Oct 8, 2020

मालवीयन मीट

जैसे पतंगा हो सम्मोहित, देख जलता हुआ दिया।
विरहिणी के लिए जैसे उसका, बिछड़ा हुआ पिया।
किसी युद्धबंदी ने जैसे, अपना वतन पा लिया।
वैसे हम भूतपूर्व-छात्रों के लिए, होता ये मालविया।

मित्रों के संग घूम टहल , गन्ना अमरुद उड़ाते थे।
गोलघर में तितलियों के पीछे, लम्बी रेस लगाते थे।
कुछ को खोराबार के जंगल ही, ज्यादा रास आते थे।
ढाबे में इतना खा लिये, बाबूलाल पैरों में गिर जाते थे।

रेलवे कंसेसन पर डीन के ठप्पे, हास्टल में ही लग जाते थे।
रेल यात्रा में सारे मालवियन, केवल हरिजन कहलाते थे।
साथी दोस्त के लिए झगडा कर, अपना सर भी फुड़वाते थे।
पास होने पर उस दोस्त से दुबारा, शायद ही मिल पाते थे।
निर्दयी वार्डेन सर्द रातों में, हमारा हीटर उठा ले जाते थे।
परीक्षा टलवाने के लिए हम भी, प्रिंसिपल तक को हड़काते थे।

एलुमनाई मीट पर मालविया में, करेंगे जबरदस्त धमाल।
पुराने दोस्त वही सारे, जो पहले मिल करते थे बवाल।
जो नहीं आ पाएँगे, सारी जिंदगी उनको रहेगा ये मलाल।
अब जीने से क्या फ़ायदा, ईश्वर तू कर दे मुझको हलाल।

जहाँ चार यार मिल जायें, वहीं बच्चन की रात हो गुलजार।
क्या होगा नजारा जब, इकट्ठे होंगे एक सौ चालीस दिलदार।
असमान रश्क करेगा जब, कैम्पस में खिलेंगे हम दमदार।
मुकेश अम्बानी भी नहीं दिखेगा, तब हमसे ज्यादा मालदार।

कह डी के कविराय, भला हो दुनिया के रखवाले।
एक ही झटके में तूने, सारे बिछड़े यार दे डाले।
मारीशस का स्वर्ग क्या, तोड़ भागूं इंद्रलोक के ताले।
मिल जाय गर बिछड़े यार संग, जाम के चंद प्याले।

Oct 2, 2020

भारतवासी

हिमशिखर उत्तुंग उठा कपाल,
चरण पखारता सागर विकराल,
गंगा यमुना संचारित रक्तनाल,
असम चायबागान लहराते केशबाल,
अद्भुत सोनचिरैया ऐसी, पूरी दुनिया थी अभिलाषी.
ज्ञान ध्यान की ज्योति जलाते, ऐसे हैं हम भारतवासी.

सत्य अहिंसा के अनुयाई, कहते सबको भाई-भाई,
बुरी नजर वाले का लेकिन, हिसाब चुकाते पाई-पाई
गौतम गाँधी नानक हैं हम , दूसरा थप्पड़ खाते तड से.
शिवाजी राणा चाणक्य भी है, मट्ठा डाल सुखा दे जड़ से.
शांति पुरष्कार दुसरे ले जाते, विश्व बंधुत्व के हम विन्यासी.
किया न आम्रमण कभी किसी पे, ऐसे हैं हम भारतवासी.

इस शांतिप्रियता को अरि ने, हमारी कमजोरी समझ लिया,
अन्नपूर्णा पावन धरती को, रक्तिम रणभूमि बना दिया.
हिन्द का खड्ग प्रलय बन टूटा, शत्रु-शीश से पाट दिया
लेकिन पीछे से जयचंदों ने, पीठ में छुरा उतार दिया.
जीत सके ना कोई इनसे, अपनों से हारे ये अघनासी
गद्दारों की कमी नहीं है, ऐसे हैं हम भारतवासी.

इतिहासों से सबक न लेते, छुद्र स्वार्थ में लिप्त हुए,
अपनी ही जड़ खोद रहे हैं, जांत-पांत में बंटे हुए,
पंजाब सिंध बंग कश्मीर, पूरा कहाँ रहा अब देश में.
दुश्मन आ के सब खा जाए, ना जाने किस वेश में.
रणवीरों हुंकार भरो अब, त्यागो तंद्रा और उदासी,
कलम से भी तलवार बनाते, ऐसे हैं हम भारतवासी.

एक से एक जुडो अब वीरों, जांत-पांत का नाश करो,
भाषा बोली क्षेत्र से ऊपर, भारत माँ को याद करो,
गद्दारों को ढूंढ निकालो, उनका पर्दाफ़ाश करो,
शत्रुदल काँपे अंदर बाहर, प्रत्यंचा टंकार करो,
अफजल कसाब अब निकट न आवैं, धधकी महादेव की काशी,
त्रिनेत्र-ज्वाला बन भस्मित कर जाते, ऐसे हैं हम भारतवासी.

सर्वशक्तिमान बने अब भारत, कर लो ऐसा काम शुरू,
धरती के कण-कण में गरजें, होकर फिर से विश्व गुरु,
अब न रहे कोई भूखा नंगा, खुशहाली का राज रहे.
धर्म अर्थ शान्ति शक्ति का, भारत में आगाज रहे.
ज्ञान-विज्ञान में हो पारंगत, जहाँ भी जाए हिन्द निवासी.
उठ खड़े सभी सम्मान से बोलें, यही है देखो भारतवासी.

- जय हिन्द.

Jul 21, 2020

सद्दाम के गढ़ बग़दाद में (1998):

सद्दाम के गढ़ बग़दाद में (1998):
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यूँ तो फिल्मों में लोगों ने बहुतेरे युद्ध के दृश्य देखे थे, या फिर महाभारत काल में संजय ने देखे. लेकिन 1990 में जब खाड़ी युद्ध के वक्त टीवी के सुनहरे पर्दे पे अमरीका की मिसाइल-वर्षा देखी लोगों ने वास्तविक युद्ध की, तो अलग ही रोमांच से लबरेज हो गए. भला हो दिल्ली एशियाई खेलों का, जो रंगीन टीवी भारत में आ चुका था सन १९८२ में. लोगों ने ये भी देखा कैसे सद्दाम ने स्कड मिसाइलें छोडीं कुवैत और इजराइल पे. कैसे बाद में अमरीका उसकी मिसाइलों को हवा में ही तबाह करने लगा. शायद एक महीने चली ये हवाई लड़ाई. मीडिया कयास लगाता रहा जमीनी लड़ाई में इराक को महारत हासिल है और उसमें अमरीका के बहुतेरे सैनिक हताहत होंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और अमरीकी सैनिक कुवैत में आराम से टहलते हुए प्रवेश कर गये. सभी इराकी सैनिक कुवैत के तेल कुओं में आग लगा कर भाग खड़े हुए.



जार्ज बुश ने इसे अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा मान लिया और यूएन के चैनेल से सद्दाम को पंगु बना दिया. ये बुश व् सद्दाम की व्यक्तिगत लड़ाई हो गयी. इराक पे यूएन के प्रतिबन्ध लग गए. वो तेल नहीं बेच सकता. केवल बार्टर डील कर सकता है. यानी सामान के बदले तेल, वो भी एक निश्चित मात्रा में ही. बगदाद में यूएन के ऑब्जर्वर बैठ गए निगरानी के लिए.
समय बीता. हम भी इन सब घटनाओं को भूल चले. लेकिन तब ये सारी घटनाएँ जीवंत हो उठीं, जब मुझे बग़दाद जाने का मौक़ा मिला १९९८ में. लम्बी और घोर मशक्कत से एक कंसल्टेंसी प्रोजेक्ट पूर्ण किया था टाटा इलेक्ट्रिक कंपनी के लिए. बहुत अच्छी रिपोर्ट के साथ पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन दिखाया बॉम्बे हाउस में. महान आश्चर्य तो तब हुआ जब रतन टाटा स्वयं आ गए उसे देखने. क्लाइंट ने काफी पसंद किया और प्रशस्ति पत्र भी दिया व्यक्तिगत नामों से. जिसके एवज में मुझे मेरी कंपनी के बॉस ने बगदाद के ‘अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले’ में १५ दिनों के लिए कंपनी का स्टाल लगाने और बिजनेस प्रोमोशन हेतु नामित किया. यानी काम कुछ नहीं बस तफरीह.
मैं और मेरे एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भार्गव साहब दोनों चल पड़े रॉयल-जोर्डेनियन एयरलाइन से जॉर्डन की राजधानी अम्मान के लिए. इराक पे तो प्रतिबन्ध लगा था इसलिए वहाँ के लिए कोई विमान सेवा नहीं थी कहीं से भी. अम्मान से बगदाद जाना था सड़क मार्ग से.
अम्मान शहर काफी विकसित लगा. भार्गव साहब ने बताया, ”यहाँ हमें कोई बिजनेस नहीं मिला कभी. मौक़ा लगे तो ‘डेड सी’ देख लेना. कभी वो समुन्दर से लगा था. लेकिन फिर जमीनी उथल पुथल के कारण शेष समुन्दर से कट के अलग हो गया. पानी वाष्पित होता गया. नमक की मात्रा बढ़ती गयी. पानी गाढा हो गया, इसलिए उसमें कोई डूबता नहीं”.
रात भर होटल में रुके. और अगले दिन सुबह रवाना हो गए बग़दाद के लिए एक बड़ी गाडी जीएमसी में. वो थी तो बहुत बड़ी गाडी लेकिन किराया कुछ जादा नहीं था. कारण ईराक में तेल पानी से भी सस्ता था. बेचारे को तेल बेचने की इजाजत जो नहीं थी. लोग अपनी गाडी पेट्रोल से धोते थे.
कई घंटे जॉर्डन में चलने के बाद ईराक सीमा पहुँचे. अपना पासपोर्ट दिया, जिसपे उन्होंने वीसा चिपका दिया. उस वीसा पे मोटे लाल अक्षरों में लिखा था, ”आपके पासपोर्ट में पहले से इजरायल वीसा लगे होने पर इराक प्रवेश वर्जित है. कठोर कार्यवाही होगी”.
ऐसा ही नियम खाड़ी के कई देशों में है. इसलिए इजरायल के प्रोजेक्ट में हम लोग पासपोर्ट में वीसा नहीं लगवाते थे. अलग से पेपर में वीसा लेते थे, जिसमें पासपोर्ट नम्बर लिखा होता था. उसी पे इमिग्रेशन स्टाम्प भी लगता था, पासपोर्ट में नहीं. खैर वीसा वाले ने बताया, बग़दाद पहुँच के एक बार इमिग्रेशन कार्यालय जाकर फिर से इंट्री करवानी होगी.
सड़क बहुत ही अच्छी और चौड़ी थी ईराक के अन्दर. जॉर्डन से भी जादा चौड़ी व चिकनी. दोनों ओर रुखा रेगिस्तान. जीएमसी भागी जा रही थी एक सौ बीस तीस पे. भार्गव साहब अपने पुराने प्रोजेक्ट याद करने लगे जो उन्होंने किये थे इराक में.
“ये देखो रमादी में माइक्रोवेव टावर हम्हीं लोगों ने लगवाया था. कुट-अमारा लिंक रिकार्ड समय में समाप्त हुआ. बहुत काम मिला था हमें यहाँ” उन्होंने कहना शुरू किया, “विन्च मशीन से जब बड़ा ऐन्टेना जाने लगा १०० मीटर टावर के ऊपर तो भारी भीड़ जमा हो गयी. उन्होंने पहले कभी ऐसा देखा नहीं था”.
“कब की बात है?”
“ये था १९८४. हिंदी फिल्मों के बहुत दीवाने थे इराकी. एक बार मेरा एक लम्बा-गोरा इंजिनियर सिनेमा देख के बाहर निकला, सबने उसे घेर लिया कि अमिताभ बच्चन आ गया”.
“फिर काम बंद कब और क्यों हुआ?”
कुछ वर्षों में इरान-ईराक युद्ध प्रारम्भ हो गया. कई वर्ष चलता गया. ख़त्म होने का नाम ही न ले. तंग आकर हमारे प्रबंधन ने काम बंद कर सभी लोगों को वापस बुला लिया. कितने लोगों को सद्दाम ने मरवा दिया इस युद्ध में, कितने अपंग हो गए. और आज जब अमरीका से पंगा हो गया तो सारी जीती हुई जमीन इरान को वापस कर दी”.
“क्या करता? दो दुश्मन से कैसे लडेगा अकेला. आज उसे दोस्त चाहिए, जो विश्व में कोई नहीं है”.
बग़दाद शहर के अन्दर पहुँचे. मकान दूकान और सडकों की हालत बयान कर रही थी गरीबी. होटल शेरेटन पहुंचे अल-सादून स्ट्रीट पर और चेक इन किया. बगल में टिगरिस नदी बह रही थी, नगर के मध्य ही. होटल के प्रमुख प्रवेश द्वार में घुसते ही जमीन पर जार्ज बुश की तस्वीर पेंट की हुई थी. यानि सभी आगंतुक अपने पैर से उसका सर कुचलते हुए अन्दर जाएँ.
सोचा गया बाहर जाकर थोडा घूमा जाय. लोकल करेंसी एक्सचेंज करवाई. एक डॉलर के मिले दो हजार दीनार. भार्गव साहब दंग रह गए. अरे पहले तो एक दीनार में तीन डॉलर मिलते थे. इतनी खराब हो गयी हालत. बाहर बाजार में पब और नाईट क्लब सब बंद, जो कभी आबाद रहते थे. ईराक काफी खुला हुआ समाज था. लेकिन अमरीका ने तबाह कर दिया. खाना खाया. एक आदमी का लगा ६ हजार दीनार. यानि गड्डी भर-भर के ले जाओ थोड़ी सी भी शौपिंग के लिए.
अगले दिन टैक्सी पकड़ी और अन्दर बैठ गए,”चलो बगदाद व्यापार मेला”.
वो कुछ समझा नहीं. बोला,”फिन्दक बग़दाद?”
अब हम नहीं समझे वो क्या बोला. इसलिए फिर दोहराया,”बग़दाद इंटरनेशनल ट्रेड फेयर”.
उसने गाडी एक सज्जन के बगल रोक दी जो थोड़ा पढ़े लिखे लगते थे. उन्होंने ट्रांसलेट करके कहा उससे,”फिन्दक बग़दाद”.
अब हमें उसका अरबी शब्द मालूम हो गया जो अंत तक काम आया.
रास्ते में टैक्सी वाले ने पूछा, ”इंडियन?”
“फी इंडियन”, मुझे अरबी के कुछ शब्द आते थे सऊदी में रहने के कारण.
“शम्मी कप्पू.....शाशी कप्पू....मौजूद?”
हमने कहा, ”फी मौजूद”. यानि ज़िंदा हैं. वो सब बाकी दुनिया से पुरी तरह कट गए थे. लेकिन उनकी हिंदी सिनेमा का लगाव ज़िंदा था.
व्यापार मेला पहुँचे. भारतीय पवेलियन में अपना स्टाल लगाया. बहुत सी अन्य भारतीय कम्पनियाँ थीं वहाँ. भारतीय राजदूत श्री दयाकर राव साहब दिन में कई चक्कर लगा के स्वयं जायजा लेते रहते थे. रात्रि भोज दिया अपने घर इण्डिया-हाउस में.
अगले दिन हम सब अपना स्टाल लगा के तैयार हो गए. लोग आने शुरू हुए. हम ये देख के हैरान रह गए की सबसे जादा भीड़ हमारे भारतीय पवेलियन में ही उमड़ी पडी थी. पता लगा यहाँ के लोगों को भारत से बहुत लगाव था. इंदिरा गाँधी के वक्त से ही भारतीय आर्मी ने इराक आर्मी को ट्रेनिंग दी थी. भारतीय कंपनियों को बहुत बिजनेस मिलता था यहाँ जिसे अमरीका ने बर्बाद कर दिया.
भीड़ ज्यादातर औरतों और बच्चों की थी. मर्द तो काफी लड़ाई में मारे जा चुके थे. इराकी औरतों की खूबसूरती देख के हम दंग रह गए. गोरा सुर्ख दमकता चेहरा. भार्गव जी ने कहा,” यहाँ एक शहर है बसरा, जो कुवैत बॉर्डर के पास है. बसरा की हूरें पुरी दुनिया में मशहूर हैं”.
एक दिन हम अकेले ही बैठे थे स्टाल पे. दो औरतें आ के खड़ी हुई और देखने लगीं. हम उनसे मुखातिब हुए तो बोलने लगीं टूटी फूटी हिंदी में. हम बड़े खुश हुए एक इराकी कन्या को हिंदी बोलते देख.
हमने कहा,”आप हिंदी कैसे जानती हैं?”
“मेरे पिता भारतीय हैं. और ये हैं मेरी माता, इराकी हैं”.
“अरे वाह, ये तो बहुत अच्छी बात है. आपकी माता को भी हिंदी आती है?”
“नहीं, मैंने अपने पिता से सीखा”.
“क्या करते हैं आपके पिता?”
“उनका बिजनेस था. यूएन प्रतिबन्ध के बाद बिजनेस चलना बंद हो गया. पांच साल पहले पिताजी भारत गए, फिर वापस नहीं आये”.
“क्या बोलते हैं? क्यों नहीं आये? कब आयेंगे?”, मैं अधीर हो गया.
“कुछ पता नहीं. अब उनसे कोई संपर्क नहीं है”, उसका गला रुंध गया.
मेरा दिल भर गया उसकी दास्ताँ सुनकर. आगे कुछ बोला नहीं गया. वो भी बेचारी माँ-बेटी आगे बढ़ गयीं.
हमारे स्टाल पे सद्दाम के सारे मंत्री और जनरल पधारे, सिवाय खुद सद्दाम के. वो कहीं नहीं निकलता था. कहीं भी नहीं देखा उसे सिवाय टीवी के. सद्दाम के अग्रिम पंक्ति के जनरल और उपराष्ट्रपति ताहा यासिन रमादान, उनके पुत्र उदय हुसैन, और उपप्रधान मंत्री इब्राहीम हसन इत्यादि के साथ फोटो है मेरी. अब तो नाम भी याद नहीं बहुतों के. यासीन रमादान तो काफी उम्र के लगते थे, शायद ६५ के आसपास. मै हैरान, इतनी उम्र का व्यक्ति क्या युद्ध करेगा. लोगों ने कहा ये व्यक्ति बहुत शक्तिशाली है और सद्दाम को ऊपर उठाने में इसका महती योगदान है. आज सद्दाम को विश्वासपात्र व्यक्ति चाहिए. पग पग पे खतरा है उसे अमरीका के एजेंटों से. सद्दाम के आखिरी दिनों में जब टीवी पे समाचार आता था, अमेरिका ने रमादान को मारा, या इब्राहिम को मारा, तो मैं अपने एलबम में उनकी अपने साथ लगी फोटो देखता था. और सोचता था, क्या कमी थी इन सबमें. कितने अच्छे लोग मुझे तो लगे थे. अच्छा बर्ताव, ढंग से बोलना सलीके से. अंगरेजी तो नहीं आती थी इन्हें लेकिन अनुवादक लेकर चलते थे हम लोगों से वार्ता हेतु.
अचानक एक दिन याद आया. इमिग्रेशन आफिस जाने को बोला था वीसा वाले ने. पता चला उन्होंने उसी मेले में ही अपना कैम्प लगा दिया है लोगों की सहूलियत के लिए. हम पहुंचे.
उन्होंने कहा,”इंडियन? गिव बोखोर”.
“ये क्या है?”
वो बस बार बार वही दोहराए जाए, “बोखोर ....बोखोर”.
मैं खीझ कर वापस आ गया. स्टाल में कुछ लोगों से पूछा तो उन्होंने कहा,”अरे वो अगरबत्ती मांग रहा है. यहाँ नहीं मिलती. लेकिन लोगों को वो बहुत पसंद है”.
“अब मैं अगरबत्ती कहाँ से लाकर दूं?”
“उपाध्याय जी के पास है, ओएनजीसी-विदेश वाले. वो पिछले वर्ष भी आये थे. इसलिए इस बार भारत से ही साथ लाये अगरबत्ती”.
मैंने लिया उनसे कुछ चार-पांच अगरबत्ती जिसे पाकर वो इराकी बाग़ बाग़ हो गया. फ़टाफ़ट स्टाम्प लगा के दे दिया. ये मेरे जीवन की सबसे सस्ती रिश्वत थी. लेकिन एक मीठी सी हंसी भी आई इन इराकियों की सादगी पर.
भार्गव साहब तो चले गए पांच दिन बाद, लेकिन मैं रहा पुरे १५ दिन. सद्दाम इतना मेहरबान था कि हमारे ‘इंडिया पवेलियन’ को बेस्ट पवेलियन घोषित किया. पाँच सितारा होटल का बिल हमने भरा कौड़ियों के भाव. इसका भी एक दिलचस्प किस्सा है. प्रैक्टिकली तो १ डॉलर में २००० दीनार होते थे. लेकिन सद्दाम इसे नहीं मानता था ऑफिशियली. वो अपना वही पुराना वाला रेट ही मानता था. यानि १ दीनार में ३ डॉलर. १५ दिन के होटल का बिल आया १५०० डॉलर, हमने उन्हें दिया ५०० दीनार पुराने रेट से. यानी एक डॉलर से भी कम. लेकिन ये सुविधा सबके लिए नहीं थी. भारतीय दूतावास की सिफारिश पे ही मिला था केवल हम भारतीयों को. हमने मन में सलाम ठोंका सद्दाम को.
वहाँ से चलते समय हमारे पास काफी सारा इराकी दीनार बचा रह गयां जिसे हमने कोशिश किया वापस डॉलर में बदलने का. लेकिन न हो पाया. काफी नोट भारत लेके आये और बच्चों में बाँट दिया.
पूरे ईराक में कहीं भी कोई चोरी डकैती छीना झपटी नजर नहीं आई. हम आधी रात में भी घूमते थे. सब जगह अमन चैन और शांति उस भीषण गरीबी में भी. जबकि पहले यही लोग शाही अंदाज में जीते थे. लेकिन सद्दाम के मरने के बाद अमरीका जैसा शक्तिशाली देश भी ईराक को कंट्रोल नहीं कर पाया और सब तरफ हिंसा का ताण्डव चला जो सीरिया तक फ़ैल गया और आज भी अनवरत जारी है. शांति के नाम पर अमरीका ने इसी तरह कितने देशों में अशांति फैलाई, इसका हिसाब कौन लेगा उससे? अमरीका ने सद्दाम को क्यों मटियामेट किया? कुवैत छुडा लिया, बस वहीं रुक जाना था. ओसाम लादेन मिला पाकिस्तान में, मारा भी वहीं गया. लेकिन पाकिस्तान में अमरीका ने एक बम भी न गिराया. जबकि अफगानिस्तान में अभी तक डटा हुआ है. भारत के सारे मित्र राष्ट्र ही उसका शिकार हो रहे हैं. इरान के ऊपर चढ़ा हुआ है और भारत का चाबहार बन्दरगाह हाथ से जाता हुआ. सउदी अरब से जादा मानवाधिकार हनन किसी राष्ट्र में नहीं है, लेकिन वो अमरीका का कृपापात्र बना रहा हमेशा. 

Jul 16, 2020

अफ्रीका (इरिट्रिया) यात्रा 1998-99

मेरा पहला विदेश प्रवास सऊदी अरब (1994-96) इतना दुखदाई रहा था, कि वापस आने के बाद विदेशी प्रोजेक्ट में कभी न जाने का मन बना लिया था. घर परिवार से दूर, अपने वतन से दूर, काफी प्रताड़ित सा लगता था. मानसिक व शारीरिक दोनों रूप से. उसपे सऊदी अरब तो नीम पे चढ़ा करेला. बंद समाज, विषम परिस्थिति, मनोरंजन के साधनों का आभाव, पूजा पाठ पे प्रतिबन्ध, क्रूर सजा, इत्यादि अनेक कारणों से मन में विरक्ति हो गयी थी.
इसलिए जब एक दिन हमारे सहयोगी कृशन जी अफ्रीका जाने का प्रस्ताव लेकर आये, तो मैं पशोपेश में पड़ गया. कहने लगे, ”डीके भाई, बस चार महीने का छोटा सा प्रोजेक्ट है. जादा लंबा नहीं रहना है. पलक झपकते ही बीत जाएगा”.
सऊदी से लौटे ३ वर्ष बीत चुके थे. जो कुछ कमा के लाये थे, खर्च हो गए. पॉकेट में फिर छेद दिखने लगे थे. इसलिए मस्तिष्क कह रहा था निकल चलो. अंततः एक दो दिन के पशोपेश के बाद हाँ कह दी.
जाना भी ऐसे देश था, जिसका कभी नाम भी न सुना था, ‘इरिट्रिया’. एक छोटा सा देश अफ्रीका में जो इथियोपिया से कट के अलग हुआ, दोनों देशों के बीच लम्बी लड़ाई के बाद. वो लड़ाई अभी भी फट पड़ती थी कभी कभी.

जाने से पहले घरेलु पत्नी ने कहा, ”मुझे बड़ी दिक्कत होती है. पैसे निकालने के लिए बैंक में जा के लाइन में लगो. फिर टोकन के बाद लंबा इन्तजार करो. मुझसे न होगा ये सब”.
तभी मुझे ध्यान आया, बैंक ऑफ़ अमरीका में 16% ब्याज के चक्कर में मैंने ऍफ़डी कराई थी. साथ में सेविंग्स अकाउंट फ्री. एटीएम कार्ड भी दिया था. सोचा ये कार्ड आजमाया जाय. क्या है, कैसा है. गए उसके एटीएम कक्ष में. फ़टाफ़ट एकदम कड़क नोट नए-नए निकल के आ गए. बस फिर क्या था, उसी खाते में चार महीने के घर खर्च का पैसा डाल दिया और कार्ड चलाने का तरीका भी बता दिया पत्नी को. सन 1998 में किसी और बैंक में एटीएम नहीं था.
यात्रा का टिकट आ गया. सीधी विमान सेवा तो थी नहीं इस छोटे से देश के लिए. दिल्ली से दुबई, दुबई में ८ घंटे की प्रतीक्षा, दुबई से काहिरा (मिश्र यानि इजिप्ट की राजधानी काहिरा), काहिरा में ८ घंटे प्रतीक्षा, काहिरा से अस्मारा (इरिट्रिया की राजधानी). दिल्ली से बैठे दुबई के लिए एमिरेट्स (दुबई की एयरलाइन) में. बड़ी अच्छी व्यवस्था. सुरीली सुन्दरियाँ मोहक मुकानों से सहायता को तत्पर. जबकि मेरी पहली वाली सउदिया (सऊदी एयरलाइन) की यात्रा में थीं लाल आँखों से अंगारे बरसाती और गुर्राती लम्बी दाढी वाली खूँखार आकृतियाँ. हर सीट के पीछे छोटा टीवी लगा हुआ, जिसे पीछे बैठने वाले देख सके. सुन्दर पकवानों का लुत्फ़ उठाते और टीवी में गोविंदा की हास्य फिल्म “राजा बाबू” देखते कब दुबई आ गया पता ही न चला.
दुबई में उतरे. हमारा पासपोर्ट उन्होंने ले लिया और एक कार्ड जैसा पास दे दिया. आठ घंटे बिताने के लिए एअरपोर्ट के बगल ही पांच सितारा होटल में रहने खाने की सुन्दर व्यवस्था भी की. वही कार्ड पास हमारा वीसा था दुबई शहर घूमने के लिए. बड़ा क्रेज होता था उन दिनों दुबई में शोपिंग का. हम बड़े खुश हुए एमिरेट्स से और उसे फाइव स्टार रेटिंग दे डाली.
यात्रा में आगे बढे और मिश्र की राजधानी काहिरा उतरे. एमिरेट्स की सेवा समाप्त हुई और अगली फ्लाइट इजिप्ट एयर की थी. लेकिन उस एयरपोर्ट का मंजर देख हम चकरा गए. बड़ा अफरातफरी का माहौल था. एअरपोर्ट से बाहर जाने वाले तो इमिग्रेशन की लाइन में लग बाहर निकल लिए. हम जैसे ट्रांजिट यात्रियों को अलग एक लाइन में हाँक दिया गया. उसी लाइन में धीरे धीरे आगे खिसकते रहे. एक स्थान पे उन्होंने हमारा टिकट व् पासपोर्ट लिया और अपने पास ही रख लिया. और लोगों की तरह हमें भी आगे हाँक दिया गया. हम एकदम भौंचक व किकर्तव्यविमूढ. विदेश में बिना पासपोर्ट तो गैरकानूनी अप्रवासी माने जायेंगे. लेकिन देखा जब सभी को करते हुए, तो हमने भी छोड़ दिया स्वयं को भाग्य पे.
लाइन आगे खिसकी. एक व्यक्ति लाइन के बगल खडा लोगों के कान में कुछ फुसफुसा रहा था. हम भी आगे पहुंचे तो बोला वो, “केवल २०० डॉलर में पूरा काहिरा घुमा दूँगा. वीसा और गाडी सब इसी में शामिल है”.
मैं तैयार हो गया. ये तो बहुत ही अच्छा ऑफर है. अगली फ्लाइट 8 घंटे बाद है. घूम घाम के वापस आ जाऊँगा.
लेकिन तभी भला हो लाइन में खड़े मेरे पीछे वाले का, जिसने मुझे सचेत किया, “भैया ये काहिरा है. बाहर ले जाकर कहीं छोड़ के भाग जाएगा. आप अन्दर भी नहीं आ पाएंगे”.
मै हिल गया ऐसा सोच के ही.
खैर लाइन आगे बढ़ती गयी. अंत में हमें एक बड़े हाल में नीचे ले जाया गया. बेसमेंट लग रहा था. न कोई खिड़की न रोशनदान. बहुत सारे लोग वहाँ पड़े थे. नाममात्र की चार-छ बेंच. बाकी सारे लोग नीचे जमीन पे ही लेटे हुए थे. दमघोंटू माहौल. किनारे एक छोटा सा बाथरूम. उसी के अन्दर टॉयलेट. फ्लाइट की जानकारी के लिए न कोई डिस्प्ले न लाउडस्पीकर की उद्घोषणा. हाल से बाहर जाने की मनाही थी. अगली फ्लाइट की जानकारी कैसे मिले, इसके लिए भी हमें उसी व्यक्ति पे निर्भर होना था जो हाल के प्रवेश द्वार पे बैठा था.
हम उसके पास गए और पूछा,” हमारी अगली फ्लाइट सही वक्त पे हैं न?”
“अभी आप की फ्लाइट 8 घंटे बाद है. अभी उसकी कोई जानकारी नहीं है”.
तीन घंटे बाद हमने फिर पूछा उससे,” हमें अगली फ्लाइट का बोर्डिंग पास तो दे दो”.
“वो फ्लाइट पूरी फुल है. उसमें जगह नहीं है”.
“अरे ये कैसे? हमने तो कन्फर्म टिकट लिया था”.
“आपने आगे की यात्रा का टिकट रिकंफर्म नहीं किया था. इसलिए सीट कैंसिल हो गयी”.
“अरे ये क्या नाटक है. मुझे जाने दो काउंटर पे. मैं उनसे बात करूँगा”.
“नहीं आपको जाने की इजाजत नहीं है”.
हम तो बड़े तनाव में आ गए. इस जेल में 24 घंटे और रहना नरक सामान था. कुछ भारतीय ग्रुप वहाँ बैठा था. सोचा उनसे कुछ मार्गदर्शन हो.
“हेलो भाई लोगों, आप सब भारतीय हैं? कहाँ जाना है?”
“हाँ हम सभी को दिल्ली जाना है. लीबिया से आ रहे हैं बाई रोड. यहाँ इसी हाल में 4 दिन से पड़े हैं. आगे का टिकट नहीं हो रहा कन्फर्म”.
“पर ये लोग हमें क्यों नहीं जाने दे रहे एयरलाइन काउन्टर पे?”
“ये काहिरा है. बहुत ही भ्रष्ट. जाने तो नहीं देंगे, लेकिन आप उस प्रवेश द्वार पे बैठे व्यक्ति से कुछ लेन-देन कर लें तो आपका काम हो सकता है. ऐसे तो आप बैठे रहेंगे हफ़्तों”.
मैं वापस पहुँचा उस व्यक्ति के पास और डरते हुए कहा,”भाई मै दिल्ली से आपके लिए कुछ लाया नहीं. ये लो, अपने बच्चों के लिए कुछ केक खरीद लेना”.
दस डॉलर देख के वो व्यक्ति मुँह बनाता हुआ बोला,”इतने में केक नहीं मिलता”.
“फिर कितने में मिलता है?”
“इतने ही और लगेंगे”
“ये लो भैया”, कहते हुए मैंने उसे 10 डालर और थमाए.
उसने रख लिए और बोला,” ठीक है आधे घंटे बाद आना मेरे पास. अभी जाकर वहाँ बैठो”.
इकत्तीस मिनट बाद मै फिर पहुंचा उसके पास,”भाई मेरा बोर्डिंग पास आ गया क्या?”
“भेजा हुआ है. इंतज़ार कीजिये”.
एक घन्टे बाद पासपोर्ट की गड्डी आई उसके पास. मैं तुरंत पहुँचा. कई और लोग भी थे. वो एक एक पासपोर्ट देख रहा था. कुछ सफल लोग अपना पासपोर्ट लेकर बाहर जा रहे थे. असफल लोग वापस हाल में. अंततः मेरा पासपोर्ट भी दिखा बोर्डिंग कार्ड के साथ. जितनी खुशी मुझे उस वक्त हुई, उतनी शायद प्रोजेक्ट पूर्ण करने के बाद भी न होगी. वापस आकर उन लीबिया वाले भारतीयों से विदा ली. वो सब मुझे जलनभरी निगाहों से देख रहे थे.
इजिप्ट एयर का विमान दिल्ली की ब्लू लाइन बस लग रहा था. बोर्डिंग पास में सीट नंबर नहीं. बैठने में ही काफी भगदड़ रही. कई फॅमिली वाले अलग थलग बैठने को मजबूर हुए. खाने में न जाने क्या दिया था. हमें डर लग रहा था कहीं बीफ न दे दिया हो. इसलिए बस सब्जी भाजी और ब्रेड खा ली, बाकी सब छोड़ दिया. इरिट्रिया की राजधानी अस्मारा में विमान उतरा. बहुत ही छोटा सा हवाई अड्डा. बाहर निकल के टैक्सी से होटल पहुँचा. वहाँ की लोकल करेंसी का नाम था “नक्फा”. उस समय एक नक्फा में करीब ६ भारू होते थे.
खाने की बड़ी विकट समस्या नजर आ रही थी रेस्टोरेंट में. कुछ न सूझे मीनू में क्या लिखा है. खैर वेटर को बुला के बोला,” लेंटिल सूप, ब्रेड, राईस”.
पहले वो लेंटिल सूप लाया. जो दाल ही थी. जब तक मैंने उसे ख़त्म न किया, वो अगली डिश न लाया. बड़े बेवकूफी भरे अंदाज में मैंने दाल के बाद सूखी ब्रेड चबाई, फिर चावल निगला. बड़ी समस्या थी. वहाँ लोग अंगरेजी भी नहीं समझते थे ठीक से.
अगले दिन मैं थोड़ा स्मार्ट हुआ. उसे पहले ही बोल दिया,”ब्रिंग एवरी थिंग टुगेदर (सब कुछ एक साथ लाओ)”. उसने टुगेदर का मतलब कुछ और ही समझा. चावल दाल ब्रेड सब कुछ एक ही कटोरे में मिला के ले आया. पता नहीं कौन सी खिचडी बन गयी थी.
रात में सोना भी मुश्किल हुआ. होटल के सामने एक चर्च था. वहाँ रात बारह-एक बजे तक जोर जोर से औरतों की चीख चिल्लाहट आती रही. पता लगा ये वहाँ रोज का टंटा है. रात में “पेशेवर औरतों” का काम शुरू होता था.
मैंने सोचा इस तरह तो मैं होटल में नहीं रह पाऊँगा. होटल से बाहर निकला. एक छोटे से रेस्तराँ के आगे फुटपाथ पे पडी कुर्सियों पे कुछ भारतीय नजर आये. मैं भी बैठ गया. बातचीत से पता लगा वहाँ बहुत सारे भारतीय अध्यापक कार्यरत हैं. उन्होंने प्रोफ़ेसर मिश्राजी का पता दिया, जो प्रयाग के रहने वाले थे और अवध विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे थे. बड़ी ख़ुशी हुई उनसे मिलकर उनके घर जो सेम्बेल में था. उन्ही लोगों ने मुझे एक प्रोपर्टी डीलर का नंबर दिया. उसने मुझे एक घर दिखाया फर्निश्ड, जो मैंने ले लिया तुरंत. अब खाना खुद बनाऊँगा तभी ज़िंदा रह पाउँगा. उसी दिन शिफ्ट कर लिया मैंने उस मकान में. रात का खाना बनाया ‘चिकन चावल’ और अच्छे से सोया संतुष्ट होकर.
अगले दिन सुबह उठा. ऊपर गाउन डाला. चाय बनाया और निकल गया बाहर लान में निरिक्षण करने. अच्छा घर था एक आदमी के लिए. दो बेडरूम, ड्राइंग डाइनिंग अलग. एकदम मेन एयरपोर्ट रोड से लगा हुआ. बाहर तीन तरफ लान जिसमें कुछ पौधे आरोपित थे. चाय समाप्त की और निरिक्षण पश्चात वापस दरवाजे के भीतर घुसना चाहा.
लेकिन ये क्या दरवाजा तो बंद हो गया. ये वो वाला आटोमेटिक दरवाजा था जो अपने आप लॉक हो जाता था, और अन्दर से ही खुलेगा या फिर चाभी से. मैं तो सन्न रह गया. ध्यान आया, डीलर ने चेतावनी दी थी इस दरवाजे की. लेकिन बेध्यानी में मैं बाहर निकल गया. अब करूँ तो क्या करूँ? एक दो बार धक्का मारा, शायद इंटरलोंक टूट जाए. लेकिन कुछ न हुआ. बड़ा मजबूत था दरवाजा. अनजान जगह विदेश की. भाषा का ज्ञान नहीं. किससे लेने जाऊँ सहायता. जेब खाली. एक भी फूटी कौड़ी नहीं. सर पकडे बैठा रहा काफी देर.
फिर कुछ सोच बाहर निकला. सड़क पे देखा एक बेकरी की दूकान. वहाँ जा के जायजा लिया. एक अफ्रीकन लड़की करीब बीस वर्ष की बैठी थी दूकान पे. दो-तीन ग्राहक खड़े थे. पास में ही एक लैंडलाइन टेलीफोन पडा था. दिमाग पे जोर डाला. डीलर का नंबर याद करने की कोशिश किया. होटल से कई बार उसे डायल किया था.
फिर उस लड़की की और मुखातिब हुआ अंगरेजी में,” मेरे घर का दरवाजा बंद हो गया है. बड़ी मुश्किल में हूँ. पैसे नहीं हैं. एक फोन करना है”.
उसके जवाब की प्रतीक्षा किये बिना ही मैं टूट पडा फोन पे. इसके पहले कि वो मना कर दे.
पहली बार में ही सही लग गया, “हाइ वोल्डे जोसेफ, अरे मैं बड़े मुश्किल में फंस गया”.
एक ही सांस में उसे सारी बात कह डाली. उसने कहा ठीक है आप इंतज़ार कीजिये. मैं मकान मालिक के पास जाता हूँ. पता नहीं डुप्लीकेट चाभी है भी या नहीं. मैं फिर दूकान से बाहर आ गया बिना उस लड़की की और देखे. यदि उसने पैसे माँग लिए तो क्या होगा. लेकिन उस लडकी ने भी पैसे नहीं माँगे. व्यस्तता वश या किसी और कारण, पता नहीं.
खैर करीब एक घंटे के बाद जोसेफ आ गया. बड़ी ख़ुशी हुई जब उसके हाथ में चाभी देखी. दरवाजा खोल के वापस चला गया वो. उसके बाद कभी भी मैंने उस आटोमेटिक दरवाजे का प्रयोग नहीं किया. पीछे किचेन के दरवाजे से बाहर निकलता था.
कुछ दिन बीते. एक दिन सुबह चाय पीने के बाद जब नहाने गया तो देखा कहीं पानी नहीं आ रहा था. मेरी आदत ऐसी कि बिना नहाए मैं ऑफिस जा ही नहीं सकता. उस दिन पहली बार मैं बिसलरी की एक बोतल से नहाया. बस ऊपर से डाल के गीला किया और तौलिये से पोंछ लिया. नहाने की फीलिंग आ गयी.
लेकिन ताजुब तो तब हुआ जब कई दिनों तक पानी न आया. पता चला कहीं पानी की नई पाइप डल रही है. इसलिए कुछ दिन नहीं आयेगा. लेकिन एक महीने हो गए पानी नहीं आया. पता चला पुरे मोहल्ले में नहीं आ रहा और कोई कुछ बोल भी नहीं रहा था. मैंने उनके स्वभाव की दाद दी. भारत में तो धरना प्रदर्शन सब हो जाता. खैर हम रोज एक जरीकेन भर के पानी लाते टेलीफोन एक्सचेंज से और उसी से काम चलता.
फिर एक दिन मिश्राजी पधारे,”कैसा चल रहा है? कोई सहायता चाहिए?”
“हाँ एक खाना बनाने वाला चाहिए”.
“चलो यहीं बगल में एक थी मेरी जान पहचान की. देख के आते हैं”.
भाग्य से वो अपने घर में मिल गयी. उसकी एक चौदह पंद्रह साल की बच्ची थी. उसी को लगाया काम पे. अब वो ठहरी अफ्रीकन. उसे भारतीय व्यंजन की कोई जानकारी तो थी नहीं. सो हमने उसे एक अत्यंत ही सरल तरीका बताया डेमो के साथ.
“सब्जी के लिए आलू काटो बड़ा बड़ा. फिर उसे तेल में फ्राई कर दो. बाहर निकालो. मसाला भूनो. उसमें आलू डाल दो. ऊपर से टमाटर काट के डाल के हल्का उबाल के ढक देना. बस”.
“ओके”.
“ऐसे ही सारी सब्जियाँ बनाना. आलू, बैगन, गोभी सब”.
“ओके”
एक दिन आ के देखा पालक के पत्ते भी उसने तेल में पापड की तरह फ्राई कर दिए थे बड़ा बड़ा. हम सर पकड़ के बैठ गए.
एक दिन मैं वहाँ की लोकल सिटी बस में चढ़ा. कोई सीट खाली न थी. मुश्किल से दस मिनट का रास्ता था मेरे घर का इसलिए मै भी निश्चिन्त था. तभी यकायक एक अठारह वर्ष का लड़का अपनी सीट से उठ खड़ा हुआ और अपनी सीट मुझे देने लगा. मै हैरान. भला ये मुझे कैसे जानता है. मैंने मना किया पर वो न माने. अपनी भाषा में कुछ बोले जा रहा था और अपनी सीट पे बिठा के ही माना. मै समझ गया, ये हमारे भारतीय शिक्षकों की पढाई का कमाल है. सभी भारतीय वहाँ शिक्षक ही थे. केवल मैं ही इंजिनियर था. उसने मुझे भी शिक्षक समझ लिया. नमन किया मैंने भारतीय शिक्षक वर्ग को जिनके प्रयत्न से भारतीय संस्कृति का शंख वहाँ अफ्रिका में भी ध्वनित हो रहा था. वरना अफ्रिका में तो लूट खसोट और किडनैपिंग का ही बोलबाला है. ये हमारे शिक्षकों का ही कमाल है, शैशवकाल से उच्च विद्यालय तक विद्यार्थियों में भारतीय संस्कार पिरोये. फलस्वरूप इथियोपिया और इरिट्रिया में सुरक्षा और शांति है. जबकि बाकी देशों में आप दिन में भी लूट लिए जाते हैं. नाइजीरिया के भरे बाजार में भारतीय राजदूत की पत्नी कार में बैठी थी. सीडी नंबर प्लेट. भारत का झंडा कार के बोनट पे लगा हुआ. फिर भी एक अफ्रीकन आ के उनका गोल्ड चेन खींच रहा था. वो चिल्लाए जा रही थी. कोई सुनने वाला नहीं.
इसी बीच इरिट्रिया और इथियोपिया में पुनः युद्ध प्रारम्भ हो गया. पुराना सीमा विवाद था. टीवी के प्रोग्राम तो पहले ही जादा समझ न आते थे, सिवाय कुछ अंग्रेजी सेरिअल्स को छोड़. अब तो एकदम देशभक्ति के ही गाने आने लगे स्थानीय भाषा में....आजाबे ना...आजाबे ना....आजाबे ना.
एक दिन टेलीफोन एक्सचेंज के पास हम टहलते आ रहे थे हल्का लंच खाने के बाद. एक भारतीय सज्जन भागते हुए आये,”आप लोग कब वापस जा रहे हैं? जर्मन लोग आज चले गए. अमेरिकन कल जायेंगे”.
“अच्छा हालत जादा खराब हो गयी क्या?”
“हाँ, इथियोपिया ने कई भारतीय फाइटर पायलट हायर किये हैं. उनका निशाना अचूक है. इरीट्रिया के पास तो केवल गिन के चार फाइटर प्लेन हैं. यहाँ खतरा बहुत है”.
तब तक हमारे मित्र कृशन भी दिल्ली से हमारे पास आ चुके थे प्रोजेक्ट के दुसरे फेज में. हम दोनों शाम को घर पे चाय पीते हुए चर्चा कर रहे थे, क्या किया जाय. तभी एक जोरदार धमाका हुआ. घर की दीवारें हिल गईं. खिड़की के कांच टूट गए. हम लोग गिरते पड़ते बाहर की तरफ भागे. मगर बाहर कहीं कुछ नजर न आया. बहुत डर गए थे हम और अन्दर तक हिले हुए.
हमने सोचा क्या किया जाय. बिना प्रोजेक्ट पूर्ण किये जाना अपनी आन-बान के खिलाफ था. रहते हैं तो जान जोखिम में. फिर फैसला किया, सारी परिस्थिति लिख के भेज देते हैं दिल्ली. उन्ही पे डाल देते हैं फैसला.
लेकिन दिल्ली वाले हमसे भी जादा चालाक. दो लाइन का जवाब आया, ”जो तुम्हें ठीक लगे करो. परिस्थिति के हिसाब से स्वयं निर्णय लो”.
हम नहीं गए. ऐसे ही युद्ध चलता रहा. और हम काम करते रहे. बाद में पता चला वो बम फटा था, जिसमें इरीट्रिया का एक युद्धक विमान तबाह हो गया. कुछ दिनों पश्चात उनके चारों विमान नष्ट कर दिए गए.
शाम को पत्नी से बात किया तो अलग ही समस्या आन पडी. एटीएम कार्ड खराब हो गया था. ये अकाउंट केवल मेरे नाम था. पत्नी कुछ कर भी नहीं सकती थी. इसी तरह के कई व्यवधान आते हैं परिवार में जब हम दूर होते हैं. खैर हमारे दिल्ले के बॉस वर्माजी ने अपने अकाउंट से पैसा भिजवाया मेरे घर.
एक दिन सेटेलाइट स्टेशन पहाडी के ऊपर हम संचार प्रणाली लगाने में व्यस्त थे. ये स्टेशन आर्मी एरिया में था. साथ में इरिट्रिया टेलिकॉम के कई कर्मचारी हाथ बंटा रहे थे. तभी एक व्यक्ति आया कमरे में. कुछ निरिक्षण किया. उन कर्मचारियों से वार्ता की. सभी अपने काम में ही लगे रहे. कोई खडा भी न हुआ. हमने सोचा कोई होगा इन्हीं के विभाग का. लेकिन जब वो चला गया तो मैंने ऐसे ही उत्कंठा वश पूछा, “कौन था?”
तेस्फालेम ने जवाब दिया,” ये हमारा रक्षा मंत्री था”.
“अरे पहले क्यों नहीं बताया? हम भारतीय कितने अशिष्ट साबित हुए. हम उठ के उनका अभिवादन करते”, मैंने खड़े हो के प्रतिवाद किया.
“नहीं ऐसा क्यों करना? ये लोग तो कहीं भी मिल जाते हैं. खाना भी आम लोगों की ही तरह खाते हैं, रेस्टोरेंट में या फिर फुटपाथ पे चलते फिरते”.
मैंने नमन किया ऐसी व्यवस्था को. तुलना किया इनकी हमारे भारतीय मंत्रियों से जिनके साथ पूरा लाव-लश्कर चलता है.
गजरथ एक्सचेंज में काम करते वक्त एरिट्रिया टेलीकाम के एक सहयोगी ने तंज कसा, ”भारतीय औरतें केवल फिल्म और टीवी में ही सुन्दर लगती हैं. ऐसे सड़क पे देखो तो बेकार”.
मैंने सोचा क्या जवाब दूँ. फिर नहले पे दहला मार ही दिया,” अफ्रीकन औरतें तो टीवी पे भी नहीं सुन्दर लगती”.
ऐसे ही हंसते बोलते प्रोजेक्ट पूरा हो गया. बेचारे इरीट्रीयन बड़े अच्छे थे. इस प्रोजेक्ट में उन्होंने हमें पार्टी दी प्रोजेक्ट पूर्ण होने पे. बढ़िया होटल में कॉकटेल डिनर. जबकि वो क्लाइंट थे, इसलिए पार्टी हमें देनी चाहिए थी. उन्होंने प्रशस्ति पत्र भी दिया हमारे व्यक्तिगत नाम से. और हम किसी छोटी सी बात पर खुंदक में थे कि रिटर्न पार्टी नहीं दी. ये दुःख हमें जीवन में बहुत दिनों तक सालता रहा.
खैर ये मेरे जीवन का सबसे छोटा प्रोजेक्ट था. केवल चार महीने का. लेकिन इसमें बहुत कुछ सीखा जो जीवन पर्यंत काम आया. ठीक चार महीने बाद किराए के मकान की चाभी वापस कर दी. वापसी का टिकट हमने वाया काहिरा के बजाय साना (यमन) करा लिया था.
आते समय नया खरीदा कोरियन कम्बल दान कर दिया उस छोटी काम वाली बच्ची को कृशन ने. हम एअरपोर्ट के लिए घर से निकल टैक्सी में बैठ ही रहे थे कि देखा वो बच्ची अपनी माँ के साथ भागी चली आ रही थी. उसकी माँ कम्बल पा के बहुत खुश थी. उसके रोम रोम से आशीर्वाद फूट रहा था. अपनी भाषा में जाने क्या बोले जा रही थी दोनों हाथ ऊपर उठाये. समझ में कुछ न आते हुए भी सब समझ रहे थे हम. बॉडी लैंग्वेज और प्रेम की भाषा के लिए शब्द चाहिए ही नहीं.
(दुर्भाग्यवश मेरे कंप्यूटर में इरिट्रिया की कोई फोटो नहीं है. सभी मेरे नॉएडा निवास के एलबम में पड़े हैं. इसलिए क्लाइंट का प्रशस्ति पत्र ही लगा दे रहा हूँ).

Jul 13, 2020

मेरा अफगानिस्तान प्रवास: Yr-2005


यूं तो अपने जीवन काल में हमने अनेक देशों में कार्य किया हैं, लेकिन आज विचार आया क्यों न ऐसे देश के बारे में लिखा जाय जो थोडा भिन्न हो. प्रायः लोग पर्यटन स्थलों या सुन्दर मनोरम दृश्यों का वर्णन करते हैं. मै किसी रोमांचक खतरनाक कार्यस्थल बारे में लिखना चाहूँगा. और जब खतरनाक स्थलों की बात चले तो अफगानिस्तान शायद सबसे ऊपर आयेगा.
वही भूमि जिसके बारे में कहा जाता है ये कभी गुलाम न हुई. जिस किसी ने इसे गुलाम बनाने का प्रयत्न किया, वो स्वयं मिट गया. सिवाय एक शख्स के, महाराजा रणजीत सिंह. इनके सेनापति हरी सिंह नलवा का एसा जलवा था, की उनके मरने के बाद भी लोगबाग उनके शव के पास न गए बहुत दिनों तक डर के मारे. काबुल तक पंजाब का राज्य फ़ैल चुका था.
जी हाँ ये वही अफगानिस्तान है जहाँ के गांधार नरेश शकुनि व उनकी भगिनी गान्धारी ने महाभारत काल में इतिहास रच दिया था. जहाँ कभी बौद्ध भिच्छुओं ने बामियान की कंदराओं में अप्रतिम विशालकाय बुद्ध प्रतिमाओं का गढन कर डाला था. और वही सरजमीं जहां पृथ्वीराज चौहान व उनके वीर दरबारी कवि चन्द्रवरदाई ने मुहम्मद गोरी के शीश को शब्दभेदी बाण से विच्छिन्न कर दिया था.
वही देश जो सोवियत संघ जैसे विशाल राष्ट्र के लिए उसके विघटन का निमित्त बना. अमरीका जैसे विश्व शक्ति के गढ़ में विमान सहित आक्रमण करवा के भूमिगत होने वाले ओसामा की पनाहस्थली. विश्व की दोनों महाशक्तियों को अभूतपूर्व हानि पहुंचाने वाले दुर्दांत गिरोहों की शरणस्थली अफगानिस्तान से ज्यादा खतरनाक भला और कौन सी जगह हो सकती है.
इसलिए जब हमें वहाँ 3 सप्ताह के लिए आप्टिकल फाइबर व अन्य दूरसंचार नेटवर्क सर्वेक्षण के लिए प्रस्तावित किया गया, तो डर व रोमांच से बदन सिहर गया. अभी अभी माओवादियों के गढ़ नेपाल से किसी तरह प्रोजेक्ट पूर्ण करके सही सलामत वापस दिल्ली आया ही था. मैनेजमेंट ने कहा, तुम्हें आतंकी इलाकों में काम करने का अच्छा अनुभव हो गया है. तुमसे बेहतर कोई नहीं है. न जाने का कोई मार्ग न सूझा. नौकरी इसी का नाम है. मान न मान करनी ही पड़े है. मन में बोला, चढ़ जा बेटा सूली पे भली करेंगे राम.
बहरहाल विमान में बैठ दिल्ली से उड़ा और काबुल जा पहुंचा. संचार नेटवर्क सर्वेक्षण की प्लानिंग करते वक्त हमें कहा गया, दो बंदूकधारी अंगरक्षकों को साथ ले जाने के लिए. हमने मना कर दिया. भला एके सैतालिस से लैस तालिबानियों के लिए इन दो बंदूकधारियों को निपटाना तो मच्छर मारने के सामान होता. साथ ले जाने में अलग से हाई लाईट हो जाते और आतंकियों की नजर में आ जाते. हाँ उनका ये प्रस्ताव हमने स्वीकार कर लिया, एक स्थानीय अनुवादक को साथ ले जाने के लिए.
अगले दिन सुबह हमारे साथ हमारा कनिष्ठ सहयोगी, स्थानीय अनुवादक, पाकिस्तानी वाहन चालक सब लोग लैंड क्रूजर में बैठ काबुल से बाहर निकल पड़े. पूरे रास्ते कोई ऐसा मकान न दिखा, कोई ऐसी दीवाल न दृष्टिगोचर हुई, जिसमें गोलियों के सुराख न हों. अनगिनत सुराखें. कुछ छोटी, कुछ बड़ी. इस देश ने सदियों से खून खराबे ही देखे. चाहे वो पाषाण काल हो, लौह काल हो, मुगलों का बारूद काल, रूसियों के साथ लड़ते तालिबानियों का काल हो या फिर अल कायदा का काल. सौ में शायद ही एक इमारत होगी जो क्षतिग्रस्त न हो कहीं न कहीं. इसलिए मकानों का किराया बहुत महँगा था.
थोड़ा आगे बढे तो एक टैंक दिखा सड़क के बगल में खडा, आडा टेढा. मैं चिल्लाया, “रुको रुको, आगे खतरा है”.
वाहन चालाक,”क्या हुआ?”
“वो देखो, आगे कुछ लोग टैंक लेके खड़े हैं”.
“अरे साहब वो कुछ खतरा नहीं है”.
“क्यों?”
“वो सब टैंक यहाँ कई वर्षों से पड़े हैं बेकार. ये सब टैंक नष्ट कर दिए गए थे तालिबानियों द्वारा जिन्हें रूसी सैनिक यहीं सड़क पे छोड़ के भाग गए अपने देश”.
“अरे इनमें तो कई टन का लोहा पडा है, कोई कबाड़ी ले नहीं जाता?”
“नहीं साहब, इसे ले जाने की लागत ज्यादा है, बिकेगा नहीं. यहाँ कोई उद्योग कारखाना नहीं है जहाँ इसे गलाके उपयोग किया जा सके”.
रास्ते भर ऐसे न जाने कितने टैंक जहाँ तहाँ पड़े दिखे नष्ट अवस्था में. कुछ और आगे बढे तो लघुशंका की अनुभूति हुई. एक निर्जन मरुस्थल में सड़क किनारे वाहन रुका. मै उतर के तेजी से वाहन से दूर सड़क से नीचे जाने को भागा.
पीछे से अनुवादक चिल्लाया,”अरे साहब यहीं निपट लो दूर न जाओ”.
मैं पलटा, ”क्या बकवास है. कुछ लाज शर्म नहीं है क्या तुम अफगानियों में?”
“अरे साहब जान चली जायेगी तो लाज शर्म क्या करेगा?”
“यहाँ सब सन्नाटा है. कौन लेगा जान?”
“यहाँ सड़क से कुछ दूर जगह जगह बारूदी सुरंगें बिछी हैं. जिन्हें रूसी सैनिकों ने बिछाया था, तालिबानियों से बचने के लिए. जब इनके काफिले गुजरें तो वो आक्रमण न कर सकें राकेट लांचर से. रूसी तो चले गए यहाँ से. लेकिन अब वो सुरंगें कहाँ कहाँ बिछी हैं, ये किसी को नहीं पता. अभी भी यदा कदा बकरी-भेड़ें इन सुरंगों के फटने से मरती रहती हैं. आदमी तो सड़क से नीचे उस तरफ जाते ही नहीं”.
मैं सिहर गया सुनकर. अगर ये स्थानीय लोग साथ न होते तो मेरा क्या होता.
दोपहर खाने का वक्त हो चला था. सड़क किनारे एक जीर्ण शीर्ण अवस्था में ढाबे जैसी जगह रुके हम. नीचे जमीन पे दरी बिछी थी उसी पे बैठे थे सब लोग. हम भी नीचे बैठ गए पालथी मार के. शाकाहारी तो कुछ मिलता न था. अतः मटन का आर्डर दिया गया. एक प्लेट में आया शोरबा के साथ. चावल तो मिलता न था. सो रोटी माँगी गयी.
दो फिट की लम्बी रोटी दूर से फेंकी गयी जो दरी पे आकर गिरी. उसी दरी पे लोगबाग चल रहे थी पैर रखके. और उसी दरी पे रोटी नीचे रख के खा रहे थे सब. मै जाकर दूसरी रोटी लाने को उद्यत हुआ.
पाकिस्तानी ड्राइवर ने रोक दिया,”साहब चुपचाप खा लो. अलग विदेशी जैसा न दिखो. यहाँ का यही चलन है. अलग दिखोगे तो जान जोखिम में आ जायेगी. ज्यादा कहीं रुकना नहीं है. जितना हो सके गाडी में ही चलते जाना है. ज़रा ज़रा सी बात पे गोलियाँ चल जाती हैं”.
रोटी थी तो अच्छी लेकिन ऐसे जमीन पे रख के खाया नहीं जा रहा था. कुछ लोग जाँघ पे रख के खा रहे थे. वहाँ यदि खाना बच जाय किसी ग्राहक का, तो जूठा खाना भी फेंकते नहीं थे. उसे बाकी खाने में डाल देते थे. और फिर उसे ही आने वाले नए ग्राहक को परोस देते थे. मन खिन्न हुआ, पर क्या करें. खैर किसी तरह आगे बढे. शाम चार बजे तक कांधार पहुँच गए. वही शहर जहाँ की थी हमारी गान्धारी. ये स्थान पाकिस्तान सीमा से मात्र २०-२५ किमी दूर है. टेलीफोन एक्सचेंज पहुंचे.
वहाँ उतरते ही एक कर्मचारी ने पूछा, “ इन्डियन हो या पाकिस्तानी?”
“इंडियन”
बहुत खुश हुआ वो.”वल्लाह इंडियन, इंडिया में कहाँ से?”
“दिल्ली से”
“सोनू निगम आपके घर से कितना दूर रहता है?”
“वो मुंबई में है. हजार किमी दूर”.
“मुझे वो बहुत पसंद है”.
“यहाँ से पाकिस्तान बार्डर कितना दूर है?”, मैंने बात बदली.
“बीस किमी. मगर शाम के चार बज गए हैं. मत जाइए वहाँ”.
“क्यों?”
“बहुत बेकार एरिया है. आपको लूट लेंगे. गाडी वाडी सब छीन लेंगे”.
हमने इच्छा प्रकट की वो हवाई अड्डा देखने की जहाँ भारतीय वायुयान हाइजैक करके लाया गया था काठमान्डू से कांधार.
“हाँ, वहाँ जा सकते हैं. यहाँ से उसी रोड पे है. चार किमी दूर”.
हम पहुंचे उस हवाई अड्डे पे. सड़क से ही देखा उसे. जीर्ण शीर्ण अवस्था में बस एक टूटी फूटी हवाई पट्टी. मुझे याद दिला गयी अपने प्रतापगढ़ के पिरथीगंज गाँव की हवाई पट्टी जो अंग्रेजों ने द्वितीय विश्व युद्ध काल में बनाई थी. मगर कभी प्रयोग में न आई. उसपे धान सटका जाता है अब.
वहीं से वापस हो लिए हम और एक होटल में रुके. होटल क्या था पूरा किला. उपर हर दीवाल पे हथियारबंद जवान तैनात थे. रात्रि भोजन में रोटी लाने में ज्यादा देर हुई तो इंटरकाम पे हमने डांट लगाई.
वो कमरे में आ गया और बोला,”आप लोग कैसे गुस्सा कर सकते हैं? आप लोग तो शरीफ हिन्दुस्तानी हैं. गुस्सा तो केवल हम खान लोग ही कर सकते हैं”.
ये नई परिभाषा दिलचस्प लगी.
अगले दिन यात्रा जारी हुई. कांधार से हेरात की तरफ. कुछ दो घंटे चलने के बाद पिच रोड समाप्त हो गयी. रह गए बस बालू के ट्रैक. समानांतर आड़े तिरछे बहुत सारे ट्रैक. हम कहाँ जा रहे हैं, ये कुछ समझ नहीं आ रहा था. फिर एकाएक हरा भरा खेत नजर आया. रुके वहाँ. देखा गौर से और पूछा तो पता चला खरबूजे का खेत है. विशवास न हुआ जब देखा की खरबूजे की साइज तरबूज जितनी है. सोचा शायद बहुत सारा रसायन / उर्वरक डाल के बड़ा कर दिया होगा, स्वाद नहीं होगा. लेकिन खाने के बाद पाया अत्यंत रसभरा और स्वादिष्ट. बताया गया की वहाँ के खरबूजे ऐसे ही होते हैं, बड़े एवं जूसी. पहली बार अफगानिस्तान में कुछ अच्छी वस्तु नजर आई. खेत वाले से पूछा गया तो पता चला आगे के ट्रैक से हेरात पहुँचना संभव नहीं है, और खतरनाक भी. मरुभूमि में गुम हो जाने का भी खतरा है. सो वहीं से वापस हो लिए.
वापस काबुल आके फिर जलालाबाद की तरफ प्रस्थान किया गया. पाकिस्तान बार्डर के निकट. वहाँ एक गाँव दिखा. हमारे पाकिस्तानी ड्राइवर के कुछ मित्र मिल गए. वे हमें अपने साथ ले गए एक पहाडी पे. वहाँ देखा कुछ लोग राकेट लान्चर लेके घूम रहे थे. डर लगा. उसने कहा मत डरो अपने ही आदमी हैं.
फिर हमने कौतूहल वश पूछा,”ये लान्चर है. इसे कैसे चलाते हैं?”
“आइये आपको दिखाते हैं”.
कहके वो जमीन पे बैठ गया और पोजीशन ले ली. और फिर देखते देखते फायर कर दिया. दूर एक गाँव में गोला गिरा और आग व् धुँवा उठा.
हम चिल्लाए,”अरे ये क्या कर दिया? वहाँ तो बस्ती थी, लोग रहते होंगे?”
“तो क्या हुआ? ये तो हमारा रोज का काम है. कुछ उधर से मारते हैं. कुछ हम इधर से फेंकते हैं”.
उनकी ये जिन्दगी देख हमें जीवन का एक विचित्र अनुभव हुआ. दुनिया में कैसी कैसी जीवन शैली है लोगों की.
खैर हमने विदा ली. वापसी में शाम का धुंधलका छाने लगा. पहाड़ियों के बीच हम चले जा रहे थी. अचानक एक अमरीकन कैम्प का चेक पोस्ट आया. कुछ आपाधापी मची थी. हमारी गाडी रोकी गयी. अमरीकन सैनिकों में से एक ने अंग्रेजी में पूछा,”कौन हो तुम लोग? और कहाँ से आ रहे हो?”
बाकी लोगों को तो अंगरेजी आती नहीं थी. इसलिए मैंने जवाब दिया,”हम भारतीय हैं. यहाँ आये हैं संचार नेटवर्क का सर्वेक्षण करने”.
“इंडियन? ओह वेरी गुड. ग्लैड तो मीट यू. वेरी बैड नेटवर्क हियर. अपना पासपोर्ट दिखाओ”.
हमारा पासपोर्ट देख के संतुष्ट हुआ. फिर हमारे सहयोगी का देखा. फिर हमारे अनुवादक का लोकल आई-डी देखा, कुछ नाराज होके भुनभुनाया. लेकिन पाकिस्तानी ड्राइवर को देख के तो एकदम भड़क गया.
उसे उतार लिया, और लगा चिल्लाने, गाली देने. पीटने भी लगा. हम दहशत में आ गए. क्या किया जाय.
फिर उसने एक को आर्डर दिया,”इसे ले जाके गोली मार दो”.
अब हमारी इन्द्रियाँ एकदम सुन्न हो गईं. वो ड्राइवर तो लगा कांपने.
फिर मैंने आगे बढ़ के उस अमरीकन सैनिक के कमांडर को खोजा. मिल के विस्तार से बातचीत की. उसने बताया की कुछ पाकिस्तानियों ने उनके काफिले पे आक्रमण करके कई सैनिकों को मार दिया था, इसलिए सारे सैनिक बहुत गुस्से में थे. खैर किसी तरह मिन्नतें करके, समझा बुझा के उस ड्राइवर को उन्होंने हमारी गारटी पे ज़िंदा जाने दिया, काफी कुटाई करने के बाद.
उसके बाद से तो जैसे वो ड्राईवर मेरा गुलाम हो गया. वापस काबुल होते हुए मजारे शरीफ पहुंचे लम्बी यात्रा करके. पूरा दिन लग गया. बीच में काफी ऊँची पहाड़ियाँ भी मिली. ये इलाका एकदम उत्तर में है और रूस से अलग हुए देश उजबेकिस्तान की सीमा से लगी हुई. रेलवे ट्रैक दिखा जो दुसरे देश के अन्दर जा रहा था. अफगानिस्तान में अन्यत्र कहीं ट्रैक नहीं है.
मजारे शरीफ से आगे हेरात की तरफ बढे. रास्ते में अमेरिकन आर्मी का काफिला जा रहा था. हमें बताया गया कि इनके आगे ओवरटेक करके निकलना मना है. यदि जबरदस्ती की तो गोली मार देंगे. बड़े खिन्न मन से उनके पीछे चलते रहे धीरे धीरे कच्छप गति से. हेरात शहर इरान से लगा हुआ है और काफी हरा भरा भी. खरबूजे की खेती दिखी.
वापसी में वहाँ से हम तीन चीजें लाये. रोटी, खरबूजा और शिलाजीत. रोटी बहुत ही सॉफ्ट और बड़ी होती है. खरबूजा बड़ा तरबूज जितना और जूसी भी. शिलाजीत का प्रयोग जादा नहीं किया. प्रयोग विधि की जानकारी नहीं थी.

Feb 21, 2020

Choosing a Career


All those who watch Bollywood Hindi films must have seen Amir Khan’s blockbuster ‘3-idiots’. There are three college friends studying engineering. Two of them had taken admission under parental pressure whereas in reality they had no interest in the subject. Film ends with the message that one should choose only that field of study which interests him. One of the friends had interest in photography which he finally settled for after failing in engineering. The supporters of above philosophy further say, “If we ask a monkey to swim and a fish to climb the tree, both will fail. One should attempt only what he is designed for”.

Is that really so? Do you all agree with this? When a child is born with raw mind, hardly does he have any interest in study. If he is left in the jungle with animals, he would grow into a Tarzan. All the children want to play and fun around. Elders need to drag them to study and other relevant fields, either by force or by other tricks. So this is the first level where we all may agree that interest is not the ultimate parameter for a kid to march on.


Some children like to sing or dance or play soccer or write stories or write poems or act in films and so on. Should they be left with these choices of their own and not be forced by the parents to go for engg or medical or finance etc? Before jumping to Yes or No, let’s take note of few other factors. Bollywood is a big industry producing one of the world’s largest pools of films. It has the room for how many singers? May be half a dozen. And what is their expected career lifetime? At the most one decade, or maximum two. Similarly for the soccer, maximum of eleven players can be taken in the national team. What is the period for them to remain included in the team? Again at the most one or two decades. Majority of them are thrown out of the team much before. Now if we take the case of India having a population of 1.3 billion, how difficult it is for a singer or sportsman to get into that elite club of dozen or half a dozen? Suppose 1% population (1.3 million) is trying to become singers, what will happen to 1.3 million minus 6? Same case applies to sports and other fields. None of my school time friends who were very popular sportsmen could shine much in life. They are currently owning small shops or doing low level jobs.

One has to check his level of excellence before taking plunge in such highly competitive fields. Lot many other factors do play critical role. A good player sitting at the fence may not get the chance to enter the field. That may not mean he is not a good player. Smile of lady luck is equally important. Bollywood star of the millennium Amitabh Bachchan was rejected in voice test by All India Radio. Later on he ruled the cine world for half of a century and still ruling. His rich and commanding voice played a major role in this unparalleled success.

A person has to mould himself and his interest according to the demand. Suppose you have interest in civil engineering but there is not much demand. The capacity of industry is to absorb 1k persons but 5k students are graduating, where will the remaining 4k go? On the contrary an IT-industry with acute scarcity of workers looking out desperately to onboard freshers, may force a student to change his options in favour of IT course. Now the choice is yours. You wish to stick to your field of interest but sit idle doing nothing later, or adapt yourself according to the market demand.

We all remember the famous multinational company ‘Kodak’. At one time they were ruling the world. But with the arrival of digital cameras and built-in camera in mobiles, his gigantic empire collapsed. Kodak remained stuck to their field of interest but market demand for camera rolls depleted. Same thing applies to a person. He has to make himself sellable. He needs to change himself, train himself and educate himself in order to make him fit what a buyer is looking for.

Easier said than done. It seems but not really so easy to select a field which can guarantee a successful career for the lifetime. At higher school level there are two different streams, Mathematics and Biology. A student aspiring for engineering was studying maths whereas biology student was going for medical. There was need to develop biological/medical instruments and gadgets for which the knowledge of both the fields was essential. Hence few colleges introduced a new branch of engineering ‘Bio-technology’. Since there was shortage of experts in this field, the students graduating as bio-technologists got absorbed immediately. Then there was spurt and mad rush in opening this branch by every engg college. Needless to say, it soon far exceeded the supply over demand.

Let me narrate another true lifetime event. Over two and a half decades back, aviation industry in India was opened to private players. Lot many new operators got licenses like; Air Sahara, Damania, Jet, Spicejet, Deccan, East-West, Modiluft, Kingfisher etc. They soon wanted to begin operations. But the biggest hurdle in the business was to acquire readily trained manpower. It was not much difficult to hire and train the ground staff and cabin crew. But the most difficult job was to get pilots with required minimum flying experience set by the regulator. There was big shortage and poaching among airlines started at exorbitant salaries. This shortage of pilots continued for pretty long time. One of my senior colleagues asked his already employed son to leave the job and join pilot training course. It was a course of few years followed by minimum required hours of flying experience. All this took some time to complete. In the meanwhile, the aviation industry saw lots of ups and downs. These private companies resorted to all kinds of marketing gimmicks to lure the customers, by cutting airfare and increase in facilities onboard. Soon many airlines became sick and either closed their shops or got sold out and merged with other operators. Hence by the time my colleague’s son got formal license of a commercial pilot, the market demand vanished. One needs to have a foresight before embarking on a new field in a hurry.

Professional writers, journalists, columnists, poets, story tellers etc are finding it hard to survive after the onset of TV-media and social media. Readers themselves have become writers on facebook and whatsapp whereas the old professional writers have lost their platforms. Number of people reading newspapers and magazines has reduced significantly. Many media houses producing magazines and journals, which could not diversify into TV or other alternate media mode, have died.

Telecom industry, once thriving and flourishing, is on the verge of getting killed. So many companies ruling the world like Marconi, Murphy, Fujitsu, Alcatel, Nokia, Ericsson, Nortel, NEC, AT&T etc are nowhere or hardly heard of.

To summarize: In this highly volatile and fragile business world where gigantic rulers are vanishing overnight, if someone stubbornly wishes to stick only to his field of interest, then it is nothing but highly risky. One has to diversify, modify, edit and mould himself according to the demand of changing world; and in that process if he is able to preserve his area of interest, it may act as a booster dose. Life is a process of continuous learning and updating for a sustained career growth.

Feb 4, 2020

जीवन चक्र


नगर के सरस्वती शिशु मंदिर की कक्षा तृतीय में सारे बच्चे विह्वल हो के गीत गा रहे थे,

“कल की छुट्टी परसों आना,
चना भुनाकर लेते आना,
पंडित जी को देते आना”.

छुट्टी मात्र कल की नहीं थी अपितु ग्रीष्मकालीन अवकाश था दो मॉस का. अभी-अभी विद्यालय का चपरासी कक्षा में नोटिस लेकर आया था जिसे अध्यापक ने पढ़कर सुनाया. अतः अध्यापक के जाने के पश्चात समस्त विद्यार्थियों का समवेत स्वर में उपर्युक्त हर्षोल्लासपूर्ण गीत गान प्रारम्भ हुआ.

यूँ तो सभी बच्चे हर्षित थे, लेकिन सबसे ज्यादा उत्साहित था एक विद्यार्थी ‘धर्मू’. इसे ग्रीष्मावकाश में अपने गाँव जाकर रहने से जो अतीव प्रसन्नता प्राप्त होती थी, वैसा किसी भोगी को इंद्रलोक में भी न मिले. यह प्रसन्नता अकारण नहीं थी. गाँव में उसकी माँ थी जो खेत खलिहान संभालती थी. वर्ष भर माँ से विलग रहने के बाद मिलने का बालसुलभ मोह. खूब सारे बालसखा थे गाँव के. चाचा-ताऊ के बच्चे जो दूर नगर में अध्ययनरत थे, वो भी गाँव आ जाया करते थे इस अवकाश में. और यदि किसी का विवाह भी आन पड़ा इस बीच, फिर तो नाते रिश्तेदार भी आ के जम जाते महीने भर. उन दिनों परिवार बड़े होते थे, अतः प्रतिवर्ष किसी न किसी का शादी-विवाह पड़ ही जाता था. खूब सारे लोग और खूब धमा चौकड़ी हंसी-ठट्ठा. घर के बाहर बड़ा सा खुला दुआर था और अन्दर दो आँगन, एक छोटा आँगन व एक बड़ा. यह दुआर वैसे तो खलिहान रखने, मड़ाई करने, गन्ने का रस पेरने, इत्यादि के काम आता था. लेकिन ग्रीष्म ऋतु में खलिहान के कार्य समाप्त हो जाते थे. तब यह बन जाता था बच्चों का क्रीडा मैदान. छोटे आँगन में वेदिका थी जिसके ऊपर विवाह मण्डप लगता था और बड़े आँगन में रात्रिकाल के वक्त औरतों व बच्चों के लिए चारपाइयाँ बिछ जातीं. उसी बड़े आँगन में एक कुआँ भी था जो नहाने धोने के काम आता.

दुआर वाले मैदान के एक ओर विशाल नीम का वृक्ष था जिसके नीचे चबूतरा बना था. चबूतरे के तीन ओर किनारे पर गाय भैंस बैल बांधे जाते थे. ऊपर हौज बने थे उन्हें भूसा-खाना परोसने के लिए. चबूतरे के ऊपर चारपाइयाँ पडी होती थीं. ग्रीष्म काल की पहली फुहार में जब मदमस्त पुरबिया बयार चलती और घर के अन्दर उमस होती तो इस नीम की छाया का सुख पाँच-सितारा होटल से कहीं बेहतर हो जाता था. यहाँ चौपाल लगती थी गाँव की. ताश के फड बिछ जाते. दहला पकड़, बादशाह पकड़, कोट पीस, ट्वेंटी नाइन जैसे ताश के खेल की बाजियाँ चलती रहतीं पूरी दोपहरी. कबड्डी की बदी-बदा होती चबूतरे के नीचे चौथी तरफ जिधर पशु नहीं बांधे जाते थे. कोड़ा जमाल होता था, ”कोड़ा जमाल खाए, पीछे देखे मार खाए”. और यदि नीम से जी भर जाए, तो उसी के बगल में एक बरगद का उतना ही विशाल वृक्ष था जिसकी शाखाएं व जटाएं नीचे जमीन तक आती थीं. कहते हैं इस नीम व बरगद की आयु गाँव में किसी को ज्ञात न थीं. कोई बोलता दो सौ वर्ष कोई तीन सौ. बच्चे उन बरगद की जटाओं पे झूला झूलते थे. शाखाओं पे चढ़ के चिल्होर खेलते थे. अब चूँकि ग्रीष्म ऋतू में धूप अत्यंत तीव्र होती थी, तो पेड़ों के नीचे ही रहा जा सकता था या खेला जा सकता था. हाँ संध्याकाळ में बड़े मैदान वाले खेल प्रारम्भ हो जाते, जैसे क्रिकेट, वालीबाल, फ़ुटबाल, गुल्ली-डंडा, झाबर इत्यादि.    

नीम व बरगद से भी जी भर जाय तो बच्चों की टोली चल देती थी आम के बाग़ में. खोज शुरू होती थी पेड़ पे लदे आमों में से पके पीले आम ढूंढ के निकालना. फिर उसे तोड़ना या पत्थर ढेला मारकर गिराना. गिरने के बाद आम की लूट और बंदरबाँट. उन्हीं आम के पेड़ों के मध्य कुछ जामुन के वृक्ष भी थे. गाँव में यह प्रचलन था की जामुन का पेड सबके लिए खुला था. यानी किसी के पेड़ का फल कोई भी खा सकता था. सारे दिन बच्चों की टोली घूम घूम के हर बाग़ के जामुन के पेड़ों पे चढ़ के ताजा तुरंत का पका फल खाती थी. उस काले जामुन का जो स्वाद मिलता था वो अवर्णनीय है. बड़े बूढ़े चिल्लाते रहते, “धर्मू मत चढो. जामुन के पेड़ की डाल कमजोर होती है. टूट जायेगी”. मगर धरमू व अन्य बच्चे कहाँ सुनते.

पेड़ पे चढ़े दर्जनों बच्चे धम्म-धम्म नीचे कूदते यदि भोंपू की आवाज सुनाई दे जाती. ये आवाज आती एक साइकिल सवार से जो पीछे कैरियर पे लकड़ी के बक्से के अन्दर आइसक्रीम ले के चलता था. यह आइसक्रीम रंगीन पानी में सिक्रीन डाल के जमाया हुआ बर्फ होता था जिसके अन्दर एक लकड़ी की डंडी होती थी पकड़ने के लिए. साधारण आइसक्रीम तीन पैसे व विशिष्ट वाली पांच पैसे की मिलती थी. उस तपती दोपहरी में बच्चों को वो साधारण आइसक्रीम अमृत जैसी लगती थी. पैसे तो कोई ले के चलता नहीं था, अतः ललचाई नज़रों से सारे बच्चे एक दूसरे का मुँह देखते. तभी एक चतुर बच्चा ‘गप्पू’ जा के दो किलो आम ले आता और उस बर्फ वाले से ‘बार्टर डील’ कर लेता पांच आइसक्रीम के लिए. वो बच्चा पाँच आइसक्रीम पा के विश्व का सबसे बड़ा शहंशाह बन जाता और सारे बच्चे उसके गुलाम. एक अदद आइसक्रीम के लिए उसकी हर बात मानने को तैयार.

आमों के पकने का समय आने पर उन्हें कच्चा ही तोड़ लिया जाता और झउआ में भूसे के बीच रख के ऊपर से बोरा डाल के पैक कर दिया जाता था. झउआ बनता था अरहर के पौधे के तने से, जिसे करीने से बुनकर एक बड़े पात्र का आकार दे दिया जाता. इस पात्र से खेती का सामान जैसे भूसा इत्यादि की ढुलाई होती या पशुओं को चारा परोसा जाता था. इस पाल में डले आम को पकने में हफ्ते-दस दिन लग ही जाते थी. लेकिन धर्मू को इतना धैर्य कहाँ था. चार-पाँच दिन पश्चात ही वो चुपके से उस पाल वाले कक्ष में प्रवेश कर जाता था भरी दोपहरी में जब घर की औरते लू की वजह से सो रही होती थीं. आराम से भर पेट आम खाता, थोड़े कम पके ही सही. गुठली और छिलके उसी झउआ में वापस डाल चुपके से निकल लेता. समय पूर्ण होने पर माँ जब पाल खोलती तो आधे आम व आधी गुठलियाँ निकलतीं.

अब ऐसा सुख धर्मू को कहाँ मिलता नगर में. वहाँ तो घर से बाहर निकलते ही पक्की सडक और उसपे चलते वाहन. एक बार घर में ऐसे हे खेलते हुए गेंद लेने बाहर भागा तो साईकिल से टकरा गया. दूसरी बार गया तो रिक्शे से. भला हो उस जमाने में लोगों के पास बड़ी गाड़ियाँ क्रय शक्ति के बाहर थीं वरना टकराने का अंजाम गंभीर होता. नगर में न तो कोई पेड़ बाग़ बगीचे, न ही गाँव के बाल गोपाल. ज्यादा लोग मोहल्ले में उसे जानते नहीं थे, और मोहल्ले के बाहर तो कोई भी नहीं. जबकि गाँव का हर घर उसे या उसके परिवार को जानता था. जेठ की दोपहरी में आम के बाग़ में घूमते हुए प्यास लगने पे किसी के भी घर पहुँच जाते, और वो लोग सभी बच्चों को चुल्लू में पानी पिला देते थे. इसलिए धर्मू को नगर में रहना फूटी आँख नहीं सुहाता था. जब भी मौक़ा मिलता, हर अवकाश में पिता के साथ गाँव भाग लेता. और वापस आने के वक्त माँ से लिपटकर रोता पीटता नगर न जाने के लिए. माँ का ह्रदय विदीर्ण हो जाता. कहती चलो ठीक है, “मैं कल बाबूलाल के साथ भिजवा दूंगी”. मगर पिता इस मामले में बहुत ही अनुशासन पसन्द. एक भी विद्यालय का पाठ नहीं छूटना चाहिए बच्चे के अच्छे भविष्य के लिए.

समय का पहिया घूमता गया. धर्मू बड़ा हुआ. प्राथमिक पाठशाला से माध्यमिक में गया और फिर उच्च-माध्यमिक. पत्र-पत्रिकाएं पढता. हिंदी फ़िल्में देखता. क्रिकेट कमेंटरी सुनता. एक बार उसे महानगर प्रयाग जाने का अवसर मिला, तो बड़े महानगर की चकाचौंध से प्रभावित हुआ. चौड़ी सड़कें, रात में रोशन जगमगाता सिविल लाइन. साथी विद्यार्थियों से सुना था दिल्ली बंबई जैसे महानगर और भी ज्यादा चमकीले व आकर्षण के केंद्र हैं. किसी सहपाठी ने कहा, पेरिस में शीशे की सड़कें हैं. तो दूसरे ने बोला वेनिस में पानी की सड़कें हैं. ये सब सुनकर धर्मू किसी कल्पित सपनों की दूसरी दुनिया में पहुँच जाता और सोचता मैं भी किस तरह उन सब बड़े स्थानों को देखूँ. समय बदला, वो बड़ा होता गया और उसकी सोच भी बदलती गयी. गाँव का आकर्षण कम होता गया. नगरीय आकर्षण बढ़ता गया. ग्रामवासी उसे गँवार पिछड़े लगने लगे. महानगरीय लोग विकासशील व संभ्रांत लगे. गाँव की भाषा अवधी त्याग उसने हिंदी बोलना शुरू किया. कालान्तर में हिंदी भी पिछड़ी लगी और उसने अंगरेजी में अपना भविष्य ढूँढना प्रारम्भ किया. तीव्र अच्छा जगी कैसे और किस तरह शीघ्रातिशीघ्र मैं भी महानगरों की राह पकडूँ, और यदि हो सके तो उससे भी आगे विदेश की.

जहाँ चाह वहाँ राह. धर्मू अभियंत्रण (इंजीनियरिंग) महाविद्यालय में प्रवेश पा गया जो उस समय अत्यंत प्रतिष्ठित माने जाते थे. पूरे प्रदेश में मात्र आधा दर्जन संस्थान थे और उनमें प्रवेश पाने के लिए कठिन संग्राम होता था प्रतिभावान विद्यार्थियों के बीच. इंजीनियरिग पाठ्यक्रम उत्तीर्ण करने के पश्चात नौकरी मिल गयी. जीवन के अभीष्ट साधन व् भोग विलास की सारी सुख सुविधाएं उसे शनैः शनैः प्राप्त होती गईं. क्लब, स्वीमिंग पूल, टेनिस, बिलिअर्ड, डांस फ्लोर, देर रात्रिकालीन पार्टियाँ, मोटर साईकिल, कार इत्यादि सभी कुछ. कुछ वर्ष कार्य करने के पश्चात उसकी इच्छा हुई महानगरों की ओर जाने की और यदि हो सके तो उससे भी आगे विदेश. अंततः उसे अपनी मंजिल मिल गयी. महानगर दिल्ली में एक प्रतिष्ठान मिला जिसका व्यवसाय कई देशों में फैला हुआ था. दिल्ली में गृहस्थी जमाई, घर क्रय किया. विदेशों में कई दौरे लगे. यूरोप जापान जैसे विकसित देशों को करीब से देखा परखा. कई देशों में लंबा प्रवास भी हुआ. दो दशक निकल गए इसी भागमभाग में. काफी पैसा कमाया, सारे भौतिक साधन इकठ्ठा किये. लेकिन कहते हैं की हर यात्रा का एक अंत होता है. धीरे-धीरे उसे ये जीवन नीरस लगने लगा. 

सुबह तड़के घर से निकलता और दिल्ली महानगर की सडकों पे जाम में जूझता हुआ डेढ़ घंटे में आफिस. यही होता वापसी में. सूर्यदेव के दर्शन न होते. कैल्शियम व विटामिन-डी की कमी से अस्थि व जोड़ों के रोग हो चले. प्लास्टिक के पैकेट के दूध में लोगों ने तरह तरह की खामियाँ निकालनी शुरू कीं.

धर्मू कहता, ”हमारे गाँव में गाय रोज दस लीटर शुद्ध दूध देती है. मिलावट का नाम नहीं. लेकिन कोई पीने वाला नहीं है. और यहाँ हम सिंथेटिक दूध पीकर मर रहे हैं. पुरखों ने कई बीघे जमीन हड्डी तोड़ मेहनत से कमा के हमारे लिए रख छोडी और हम हैं की यहाँ महानगर में फ़्लैट खरीद के इकट्ठा कर रहे हैं. जब हमने अपने पुरखों की छोड़ी जमीन नहीं प्रयोग की, तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमारी उपार्जित संपत्ति का उपयोग भला क्यों करेंगी?”

महानगरों में लोगों की भीड़ तो बहुत ज्यादा लेकिन सब अनजान और अपनी अपनी छोटी सी दुनिया में मग्न. विदेशों में तो हालत और भी ज्यादा नाजुक. कार्यालय से आकर घर से बाहर कदम रखता सांध्य-भ्रमण के लिए तो सारे मार्ग सुनसान. वहाँ पैदल चलने का रिवाज ही न था. न कोई बोलने वाला न बात करने वाला. फेसबुक व वाट्सएप की आभासी दुनिया में व्यस्त हुआ. पांच हजार मित्र बन गए. रचनात्मक कहानियों व फोटो पे सैकड़ों लाइक्स व कमेन्ट आते. कुछ वर्ष ये सब अच्छा लगा. लेकिन फिर धीरे धीरे वास्तविकता अपने पर्त उधाडती चली गयी. यह सब एक दिवास्वप्न लगने लगा. स्वप्न समाप्त, आँखें खुलीं तो सब कुछ गायब. न कोई भौतिक क्रियाकलाप न मेल-मिलाप. आँखें अलग से खराब होतीं दिन भर मोबाइल पे गडाने से.

धर्मू की अब इच्छा हो चली अपने वही गाँव वाले बचपन के दिन जीने की. पत्नी से कहता, “बेकार में इतना बड़ा घर बनवा लिया दिल्ली में. क्या करना है अब वहाँ रह के सेवानिवृत्ति के पश्चात? चालीस वर्ष नौकरी कर ली, कितना करूँगा? और यदि करना भी चाहूँ तो क्या स्वास्थ इसकी अनुमति देगा? विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित महानगर है. दीवाली के आसपास सात सौ का आंकड़ा पार कर जाता है प्रदूषण-स्तर. गाँव देहात में नब्बे वर्ष जी सकने वाला धर्मू इस महानगर में सत्तर भी नहीं पहुँच पायेगा. मैं तो अब गाँव ही जाऊँगा. वहाँ नीम के नीचे शुद्ध आक्सीजन का सेवन करूँगा. लोगों के साथ दहला पकड़ खेलूँगा. गाय का शुद्ध दूध पिऊँगा. अपने खेत का बिना यूरिया वाला अनाज खाऊँगा. सीधे पेड़ की डाल से तोड़ आम अमरूद जामुन खाने का तो जैसे स्वाद ही भूल गया हूँ. गाँव की चौखट से निकल किसी भी तरफ चल दूंगा. किसी के भी दरवाजे पे बैठ जाऊँगा, वहीं लग जायेगी चौपाल. हर कोई तो जानता है वहाँ हमें और हमारे खानदान को. रामलीला व दशहरे का मेला देखूँगा. माघ महीने में कुम्भ मेला में एक महीने का कल्पवास करूँगा. बचपन वाले सारे बालसखाओं को एकत्र करके फिर से एक फ़ौज बनाउँगा. अब मैं वहीं गाँव में एक घर बनवाऊँगा”.

पत्नी ने कहा, “मुझे नहीं रहना वहाँ. तुम्हें रहना है तो घर बनवाने की क्या जरूरत है. एक कमरा तो है ही हमारा अपने पुश्तैनी घर में. जाओ कुछ दिन रह के देखो. यदि अच्छा लगे तो फिर घर भी बनवा लेना”.

धरमू, “ अच्छा क्यों नहीं लगेगा? वहाँ की मिटटी और हवा में हमारे पुरखों की सम्मोहनकारी सुगंध है. बहुत पहले मैं वहीं अपना बचपन छोड़ आया हूँ. अब इस काया में उसी बचपन के किरदार को प्रविष्ट कराने की तीव्र अभिलाषा है”.

सेवानिवृत्ति पश्चात धर्मू कुछ दिन अपने फण्ड इत्यादि को व्यवस्थित करने में लगे रहे. जब सब कुछ निपट गया तो अपने गाँव गमन के लिए ट्रेन में विराजमान हुए. रात्रिकालीन यात्रा पश्चात सुबह तड़के उतर गए प्लेटफोर्म पे. भतीजा वहाँ पहले से ही स्वागत में कार लिए खडा था. उन्हें याद आया अपना बचपन. कैसे इसी स्टेशन पर लोगों को लेने के लिए हमारी पुरानी बैलगाड़ी आया करती थी. एक किमी पक्की सडक छोड़ने के पश्चात कच्ची सड़क जाती थी एक और किमी घर तक. उस सड़क में कुछ जगह गड्ढों में पानी भर जाता था, तो धर्मू भी कई अन्य लोगों के साथ बैलगाड़ी के पहिये को घुमाने के लिए जोर लगाता हुआ चिल्लाता था, “इत्ती बित्ती भईसा, जोर लगा के हईंसा”.

और कुछ ज्यादा सोच पाता की कार घर के दरवाजे पे आ के रुकी. जिस रास्ते को तय करने में बैलगाड़ी घंटे लगाती थी, वो दो मिनट में सर्र से उड़ गया. पूरी सड़क पक्की और चौड़ी हो चुकी थी घर तक. धर्मू हर्षातिरेक से उछल पडा. गाँवों में भी विकास हो गया. अब रहने में भला क्या परेशानी है. उतरे और बैठ गए उसी नीम के नीचे चबूतरे पे. चारो तरफ जायजा लिया. कच्चे मकान सब गायब हो चुके थे और उनकी जगह या तो रिक्त थी या पक्के मकान आ गए थे. चबूतरे के चारो तरफ के जानवर गायब हो चुके थे. केवल एक गाय बंधी थी. पूछने पे पता लगा पूरे गाँव में एक भी बैल नहीं हैं. सारी खेती ट्रैक्टर से होती है. धर्मू थोड़ा चिंतित हुआ. स्वास्थ्योपयोगी ऑर्गेनिक अनाज उगाने के लिए गोबर की कम्पोस्ट खाद कैसे मिलेगी बिना बैलों के?

खैर कोई बात नहीं चलो चाचा ताऊ के घर वालों से मिल लेते हैं. बड़े भाई ने बताया, “कोई नहीं रहता अब”.

“क्यों कहाँ गए प्रधान जी? उन्होंने तो नौकरी छोड़ खेती बाडी को ही अपना जीवन उद्द्येश्य मान इस मिटटी से जुड़ गए थे”.

भाई, “वो भी बनारस में मकान बना के वहीं रहते हैं अब”.

धरमू, “मेरे बालसखा बाबा और चुन्नन तो होंगे ही?”

“बाबा की रंजिश हो गयी थी तुर्कों से. उन्होंने बीच बाजार इन्हें बम से उड़ा दिया. और चुन्नन की किडनी खराब होने से कई वर्ष पहले मौत हो गयी”.

धर्मू को झटका लगा, “किडनी तो महानगरों की बीमारी है, यहाँ गाँव में कैसे सुनाई दे गयी?”

“अब गाँव में भी शुगर और हृदयाघात के रोग आम हो चुके हैं. लोग बाग़ हल चलाते नहीं. सब कुछ मशीनों से होता है. कई लोग तो डाक्टरों के कहने पे सुबह टहलते हुए मिल जायेंगे सडक पे”.

आरंभिक निराशा के बाद भी धर्मू उठ खडा हुआ पूरे गाँव का जायजा लेने के लिए. अपनी निकर पहनी और चल पडा गाँव की पगडंडियों पे. कई जगह बच्चे दिखे. नौजवान भी दिखे. किसी ने धर्मू को न पहचाना, न ही धर्मू ने किसी को. काफी घंटे भर घूम टहलने के पश्चात भी धर्मू को वो दृश्य अवलोकित न हुआ, जिसकी उसे तलाश थी. वो तलाश रहा था कबड्डी, चिल्होर, गुल्ली-डंडा, झाबर, कोड़ा-जमाल. चलो ये गाँव के खेल न सही कोई क्रिकेट फुटबाल ही दिख जाय. मगर निराशा ही हाथ लगी. हाँ कुछ जगह लोगबाग दिखे चाय-पान की दुकानों पे गप्प मारते हुए. ज्यादातर लोग अकेले दिखे मोबाइल पे आँखें गडाए हुए.

संध्याकाल में भाई के साथ अपने पुराने मंदिर कुटी के लिए चल पड़े. इस कुटी के प्रांगण में बचपनकाल में रामलीला होती थी. पीछे वृहद् मैदान में दशहरे का मेला लगता था. रावण मारने व जलाने के लिए राम-लक्ष्मण की पालकी यहीं से उठती थी. मंदिर के पुजारी ने बताया, रामलीला तो काफी पहले ही बंद हो चुकी थी. राम पालकी भी अब यहाँ से नहीं उठती. मेला मैदान दूसरे ग्राम-समाज के भौगोलिक परिसीमन में चला गया. इस चक्कर में काफी झगड़ा फसाद हुआ बर्चस्व को लेकर, कि मेला प्रबंधन व रावण-दहन किसके हाथ में होगा. इसलिए जिला प्रशासन ने रावन दहन पे रोक लगा दी. बस मेला लगता है, रावण-दहन नहीं होता.

धर्मू बड़ा दुखी हुआ फिर भी हिम्मत नहीं हारी. अगले दिन आम के बाग़ की राह पकड़ी. मौसम तो नहीं है आमों का, लेकिन थोड़ी पुराने दिनों की याद ताजा हो जायेगी. कैसे किस डाल पे हम भागते फिरते थे आम तोड़ने के लिए. वो नशपतिअहवा आम का पेड़ जिससे चुन्नन गिरे और जीवन भर लंगडाते फिरे. लेकिन आम के बाग़ में पहुँच के सन्न रह गया. वो घना बाग़, जहाँ दिन में भी जमीन पे प्रकाश नहीं आता था, जहाँ बंदरों के डर से हम बच्चे दिन में भी आने से डरते थे, अब खेत में परिवर्तित हो चुका था. सारे पेड़ काटे जा चुके थे. कुछ बागों में नाम मात्र के वृक्ष बचे थे. मायूस हो वापस घर आ गया.

दोपहर हो चली. सोचा चलो पम्पिंग सेट की टंकी में जा के स्नान किया जाय. यह बचपन में गाँव का स्वीमिंग पूल हुआ करता था. कुएँ से मोटी लोहे की पाइप से पानी निकलकर पहले टंकी में भरता, फिर वहाँ से गिरकर खेत में जाता नालियों के जरिये. लेकिन वहाँ पहुँच के देखा टंकी तो यथावत थी, लेकिन कुआँ और पाइप गायब हो गए थे. भाई ने बताया, “अत्याधिक जलदोहन की वजह से भूजलस्तर नीचे गिरता चला गया. सारे कुएं सूख गए. चाँपाकल बेअसर हो गए. सभी लोगों ने सबमर्सिबिल पम्प लगवा लिए. इसमे एक पाइप डाली जाती है काफी गहरी और वाटर पम्प उसके अन्दर काफी नीचे होता है जलस्तर के समीप ही. पाइप से सीधे खेतों में पानी पहुंचाया जाता है. टंकी में संचित करने की आवश्यकता ही नहीं है”.

धर्मू अब काफी निराश हो चुका था. घर आ के अपने कक्ष में गया और मोबाइल निकाल लिया. सोचा चलो आधुनिकता वाली जिन्दगी ही जिया जाए. फेसबुक और व्हात्सप्प खोला. लेकिन डाटा ही नहीं चल रहा था. बाहर आया दुआर पे. वहाँ भी सिग्नल न मिला. भाई ने बताया दूर मंदिर पे जाना पडेगा तब चलेगा. धर्मू ने कहा, “आप वाई-फाई क्यों नहीं लगवाते?”

भाई, ”लैंडलाइन सबने कटवा दी है. वैसे भी यहाँ बहुत निम्न गति मिलती है वाई-फाई पे. उसका लगाना न लगाना एक बराबर है. आप्टिकल फाइबर से वाई-फाई देने वाला कोई है नहीं यहाँ. ”.

धर्मू ने अपना सर पटक लिया. अरे ये कहाँ पहुँच गया मैं? ये कौन सी जगह है? यहाँ न आधुनिकता है न प्राचीनता. पुराने जान पहचान वाले काफी लोग स्वर्गवासी हो गए. नए नौजवान नगरों को पलायन कर गए बेहतर भविष्य की तलाश में. जो कुछ बचे खुचे हैं वो हमें पहचानते ही नहीं. पुरानी बचपन वाली संस्कृति तो रही नहीं. नगरों की आधुनिकता भी नदारद है. ये परिवर्तित ग्राम अपनी अस्मिता और नए पहचान की तलाश में भटक गया है शायद कहीं. ऐसे ही सभी लोग यदि नगरों को पलायन करते गए तो खेतों में फसल कौन उगाएगा? क्या हम मशीनों को ही खा के पेट भरेंगे? घर के घर सभी खाली पड़े हैं गाँवों में. हमारे अपने ही घर में अगली पीढी में कोई रहने वाला न बचेगा. हमारे बच्चों को तो ये भी नहीं पता उनके खेत कितने हैं, कहाँ हैं, उनकी सीमा कहाँ तक है. परिस्थिति बहुत ही चिंतनीय और विकट है. स्वयं धर्मू का अपना पुत्र गाँव तो क्या देश ही छोड़ निकल गया. गहन विचारों में मग्न धर्मू खेतों के मध्य पगडंडियों पे चलते कहीं दूर निकल गये. तभी मोबाइल की घन्टी बजी. उठाने पे पत्नी की आवाज उधर से आई.

“अजी सुनते हो. हमारी सोसाइटी के वरिष्ठ-नागरिकों का ग्रुप १५ दिन की पिकनिक यात्रा पर जा रहा है कुलू-मनाली. मैंने भी अपना नाम दे दिया है. तुम तो इस बीच आओगे नहीं, फिर भी मैं फ्लैट की चाभी बगल वाले अग्रवाल जी के यहाँ छोड़ जाऊँगी”.

धर्मू ने कहा, “चाभी देने की कोई जरुरत नहीं है”.

पत्नी,” क्यों भला?”

धर्मू, “मैं भी साथ चलूँगा. कल वापस आ रहा हूँ”.