससुर से। इसी माँग पर विवाह का भविष्य निर्भर होता था, सफलता अथवा असफलता का। कई बारातें लौट जातीं माँग पूरी न होने पर। लेकिन माँग छोटी ही होती, साइकिल घड़ी या रेडियो। कुछ लोग गाय भैंस भी देते थे। कालांतर में इस खिचड़ी व्यवस्था ने वीभत्स रुप ले लिया। लोगों की मांगें बढ़ती गई। साइकिल से स्कूटर बाइक और फिर कार। अंत जो भी हो, बारातियों के तो मजे ही मजे होते थे। तीन दिन का जबरदस्त खानपान। ठंडाई, शरबत, ढेर सारे व्यंजन, मिठाई, नमकीन.... वगैरह वगैरह। बारात की खातिरदारी के किस्से वर्षों लोग सुनाते चटकारे ले लेकर।
समय बदला। समाज बदला। जीवन की आपाधापी में लोगों के पास इन सब उत्सवों के लिए समय कम पड़ने लगा। फास्ट फूड, फास्ट लाइफ का दौर आया। तीन दिन विवाह का स्थान ले लिया एक दिन ने। फिर वह भी कम हुआ मात्र एक रात का। तारों की छाँव में दुल्हन को विदा कर देना है, यानि सूर्योदय से पूर्व। तदपि कुछ लोग पुरातन व आधुनिक युग के बीच झूलते रहे। विवाह तिथि से दो दिन पूर्व संगीत संध्या आयोजित कर डालते हैं। बाहर से भी कई लोग आमंत्रित हो जाते हैं। लेकिन यह पुरातन पद्धति आधुनिक युग के बदले परिवेश में चल नहीं पाती। विवाह अब गर्मियों के स्थान पर सर्दियों में होने लगे हैं। नगरों में होने लगे हैं। गाँव में तो ग्रीष्म ऋतु में कहीं भी खाट बिछा पड़ जाओ, किन्तु नगरों में तो एक एक इंच की कीमत देनी होगी। बिस्तर कमरा हर एक चीज की व्यवस्था। लोगबाग भी नाजुक हो चले हैं, सामन्यतः सभी का जीवन स्तर पहले से उच्च हो गया है, स्नान हेतु गरम जल चाहिये। यानि गीजर भी हो।
लोग बाग विवाह में पहुँच तो जाते हैं, किन्तु इन सब व्यवस्थाओं की अनुपलब्धता उन्हें व्यथित करती है। महीने भर टिकने वाले अब तीन दिन टिकने में भी असहज हो जाते हैं। कहीं एक हाल में दर्जन भर लोग, कहीं दो कमरों में दस लोग। वरना विवाह का अव्यवस्थित घर तो है ही, रह सकते हो तो रह लो। मात्र दो सदस्यों के लिए अपने घर में तीन-चार टॉइलेट रखने वाले यहाँ सुबह टॉइलेट की लंबी लाइन में पेट दबाए पड़े रहो। इन सबसे निजात पाने के लिए कुछ स्मार्ट लोग अगल बगल किसी अन्य रिश्तेदार या जान पहचान के यहाँ धीरे से कट लेते हैं। क्योंकि खुलेआम छोड़कर जाने से रिश्तों में खटास आने का अंदेशा रहता है। धनाढ्य पैसे वाले तो सीधे होटल में ही आ के रुकेंगे अपने पैसे से। और जो सबसे अधिक स्मार्ट हैं, वो तो बस विवाह-संध्या को ही आयेंगे और जयमाल पश्चात रवानगी। एक विवाह में तो होटल में दो दिन रहने के पश्चात ठीक विवाह वाले दिन ही होटल वाला कमरा खाली करने को बोल गया। कारण जो भी रहा हो, लेकिन यह यजमान व मेहमान दोनों के लिए असहजपूर्ण व कष्टदायक रहा। एक ही संध्या को लोगबाग लाखों करोड़ों उड़ा देते हैं, सजावट तथा खानपान में। भला एक वक्त में कोई क्या-क्या और कितना खा पाएगा। विवाह व्यय तो पहले से कई गुना बढ़ा, किन्तु मजा पहले वाला न रहा। दो-तीन घंटों के आयोजन संध्याकाल में कौन आया कौन गया, पता भी नहीं चलता, जबकि बचपन में एक महीनों के संसर्ग में अमिट छाप छोड़ जाने वाली यादें जीवन भर साथ देती थीं।
कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन।

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